मंगलवार, 3 अप्रैल 2007

वो मनुष्य जाति की मातायें हैं

जीवन बदल रहा है.. विशेषकर स्त्री की समाज में भूमिका को लेकर.. इस विषय पर तमाम तरह के विचार समाज में चल रहे हैं.. उन विचारों के बिल्ले भी हैं.. नारीवादी, अतिनारीवादी, प्रगतिशील, पतनशील, पुरातनपंथी, रूढ़िवादी आदि आदि.. इन विचारों में कुछ पोलिटिकली करेक्ट विचार माने जाते हैं.. और कुछ पोलिटिकली इनकरेक्ट.. मैंने भी कुछ ऐसे ही पोलिटिकली इनकरेक्ट विचार पिछले दिनों व्यक्त किये.. लोग अप्रसन्न भी हुए.. आज मैं भारत के एक मूर्धन्य कवि और विचारक और आधुनिक ऋषि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के विचार आपके सामने ला रहा हूँ.. स्त्री पर ये विचार उन्होने १९१६-१७ की अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान एक भाषण में व्यक्त किये.. पाठकों से थोड़े धैर्य की अपेक्षा है.. कुछ गुरुदेव की अपनी अंग्रेज़ी की सीमायें हैं और कुछ मेरे अनुवाद की.. एक साथ पूरे भाषण को देना पढने वालों के लिये भारी हो जायेगा इसलिये तीन टुकड़े कर दिये हैं.. आज पहला टुकड़ा..

स्त्री


जब नर प्राणी एक दूसरे को मारने के लिये अपनी हिंसा में लिप्त होते हैं, कुदरत इसकी अनदेखी करती है क्योंकि, तुलनात्मक रूप से, मादा उसके मक़सद में अनिवार्य हैं जबकि नर महज़ एक ज़रूरत। किफ़ायती शील की होने के कारण कुदरत उन भूखी सन्तानों को ज़्यादा तरजीह नहीं देती जो झगड़े की हद तक पेटू हैं मगर कुदरत का ऋण चुकाने के लिये योगदान बहुत ज़रा सा ही करते हैं। इसीलिये कीट जगत में हम यह संवृत्ति देखते हैं जिसमें मादायें नर जन संख्या को कम से कम रखने की ज़िम्मेदारी निभाती हैं।

प्रकृति के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी से बहुत हद तक मुक्त हो गये, मनुष्य जगत में नर को, अपने शौक और खुराफ़ातों को पूरा करने की आज़ादी मिल गई है। आदमी को परिभाषा से औज़ार बनाने वाला प्राणी कहा जाता है। ये औज़ार बनाना कुदरत के दायरे से बाहर है।

वास्तव में हम अपनी औज़ार बनाने की ताक़त के ज़रिये ही कुदरत की अवहेलना कर सके हैं। अपनी अधिकतर ऊर्जा की मुक्ति की बदौलत ही मनुष्य ने ये क्षमता पैदा की और शक्तिशाली हो गया। और इस तरह से, बावजूद इसके कि कुदरत द्वारा प्रदत्त जैविक विभाग की गद्दी अभी भी स्त्री के ही पास है, मानसिक विभाग में पुरुष ने अपना प्रभुत्व बना और बढ़ा लिया है। इस महान कार्य के लिये दिमाग़ का अलगाव और गतिविधि की स्वतंत्रता आवश्यक थे।

आदमी ने शारीरिक और भावनात्मक बेड़ियों से अपनी तुलनात्मक आज़ादी का फ़ायदा उठाया और अपने जीवन की सीमाओं को तोड़ने की दिशा में बेरोकटोक बढ़ चला। इस यात्रा में वह क्रांति और विध्वंस के खतरनाक रास्तों से होकर गुज़रा है। समय समय पर उसके संचय समूह ढहते रहे और और तरक़्क़ी की धारा अपने स्रोत से ही अदृश्य होती रही है। लाभ अच्छे खासे हुए मगर नुकसान उससे भी ज़्यादा उठाने पड़े। खासकर कि जब हम ये सोचें कि जो सम्पदा जाती रही वो अपने साथ सारे प्रमाण भी ले गई। विनाश के इन आवृत्तियों से आदमी ने ये समझा है, हालाँकि उस सत्य का पूरा लाभ अभी भी नहीं लिया है, कि उसके सभी संरचनाओं को विनाश से बचाने के लिये एक लय बनाये रखना ज़रूरी है, कि मह्ज़ शक्ति की असीमित बढोत्तरी सच्ची तरक़्क़ी नही लाती, और सच में एक सही प्रगति के लिये एक सन्तुलन होना चाहिये, संरचना का बुनियाद के साथ एक तालमेल होना चाहिये।

