गुरुवार, 31 जनवरी 2008

इन प्रेज़ ऑफ़ अ नान-भिन्नाटी वूमन

मेरी प्यारी भाभी,

सादर चरण स्पर्श,

मैं यहाँ कुशल-मंगल से हूँ और ईश्वर से आप की और भाईसाहब की कुशलता की कामना किया करता हूँ। पिछले दिनों भाईसाहब ने आपकी बहू के हाथ की खिचड़ी खाने की इच्छा प्रकट की थी। मैंने भाईसाहब को निमंत्रण तो उसी वक्त दे दिया था पर इस कामकाजी औरत ने तो..क्या बताएं.. जिन्दगी खराब कर दी हमारी।

अगर आप की बात मानकर वो सिराथू वाली से बिआह कर लिए होते तो आज ये दिन न देख रहे होते। अशोक नगर वाला बंगले के साथ सफ़ेद एस्टीम भी गद्दी के नीचे होती और बीबी हाथ जोड़े खड़ी भी होती और घर में कोई भिन्ना रहा होता तो हम। बड़ा मिसटेक हो गया वरना आज भाईसाहब जैसा जलवा अपना भी होता.. कहा ही है.. बिहाईन्ड एव्हरी सकसेजफ़ुल मैन.. देअर इज अ वूमन। आई वुड से.. देअर इज अ नान-भिन्नाटी वूमन।

आप चिंता न करें.. भाईसाहब की खिचड़ी पक्की है। अरे मेरी इज्जत का सवाल है। सबके सामने कहा है.. अगर नहीं खिलाई तो क्या कहेंगे लोग कि देखो साला जोरू का गुलाम है बीबी इसकी खिचड़ी तक नहीं बनाती। इस मामले में भाईसाहब बड़े लकी हैं उनको आप जो मिली हैं।

अच्छा भाईसाहब का स्वास्थ्य तो ठीक-ठाक है ना.. ये अचानाक अपनी ब्लॉगरी छोड़कर आप को रसोई से निकाल कर आप के पीछे जा कर क्यों खड़े हो गए हैं? क्या उनको लगता है कि औरतों के मुँह नहीं लगना चाहिए? और औरतों के मामले में घर की औरत ज्यादा अच्छा मुँहतोड़ जवाब दे सकती है? खैर जो भी बात हो आप ने भी क्या करारा रख के दिया है.. औरतें इतनी जल्दी भिन्ना क्यों जाती हैं। जरा सी बात में ’नारी मुक्ति संगठन’ खड़ा हो जाता है। जिन्दाबाद मुर्दाबाद शुरू हो जाता है..

आप की यह बात पढ़कर तो हमारा माथा श्रद्धा से और झुक गया कहाँ मिलती हैं ऐसी औरतें आजकल जो जरूरत पड़ने पर मर्द की रक्षा कर सकें। आप महान हैं भाभी जी सचमुच महान! आप को दुर्गा की तरह कलम उठाते देख कर ही तो मेरे अन्दर भी अपनी बात कहने की प्रेरणा जाग गई।

और कहा ही क्या था भाईसाहब ने.. औरतों को किताब पढ़ने की जरूरत क्या है..? ठीक ही तो कहा था मैं तो कहता हूँ कि किताब ही पढ़ने का जरूरत क्या है। अरे इस सर्दी में किताब पढ़ने से अच्छा उसे अलाव में झोंक के थोड़ा आग ताप लो। हाँ नहीं तो.. बेकार की चिकाई चल रही है।

भाईसाहब के प्रमोशन के लिए मैंने सिद्धिविनायक के दरबार में चार आने का प्रसाद चढ़ा दिया है। बड़े प्रसन्न थे.. अपने पास मुम्बई बुलाने की बात कर रहे थे। चार आने की ये बुद्धि रामखिलावन ने दी थी- हमारा चौकीदार- उसका कहना था कि सिद्दिविनायक के दरबार में सब सौ-हजार-लाखों का चढ़ावा चढ़ाएगा, उसमें चार आने का प्रसाद गणपति बाप्पा को अपने पुरातन काल की स्वर्णिम याद दिलाएगा। बस सजल होकर इच्छा पूरन कर देंगे। है न कमाल की बुद्धि अपने रामखिलावन की.. होनी ही है किताब जो नहीं पढ़ा कोई। जैसे अपना भरतलाल .. क्य दिमाग पाया है उसने।

