बैटल
ऑफ बनारस के बहाने कमल स्वरूप से बातचीत
प्रश्न : आप
की फिल्म बैटल ऑफ बनारस का अभी
क्या स्टेटस है?
कमल:
फिल्म
को स्क्रीनिंग कमेटी ने रिजेक्ट
कर दिया है। पर अभी ट्रिब्यूनल
में जा सकती है। ट्रिब्यूनल
तो सेसंर बोर्ड से बाहर है।
वो सेंसर बोर्ड के निहित
स्वार्थो से परे हैं। इसलिए
कह सकते हैं कि अभी उम्मीद की
एक किरन बाकी है।
प्रश्न : आप
को अंदाज़ा था कि आप की फिल्म
सेंसर में परेशानी आ सकती है?
उत्तर
: मुझे
कोई अंदाज़ा नहीं था। सेंसर
में जाने के बाद भी मुझे किसी
ने कहा था कि आप की फिल्म में
दो चार जगह कट आ सकता है जहाँ
पर मोदी जी के उनके बारे में
कड़ी टिप्पणी कर रहे हैं,
उन हिस्सों
में हो सकता है कि आपत्ति हो।
क्योंकि वे तब एक प्रत्याशी
थे पर आज वे प्रधान मंत्री है,
और हो
सकता है कि उन्हे वे बातें
उनके पद की गरिमा के अनुरूप
न लगे। लेकिन यह उम्मीद नहीं
थी कि सेंसर सर्टिफिकेट ही
नहीं मिलेगा।
प्रश्न : कमल
भाई आपकी फिल्म ओम दर बदर एक
कल्ट फिल्म का दर्जा पा चुकी
है। परदे पर जितने लोगों ने
देखा इस फिल्म को देखा है,
उससे
कहीं ज्यादा लोगों ने टोरेंट
से डाउनलोड करके,
दोस्तों
से मांगकर,
खोजकर,
आंखे
फाड़कर चकित होते हुए देखा
है। वो किसी भी नज़रिये से
राजनीतिक फिल्म नहीं कही जा
सकती। बल्कि सच्चाई ये है कि
उस फिल्म को तब के तमाम वामपंथी
धुरंधरों ने नकार दिया था।
क्योंकि उसमें उनको कोई वर्ग
संघर्ष जैसी बात समझ नहीं आई।
या इमेज मीट्स द शैडो जैसी
डाक्यूमेंटरी जो एक शहर को
बेहद निजी नज़र से देखते हुए
भी उसकी आत्मा को उद्घाटित
कर देती है-
वो भी
राजनीतिक फिल्म नहीं कही जा
सकती। जो आप को जानते हैं वे
जानते हैं कि समाज में जिसे
राजनीतिक आदमी कहा जाता है-
वो आप
नहीं हैं। बैटल ऑफ बनारस आप
ने क्या सोचकर बनाई ?
उत्तर:
इलियास
कनेटि की किताब है क्राउड एंड
पावर। मैं उस पर एक फिल्म बनाना
चाहता था। कनेटि उसमें बताते
हैं कि भीड़ कितने प्रकार की
होती है, किसका
कैसा व्यवहार होता है,
कैसी
संरचना होती है,
कैसे
गति करती है आदि। वे उदाहरण
लेते हैं,
जगन्नाथ
रथ यात्रा के,
मुहर्रम
के जुलूस के,
तुगलक
के दिल्ली से दौलताबाद के सफ़र
के, दो
समुदाय में झगड़े के। मेरी
दिलचस्पी उस को डाक्यूमेंट
करने में थी। मैं देखणा चाहता
था कि भीड़ का ग्राफिक्स क्या
होता है? और
साथ में ये जो राजनीतिक नारे
हैं, रेटारिक
है, गाना
बजाना है- वो
तो हमारे लिए उत्सव की तरह था।
प्रश्न : ये
मामला बड़ा दिलचस्प है कमल
भाई, आप
ने एक कलात्मक दृष्टि से फिल्म
बनाई जो राजनीति में फंस गई।
ये जो कला और राजनीति का
चिरविवादित रिश्ता है-
इस पर
आप क्या कहेंगे?
