निदो की मौत के पहले का घटना क्रम जो इस रपट से बनता है उस पर ज़रा गौर किया जाय:
१॰ निदो दुकान पर जाकर पता पूछता है, वो उस पर कुछ कमेंट करते हैं
२॰ निदो दुकान में इतनी तोड़फोड़ करता है कि पुलिस की मध्यस्थता के बाद वो ७७००₹ देने को राज़ी हो जाता है। (ज़ाहिरन हत्या के मुलज़िमों ने पुलिस को बुलाया)
३॰ निदो अपने कुछ और दोस्तों के साथ वापस घटना स्थल पर आता है। निदो के हत्या के मुलज़िम पुलिस को फोन करते हैं (दुबारा)। पुलिस वाले आकर फिर बीच बचाव करते हैं। निदो की माँ को फोन करते हैं। माँ कहती हैं कि निदो को उसके लोक गारजियन के पास छोड़ा जाय।
४॰ निदो थाने जाकर अपने एक दोस्त को ही लोकल गारजियन बताकर वहाँ से चला जाता है।
५॰ अगले दिन निदो की मौत हो जाती है।
६॰ शव परीक्षा के बाद किसी बाहरी चोट से मौत मुमकिन नहीं लगती। सब मामूली चोटे हैं।
ये आज की ख़बर है। पर निदो की मौत के पहले दिन से ही फेसबुक के सजग प्रहरियों ने इस पूरे मामले को रेसिज़्म से प्रेरित बताया और मीडिया ने भी। माफ़ करें साहब मुझे तो इसमें रेसिज़्म नहीं समझ आता। झगड़े, मारपीट, हत्याएं देश भर में होती हैं। विभिन्नताओं का देश है। ये कैसे मुमकिन है कि हिन्दू हिन्दू से लड़े, जैन जैन से, और मणिपुरी मणिपुरी से? सब को एक दूसरे से लड़ने का ईश्वरीय हक़ मिला हुआ है। निदो १९ साल का जवान ख़ून, जोश से इतना उबल रहा था कि न उसे किसी की सम्पत्ति की परवाह थी और न पुलिस-क़ानून की। ये भी ध्यान रखना चाहिये कि वो एक एम एल ए का बेटा था, हमारे देश मेँ इनकी एल अलग क़ौम बन चुकी है। हो सकता है हत्या के मुलज़िमों ने कोई ऐसी बात कही हो जो रेसिज़्म से प्रेरित हो, मगर क्या इस तरह की हिंसा से रेसिज़्म का हल किया जाएगा, जिसका परिचय निदो ने दिया?
मेरी समझ में तो ये एक ऐसी मानसिकता का मामला है जिसमें आप हर बात का जवाब हिंसा से देना चाहते हैं। और ऐसी मानसिकता हर समाज में आपराधिक कहलाती है, चाहे वो अरुणाचल के एम एल ए का बेटा करे या लाजपत नगर का एक पनीर वाला।
लेकिन मेरे तमाम दोस्तों और मीडिया ने इस मामले का ऐसा रंग बदला कि हमेशा चुप रहने वाले प्रधानमंत्री तक को बोलना पड़ा। वे इसे अपनी सफलता मान सकते हैं। पर मेरी समझ से ये दुखद है। मेरे दोस्त पहले भी इस तरह की ग़लतियां करते रहे हैं। ख़ुर्शीद अनवर के मामले में भी मित्रों ने बिना सोचे समझे उनके विरुद्ध कैम्पेन शुरु कर दिया। क्यों? स्त्री के साथ खड़े होना प्रगतिशीलता है, इसलिए वो आँखमूंदकर फ़ैसले कर रहे हैं। खिड़की मामले में भी यही हुआ। वहाँ तो उन्होने एक मंत्री ही नहीं पूरे मोहल्ले को रेसिस्ट क़रार दे दिया। और अब ये निदो का केस!
क्या मिला उन्हे? उनके इस अभियान से क्या लोगों के भीतर से नस्लवाद की भावना चली जाएगी? उलटे और पनपेगी। क्योंकि आप लोगों की आँखों में उंगली डालकर उन्हे पूर्वोत्तर के लोगों को अलग चिह्नित करवा रहे हैं। और पूर्वोतर के लोगों के मन में भी जबरन एक असंतोष की भावना को बल दे रहे हैं? क्यों? अगर ये राजनीति है तो ठीक है, अच्छी नीति है। क्योंकि राजनीति लोगों को बांटकर ही होती है।
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6 टिप्पणियां:
Abhay,
Thanks a lot for posting it. The very first thing that stood out when I read the report was "MLA's son". It instantly reminded me of a batchmate during college days whose father was MLA from Ghazipur and how he used to act.
Then I thought that may be MLA's (and their families) in North-east may not be drunk on power like is the case in Hindi belt. Who knows.
I appreciate your bringing out few points that can't be avoided from the overall picture.
With best regards,
Neeraj
जो हुआ वो दुखद है लेकिन नस्लवाद से इसका कोई लेना देना नहीं लगता।
पता नहीं सच को किस किस भाँति छिपाया जाता है?
पत्रकारों का अति-उत्साह भरा, रोमांचक ख़बरों का, लोभ सही विश्लेषण में अक्सर ही चूक जाता है -इससे जनता में ग़लत संदेश जाता है.ऊपर से सुनी बात को बात को हवा देनेवाले भी कम नहीं . !
ये काफी हद तक सच है। लेकिन, क्रांति और सबकुछ बदल देने वाले इस माहौल में निदो की मौत रंग, नस्लभेद का शिकार हुई बता दी गई है।
पता नहीं यह राजनीति हमेशा सच को छिपाकर और एक दूसरे को धोखा देकर झूठ बोलकर लोगों को आपस में लड़वा कर ही क्यूँ की जाती है।
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