कभी कभी सोचता हूँ कि अगर वो न होता तो भाईसाहब इतनी बड़ी अफ़सरी सम्हालते कैसे? कॉलेज के समय जो दो चार किताब पढ़े थे, उसका असर तो आप के मिलने के बाद ठिकाने लग गया था; लेकिन फिर बीच में गीता बाँच लिए? अगर उन दिनो भरतलाल छुट्टी पर नहीं गया होता तो फिर लोग उनकी बुद्धि ऐसे थोड़ी भ्रष्ट कर पाते। ये आजकल भाईसाहब जो बीच-बीच में बहक के उलटी खोपड़ी की बात करने लगते हैं.. ये सब किताब पढ़ने की बीमारी ही है। आप को याद है न जब तक नहीं पढ़े थे.. तो कितना मीठी-मीठी बात करते थे। लो भूली (और भोली भी) दास्तां फिर याद आ गई..

अब इस याद के बोझ से कलम भारी हो गई अब आगे लिखना मुश्किल हो रहा है..

बड़ों को नमस्कार छोटों को प्यार
कम लिखा ज्यादा समझना

आशा है आप ने इस बार करौंदे का अचार डालते समय मेरा हिस्सा अलग कर दिया होगा.. मैंने यहाँ पर गोभी का अचार डाला है। पिटू मंगल को बनारस जा रहा है महानगरी से, उसके हाथ भेज रहा हूँ। भरतलाल को स्टेशन भेज कर मँगवा लीजियेगा। उसका कोच नम्बर भाईसाहब को मालूम है, उन्होने ही तो कनफ़र्म करवाया है।

आपका आज्ञाकारी देवर

और हाँ भाईसाहब को कहियेगा किताब बुरी चीज है मैं भी मानता हूँ पर कम से कम चिट्ठी की बहिष्कार तो छोड़ दें.. वो मान जायं तो उनको भी चिट्ठी लिखना शुरु करूँ फिर से..

और एक बात और.. भाईसाहब की किताब वाली वो रैक जिसके बराबर खड़े होकर पन्ने पलटते हुए मनन करते रहे हैं उसकी किताबों को रैक समेत इस जाड़े का मुकाबला करने में काम में ले आयं.. कुछ तो उपयोग हो इन कटे हुए पेड़ की रंगी हुई लुगदी का.. इस कोहरे में किसी को चमकाने के काम की भी नहीं रही..

मंगलवार, 29 जनवरी 2008

मलाई-मक्खन

प्रमोद भाई बता रहे हैं कि मेरा नाम लेकर लोगों का मुँह कड़वा रहा है। मुझे इस का बड़ा खेद है कि लोकप्रिय होने की मूर्खतापूर्ण इच्छा को धकिया कर बाहर नहीं कर सका हूँ दिल से। इसी इच्छा के तहत यह पोस्ट- बहुत कड़वाहट फैला ली अब थोड़ा मीठा होना चाहता हूँ। वैसे भी आयुर्वेद बताता है कि पित्त का शमन मधुर रस से हो जाता है।

सर्दियों में कानपुर जाने के लिए घरवालों से मिलने के अलावा एक और चीज़ का आकर्षण का तार भी तना रहता है। वो ऐसी चीज़ है जो मेरी जानकारी में कानपुर और लखनऊ के अलावा कहीं और नहीं मिलती इस दैवीय वस्तु को मलाई-मक्खन का नाम दिया गया है। मुझे दुनिया में इस से बेहतर मिठाई दूसरी नहीं लगती।