स्त्री के स्वभाव में स्थायित्व के गुण के लिये बड़ा मूल्य है। अंधकार के हृदय में जिज्ञासा के चंचल तीर छोड़ते रहने का महज़ चलताऊपन उसे कभी नहीं लुभाता। उसकी सारी शक्तियाँ कुदरतन चीज़ों को एक आकार एक गोलाई देने में लगी रहती हैं क्यों कि यही जीवन का नियम है। जीवन की गति में हालाँकि कुछ भी अन्तिम नहीं मगर फिर भी हर कदम में एक पूर्णता की लय है।एक कली में भी अपने आदर्श की सम्पूर्ण गोलाई है, और फल में भी। मगर एक अधूरी इमारत में सम्पूर्णता का कोई आदर्श नहीं होता। इसलिये अगर वह अपने परिमाण में बढ़ती ही जाय तो धीरे धीरे वह अपने स्थायित्व के दायरे से बाहर चली जाती है। मानसिक सभ्यता की पौरुषीय संरचनायें बेबेल की मीनारें हैं। वे अपने बुनियाद की अवहेलना की ज़ुर्रत करती हैं और बार बार भरभराकर धसक जाती हैं। मनुष्य का इतिहास अपने विध्वसों की परतों पर ही विकसित होता रहा है। ये कोई सतत जीवन विकास नहीं रहा है। अभी चल रहा युद्ध (प्रथम विश्व युद्ध) इसी की एक अभिव्यक्ति है। बुद्धि से जन्मे हुए आर्थिक और राजनैतिक संगठन जो महज़ मशीनी शक्ति के ही नुमाइन्दे हैं, जीवन के बुनियादी आयाम में अपने गुरुत्व के केन्द्रों को भूल जाने के लिये प्रवृत्त हैं। शक्ति और स्वामित्व का संचित लोभ जिसका कोई सम्पूर्णता की कोई अवस्था नहीं हो सकती, जिसका नैतिक और आध्यात्मिक पूर्णता के आदर्शों के साथ कोई तादात्म्य नहीं है, आखिरकार अपने ही उपादान के भारीपन पर एक हिंसक वार कर बैठता है ।

इतिहास के वर्तमान मकाम पर सभ्यता लगभग पूरी तरह से पौरुषीय है, एक ताक़त की सभ्यता, जिसमें स्त्रियों को एक किनारे ढकेल दिया गया है। इसलिये इस सभ्यता का सन्तुलन बिगड़ा हुआ है और ये एक युद्ध से दूसरे युद्ध में उछलते हुए सी गति कर रही है। इसकी नीयत की शक्ति विनाश की शक्ति है, और इसके अनुष्ठान मानव बलि की एक भयंकर संख्या के साथ सम्पन्न होती है। ये एकतरफ़ा सभ्यता एक ज़बरदस्त चाल से दुर्घटनाओं की एक श्रंखला से टकराती हुई चल रही है क्यों कि ये एकतरफ़ा है। और आखिरकार वो समय आ गया है जब स्त्रियों आकर इस ताक़त की इस दुस्साहसी चाल को अपने जीवन लय प्रदान करें।

क्योंकि स्त्री की भूमिका मिट्टी की ग्रहणशील, समावेशी भूमिका है जो न केवल पेड़ को बढने में मदद देती है बल्कि उसकी वृद्धि की सीमायें भी तय करती है। जीवन के जीवट के लिये पेड़ अपनी शाखाएं ऊपर की दिशा में सभी ओर फैलाता है मगर उसके सारे गहरे बन्धन ज़मीन के नीचे मिट्टी में जकड़े हुये छिपे हुए हैं और उसे जीने में सहायक होते हैं। हमारी सभ्यता के भी अपने समावेशी तत्व चौड़े, गहरे और स्थिर होने चाहिये। केवल वृद्धि नहीं, वृद्धि का एक समन्वय होना चाहिये। सिर्फ़ सुर नहीं ताल भी होना चाहिये। ताल कोई बाधा नहीं है, ये वैसे ही जैसे नदी के किनारे होते हैं, वो धारा को सततशील बनाते हैं वरना वह दलदल के अनियतता में खो जायेगी। ये लय है ताल है, जो संसार की गति को रोकती नहीं बल्कि उसे एक सत्य और सौन्दर्य प्रदान करती है।