उत्तर
: देखिए
राजनीति तो होती है-
हर सौन्दर्य
दृष्टि की एक राजनीति होती
है। नई कलात्मक सोच पुरानी
कलात्मक सोच के विरोध में जन्म
लेती है। और उनकी भी राजनीतिक
गोलबंदियां होती हैं। उनको
भी संघर्ष करना होता है। अब
जैसे यदि में भाजपा को होता
तो कोई अड़चन नहों आती। आप
वालों का होता तो भी शायद
सुरक्षित रहता। नहीं तो मेरे
लिए कम से कम लड़ने वाले होते।
अब जैसी आननंद पटवर्धन और
राकेश शर्मा की फिल्में राजनीतिक
सुरक्षा में बनती हैं। उनका
दर्शकवर्ग है। एक वर्ग है जो
चाहता है कि इनको इनको गाली
दे जाय। पर मेरी फिल्में न तो
इतनी खतरनाक हैं,
और न किसी
को खुलकर गाली देती हैं। मेरी
सोच या ये कहिए कि मेरी राजनीति
स्वतंत्र है। इसलिए उसे
अराजनीतिक मान लिया जाता है।
प्रश्न : तो
आप की क्या राजनीति है?
उत्तर
: मैं
तो अपने मन की करता हूँ। अपने
मन की करना ही बड़ी खतरनाक
राजनीति है।
प्रश्न : अगर
मैं आप से यह पूछूँ कि कला कला
के लिए? या
कला समाज बदलने के लिए?
उत्तर
: मुझे
तो फिल्म बनाने के दौरान भी
पता नहीं होता कि मैं क्या
करने जा रहा हूँ । फिल्म मेरे
नियंत्रण में नहीं होती। मैं
ही अपने आप को पूरी तरह समर्पण
करता हूँ। मैं अंत तक उत्सुक
रहता हूँ कि फिल्म कैसी बननी
वाली है।
मेरा
ये कहना है कि आज
जिन्हे भी हम समाज बदलने वाले
लोगों में गिनते हैं,
वे कलाकार
सामाजिक धारणाओं को बदलने की
कोशिश कर रहे थे,
ऐसा नहीं
है। जैसे पिकासो। जैसे बेला
टार। वे परसेप्शन को समझने
की, एक
नया परसेप्शन (बोध,
ख़याल)
को विकसित
करना चाहते हैं। परसेप्शन का
भी एक विज्ञान होता है। और उसे
समझना एक वैज्ञानिक अनुसंधान
है। जब आपका परसेप्शन बदलेगा।
उससे विचार बदलेगा,
नज़रिया
बदलेगा, भौतिक
व्यवहार बदलेगा। ऐसे ही तो
बदलता है समाज।
अब
देखिए कैमरा कैसे बना?
दौड़ते
समय क्या कभी घोड़े के चारों
पैर हवा में होते हैं-
यह जानने
के लिए कैमरे का ईजाद हुआ।
उदाहरण के लिए लूमियर है वो
इंजीनियर है। उसकी दिलचस्पी
एक गतिमान चित्र खींचने वाली
मशीन बनाने में थी। इसीलिए
जो जैसा है वैसा ही दिखा देता
है। उसके द्वारा रियलिज़्म,
नियो
रियलिज़्म आदि का विकास हुआ।
और मेलिएस जादूगर है। वो चौंकाना
चाहता है। मेलियस से फैन्टैसी
फिल्मों का विकास हुआ।
और
विकास कैसे होता है?
उपकरणों
का, विचारों
का, नज़रियों
का? मैं
यह मानता हूँ कि विकास की,
बदलाव
की भी एक प्राकृतिक प्रक्रिया
है। इसे आप कैमरे के विकास में
भी देख सकते हैं। किसी को कुछ
नहीं मालूम था कि आगे ये होने
वाला है? एक
आदमी तो नहीं कर रहा?
बदलाव
की एक प्राकृतिक गति होती है।
प्रश्नकर्ता
: पर
कमल भाई अाप अक्सर कहते हैं
कि आर्ट इज़ आर्टिफिशियल।
यदि कला कृत्रिम है तो फिर
उसका प्रकृति से रिश्ता?