मेरे लिए आइसक्रीम और मलाई-मक्खन में वही फ़रक है जो किसी फोटोग्राफ़र के लिए हॉटशॉट कैमरे और नाइकॉन एस एल आर में होता रहा होगा। बचपन में जो लखनऊ में खाया था उसका स्वाद सबसे बेहतर की तौर पर स्मृति में दर्ज है.. आजकल जो मिलता है उसमें मिलावटों का स्वीकार तो खुद बेचनेवाले भी करते हैं। पहले झऊवे में मिट्टी की परात में रख कर चलते थे और मिट्टी के सकोरों में खिलाते थे.. वह दिव्य होता था। अब वो बात नहीं हैं।


वैसे मेरे पास एक हैदराबादी रेसिपी बुक है जिसमें इसका नाम निमिष दिया गया है। अब निमिष नाम का कोई उर्दू-फ़ारसी मूल तो मिला नहीं मगर निमि नाम के एक राजा हुए हैं रघुकुल में जो वशिष्ठ के शापवश विदेह हो गए थे और बाद में गुरुकृपा होने पर उन्हे प्राणियों के नेत्रों में जगह मिली।


इस तरह से एक पलक झपकने का जो काल है उसे निमेष कहा गया हैं। निमेष या देशज रूप में निमिष या निमिख का अर्थ है बेहद सूक्ष्म अन्तराल.. क्षणिक। और मलाई मक्खन, झाग की तरह हलका और क्षणिक लगता है। निमिष नाम होने के पीछे का यही तर्क सोच सका हूँ। वो बात अलग है कि यह एक क्षण से कहीं ज़्यादा एक दिन तक टिक जाता है।


आजकल बाज़ार में मिलने वाले मलाई-मक्खन और किताब में दी हुई इस निमिष की तस्वीर में टेक्सचर का एक अन्तर है जो निश्चित ही मिलावटों का नतीजा है। जैसे कि देशी टमाटर (नाटा और पतली खाल का) बाज़ारू टमाटर (लम्बा और मोटी खाल का) से कहीं ज़्यादा खट्टा होता है। मेरा अनुमान है किताब वाले निमिष की मिठास ठेले वाले मलाई-मक्खन से कहीं ज़्यादा होगी।


वैसे तो फ़ास्टफ़ूड खाने वाली संस्कृति में ऐसी रेसिपी बताना मूर्खतापूर्ण है जिस में दूध को घंटे भर इस तरह घोटना पड़े कि उसमें मलाई न पड़ने पाए फिर रात भर चाँदनी में छोड़ना पड़े और फिर सुबह उठकर मथना पड़े इतना कि दूध बचे ही न सब एक झाग/मलाई-मक्खन बन जाय.. मगर क्या करें इन दिनों हम मूर्खताएं जब कर ही रहे हैं तो एकाध और कर लेने में क्या जाता है।



यह निमिष सिर्फ़ सर्दी के मौसम में ही तैयार हो सकता है जब ठीक से ओस गिरने लगे। जिन मित्रों को दिलचस्पी हो वे ऊपर की तस्वीर पर किलक कर पूरी विधि देख सकते हैं..

सोमवार, 28 जनवरी 2008

मंगलेश जी की पार्टीलाइन

क्या मंगलेश जी बाबरी मस्जिद की वर्षगाँठ पर प्रकाशित चीज़ों को हाण्डी का चावल मान रहे हैं कि एक सर्च मारकर देख लिया और पता चल गया की ब्लॉग की हाण्डी में कितनी धर्मनिरपेक्षता है। अगर मंगलेश जी को उसी विषय पर अपनी सर्च में चार लोगों की श्रद्धांजलि मिल जातीं तो उनकी राय क्या होती?.. कि ब्लॉग की दुनिया बड़ी प्रगतिशील, बड़ी परिपक्व है? नवभारत टाईम्स में छपे अपने आलेख में वे लिखते हैं कि