शील, विनय, समर्पण और आत्म-बलिदान की शक्ति स्त्री को समावेशिता के ये गुण पुरुष से ज़्यादा अनुपात में मिले हैं। ये प्रकृति की समावेशिता का गुण ही है जो इस की पैशाचिक शक्ति के जंगली तत्वों को वश में करके सौम्य और कोमल बनाकर जीवन के सेवायोग्य एक सुन्दर रचना में बदल देता है। स्त्री की इसी समावेशिता की शक्ति ने उसे वह वृहद और गहरी शान्ति दी है जो स्वास्थ्य पोषण और संग्रहण के लिये अत्यावश्यक है। अगर जीवन सिर्फ़ व्यय होने का नाम होता तो वह रॉकेट की तरह एक पल ऊपर जाता और दूसरे पल राख बनकर ज़मीन पर आ गिरता। जीवन एक चिराग़ की तरह होना चाहिये जिसमें कि रौशनी की सम्भावना लपटों से कहीं ज़्यादः है। स्त्री के स्वभाव में इसी समावेशिता की गहराई में जीवन की सम्भावना संग्रहीत होती है।

मैंने पहले कहीं कहा है कि पश्चिमी दुनिया की स्त्रियों में एक खास बेचैनी देखी जाती है जो उस के स्वभाव का सामान्य पहलू नहीं हो सकता। क्योंकि जो स्त्रियां अपनी रुचियों को जीवंत बनाये रखने के लिये अपने माहौल में कुछ विशेष और हिंसक तलाश करती हैं केवल यही सिद्ध करती हैं कि उनका अपने सच्चे जगत से नाता टूट चुका है। देखा गया है कि पश्चिम में बहुत सारी स्त्रियां और पुरुष भी उन चीज़ों की भर्त्सना करते हैं जो आम हैं। और वे उन चीज़ों का पीछा करते हैं जो कुछ खास है, और अपनी सारी शक्तियों का ज़ोर एक ऐसी जाली मौलिकता पर देते हैं जो सिर्फ़ चकित करती है संतुष्ट भले ना करती हो। मगर ऐसी कोशिशें जीवंतता की सही निशानियां नहीं हैं। और ये पुरुषों से ज़्यादा स्त्रियों के लिये घातक होती होंगी क्योंकि स्त्रियों में जैविक शक्ति पुरुषों की तुलना में अधिक प्रबल होती है। वो मनुष्य जाति की मातायें हैं और अपने आस पास की दुनिया की आम चीज़ों में उनकी सच्ची अभिरुचि होती है, यदि ऐसा ना हो तो मनुष्य जाति का विनाश हो जायेगा।


जारी..

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

अभय भाई
हार्दिक आभार. बहुत नेक काम कर रहे हैं आप.मुझे अंदाज़ा है कि यह अनुवाद कितना कठिन रहा होगा. आपसे गले मिलने का दिल कर रहा है.

सबसे ख़तरनाक है पोलिटिकली इनकरेक्ट समझे जाने वाले विचारों का तिरस्कार करना,ऐसा करने वाले लोग कभी नहीं जान पाएँगे जटिल मानव सभ्यता की सैकड़ों परतों में लिपटी कहानी को. विचारों का पोलिटिकल करेक्टनेस या उनका इनकरेक्ट होना बहुत ही तात्कालिक होता है, जो आज करेक्ट है कल इनकरेक्ट हो जाएगा...उसे जानना-समझना चाहिए लेकिन उसके फेर में नहीं पड़ना चाहिए.
अनामदास

azdak ने कहा…

जय हो, भाई अनामदास.. जय हो, श्री प्रीत पियारे अभय जी तिवारी जी.. वैसे ठाकुर बाबू थोड़ा नहीं काफिये धैर्य की मांग करवा रहे हैं.. लेकिन रस्‍ता सही है.. ज्ञान का प्रकाश होगा.. साधुवाद..

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