उत्तर
: (मणि)
कौल साहब
बोलते थे कि स्वाभाविक हो जा।
हम बोलते थे-
आर्टिफिशयल।
मेरा ये कहना था कि इस माध्यम
से जो टेक्नोलोजी जुड़ी है,
उसमें
केवल रेकार्ड करना काफी नहीं
है। उसको पुनरुत्पादित भी
करना होता है। इसलिए उसमें
एक कृत्रिमता आ जाती है।
प्रश्न : और
टेक्नोलोजी जुड़ने से उद्योग
बीच में आ जाता है। कला और
उद्योग के रिश्ते पर आप क्या
कहेंगे?
उत्तर
: कला
और उद्योग के संबध को वैन गौघ
की मिसाल से समझिए। वैन गौघ
ग्रम्य जीवन की छवियां बनाता
था। पर उसका माध्यम आइल पेंट
है। जो उस समय की सबसे विकसित
टेकनोलोजी का प्रयोग करके
बनता था। वैन गौघ के चित्रों
में लोगों ने सुरम्य ग्राम्य
जीवन में आग के दर्शन किए। वैन
गौघ के अग्निमय दृश्य उस अग्नि
से मिलते है जिस से आइल पेंट
पैदा होता है। इस तरह माध्यम
और अभिव्यक्ति दोनों एक हो
जाते हैं। तभी वैन गौघ के
चित्रों में वो दृष्टि है जिसे
इम्प्रेशनिस्ट नहीं पा सके
थे।
रही
बात औद्योगिक कला की-
ये फिल्म
कला एक आदमी का काम नहीं है।
फिल्म बनाने के लिए अपने अपने
क्षेत्र के बहुत सारे निपुण
लोगों का साथ चाहिए। पानी
बरसाने वाले से प्लेन उड़ाने
वाले तक। इसलिए उसका एक
अर्थशास्त्र विकसित होता है।
निर्माण के बाद भी पूरे देश
भर में वितरण,
प्रदर्शन
सब कुछ अलग अलग है। एक महाजीव
तैयार हो जाता है। जिसकी गति
का, केंद्र
का पता नहीं चलता। पर कला में
इस तरह का महाजीव नहीं है। कला
एक तरह का लघु उद्योग है। और
अब तो सुपरमैन ऑफ मालेगांव
जैसे प्रयोग होने लगे हैं।
हर फिल्म का अपना एक अलग दर्शक
वर्ग होता है। छोटा या बड़ा-
जो
उसको अच्छा या बुरा तय करता
है।
उदाहरण
के लिए एंडी वारहोल को देखिए।
कला के बाहर कला कि छवि गढ़ने
का निराला काम किया
उसने। मैंने जब पहली बार एंडी
वारहोल को देखा तो चकित रह
गया। वो ऐसा मेरे साथ लगा कि
मैं ज़िन्दगी भर उसका पीछा
करता रहा। जैसे वो मेरा गुरु
हो- प्रेतगुरु!
बाद में
जाकर पता चला कि वो कितना महान
है, और
क्यों महान है। पर उसने जकड़
लिया था मुझे। वो भी एक तरह का
गेम है। अलग प्रकार का गेम।
प्रश्न : नए
लोगों के लिए क्या कहना चाहेंगे...
जो फिल्में
बना रहे हैं या बनाने वाले
हैं?
उत्तर
: हर
कलाकार अपनी विशिष्ट कलात्मक
बाधा में होता है। उसे वहीं
मदद चाहिए होती है। तो इसलिए
मैं नए लोगों के आइडिये को
छेड़ता नहीं। उनके अंदर जो
बात है, उसे
ही सुनता है और उसमें मदद करता
हूँ। हाँ मैं उनसे ये ज़रूर
कहता हूँ कि एक प्रिसिनेमा
कल्पना भी होती है। जो सिनेमा
के जन्म के पहले मौजूद थी। आज
भी है पर सोई रहती है। हर किसी
की एक अनोखी कल्पना होती है,
उसका
अपना सिनेमेटिक वीज़न होता
है। रिदम होता है। अपना यूनिक
सिनेमा। जिसे वही देखता है।
कोई दूसरा नहीं। उसी को बाहर
लाना चाहिए।
प्रश्न : तो
वैसा कलाकार कैसे बना जाय?
और वो
समाज के साथ कैसा रिश्ता बनाए?
उत्तर
: ये
तो बड़ा मुश्किल सवाल है..
भगवान
जाने यार!
***
(इस इंटरव्यू का एक संक्षिप्त प्रारूप १२ सितम्बर २०१५ को नवभारत टाइम्स में छपा)