लेकिन ब्लॉग की अवधारणा और उसके उद्देश्यों के समर्थक इन पंक्तियों के लेखक का एक दुख यह है कि उसे 6 दिसंबर 2007 को बाबरी मस्जिद ध्वंस के पंद्रहवें वर्ष पर ब्लॉगों के हलचल-भरे संसार में सिर्फ 'कबाड़खाना' नामक एक ब्लॉग पर कैफी आजमी की कविता 'दूसरा वनवास' के अलावा कुछ नहीं मिला।

क्या ब्लॉग के बारे में राय बनाने का यह सही पैमाना है। मुझे कल यदि मंगलेश जी की कविता के ऊपर एक लेख लिखना हो तो क्या मैं फटाफट उनकी कविता संग्रह में भोपाल त्रासदी पर लिखी किसी कविता की तलाश करूँ और न मिलने पर घोषित कर दूँ कि कवि में सामाजिक चेतना का अभाव है।

मैं पूछना चाहता हूँ कि ये ६ दिसम्बर का संदर्भ दिया क्यों जा रहा है? जो भी ब्लॉग की दुनिया से परिचित है वह जानता है कि साम्प्रदायिकता को लेकर यहाँ कितनी आग उगली गई है.. हिन्दी ब्लॉगिंग के तथाकथित 'मोहल्ला युग' में तो काफ़ी सारे ब्लॉगर्स ने और उसके पहले भी भाई प्रियंकर और अफ़लातून ने भी साम्प्रदायिक सोच के खिलाफ़ मोर्चा खोला है। मगर इसकी मंगलेश जी को कोई हवा नहीं इसीलिए मेरा शक़ है कि मंगलेश जी को हिन्दी ब्लॉग की दुनिया की उतनी ही जानकारी है जितनी हाथी की पूँछ पकड़ कर उसका आकार रज्जुवत बताने वाले पण्डित की होती है।

वे यहीं नहीं रुकते और दुःख प्रगट करते हैं कि किसी एक अमेरिकी इंडियन मूल के कवि एमानुएल ओर्तीज की एक अद्भुत कविता जिसका हिंदी अनुवाद कवि असद जैदी ने किया था उन्हे ब्लॉग पर नहीं मिली.. हद है.. उम्मीद पालने की.. बच्चा जुम्मा- जुम्मा आठ दिन का हुआ और आप उस से कह रहे हैं कि हाइज़ेनबर्ग का अनसर्टेनिटी प्रिन्सिपल बताओ.. जिसमे आधुनिक विज्ञान को मूलभूत रूप से बदल दिया.. बहुत महत्वपूर्ण है पर कितने लोगों को पता है क्या होता है अनसर्टेनिटी प्रिन्सिपल..?

मुझे भी दो दुःख हैं एक तो यह कि मैं एक बड़े कवि से इस सुर में बात कर रहा हूँ और दूसरे यह कि मेरी भाषा का बड़ा कवि उलटे-सीधे निष्कर्ष निकाल रहा है। उन्होने हिन्दी ब्लॉग की दुनिया विकसित होने से पहले ही उसके उद्देश्य और मंज़िलें तय कर दी है-

लगता है कि बाजारवादी और वर्चस्ववादी मुख्य धारा के मीडिया के बरक्स यह वैकल्पिक माध्यम आने वाले वर्षों में हाशियों की अस्मिता का एक प्रभावशाली औजार बनेगा.. वे आगे कहते हैं कि क्या ब्लॉगों से गंभीर, वैचारिक, बौद्घिक होने की मांग करना अनुचित होगा, क्या यह कहना गलत होगा कि उन्हें उर्दू के सतही शायर चिरकीं की मलमूत्रवादी गजलों, लेखकों की निजी कुंठाओं और पारिवारिक तस्वीरों की बजाय एमानुएल ओर्तीज की कविताएं, एजाज अहमद की तकरीरें और तहलका द्वारा ली गई गुजरात के कातिलों की तस्वीरें जारी करनी चाहिए?

अगर आप सचमुच सवाल कर रहे हैं तो मेरा जवाब है कि हाँ अनुचित होगा। पहली बात तो ये कि आप जिस बौद्धिकता, वैचारिकता की अनुपस्थिति की बात कर रहे हैं वो ही ग़लत है। दूसरे ये कि आप सवाल नहीं कर रहे माँग कर रहे हैं.. और मैं तो कहता हूँ कि आप माँग भी नहीं कर रहे.. आप सवाल की शक्ल में व्हिप जारी कर रहे हैं। जैसे साहित्य की दुनिया में राजनीतिक पार्टी और आलोचक लेखक का मार्गदर्शन करते हैं कि किन विषयों पर लिखो.. क्या विमर्श करो? जैसे कुछ साल पहले स्त्री विमर्श और दलित विमर्श का दौर था अभी भी शायद वही चल रहा है। जो साहित्य पार्टीलाइन सोच कर लिखा जाता है.. मैं उसे अभिव्यक्ति नहीं नारेबाज़ी कहता हूँ।

ब्लॉग के ज़रिये आम आदमी को एक आज़ादी मिली है। आप उस में पार्टी लाइन चलाना चाहते हैं? भड़ास वाले अपने ब्लॉग पर विचार वमन करें या साधुवादी लोग जन्मदिन मना कर एक दूसरे को बधाई दें..वो उनकी अभिव्यक्ति है। वे भी आप की ही तरह सम्पूर्ण मनुष्य हैं और वे वही अभिव्यक्त करेंगे जो करना चाहते हैं और उन्हे इसका हक़ है। अगर आप को लगता है कि आप लोगों को यह बताकर कि उन्हे क्या करना चाहिये किसी बौद्धिकता का परिचय दे रहे हैं तो मुझे फिर दुःख है। वे क्या बो्लें या न बोलें और कब बोलें.. आप ज़रा सोचें.. आप उन्हे बताएंगे?

सदिच्छाएं तो मेरी भी बहुत हैं पर वास्तविक समाज से अलग कोई ब्लॉग का समाज बन जाएगा.. ऐसी कोई ग़लतफ़हमी हम और आप कैसे पाल सकते हैं? हमें तो मार्गदर्शन की ज़रूरत है पर आप तो समझदार आदमी हैं। गुजरात में मोदी जीतता रहे और गुजराती ब्लॉगियों से आप उम्मीद करें कि वे गुजरात के क़ातिलों के तस्वीर जारी करें। क्या उनको आप आकाश से आया हुआ मान रहे हैं? जितने प्रतिशत लोग आप की कविताएं पढ़कर आह्लादित होते हैं उस से अधिक लोग यहाँ एमानुएल ओर्तीज की कविताओं पर भावुक हो रहे होंगे ऐसी कल्पना ही बचकानी है। रही बात उन बहुसंख्यक लोगों की जो न आप की कविता पढ़ते हैं और न गुजरात पर धरना-प्रदर्शन.. उनसे ऐसी उम्मीद, साफ़ शब्दों में, मूर्खतापूर्ण है।

इतिहास की द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया

हेगेल के विचार

विचारों और वस्तुओं की हर धारणा व अवस्था अपने विपरीत की दिशा में बढ़ती है और एक उच्चतर और जटिलतर इकाई बनाने के लिए उस विपरीत के साथ एकाकार हो जाती है ..
विकास की क्रिया विपरीत ध्रुवों के घुलने-मिलने की सतत प्रगति है। फ़िक्ते ने ठीक कहा था स्थापना (thesis), प्रतिस्थापना (antithesis) और (दोनों की) संश्लिष्ट प्रस्थापना (synthesis) ही हर विकास और हर यथार्थ का अन्तर्निहित समीकरण है..

न केवल विचार इस द्वन्द्वात्मक समीकरण के मुताबिक विकसित होते हैं बल्कि भौतिक यथार्थ भी। किसी भी मामले के भीतर एक अन्तरविरोध होता है जिसे विकास को हल करना होता है एक एकता मूलक समाधान के ज़रिये..

मस्तिष्क इस द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया, विपरीत ध्रुवों की एकता को समझने का एक अनिवार्य अंग है। मस्तिष्क का काम और दर्शन का उद्देश्य उस एकता को चीन्हना है जो विविधता में छिपी होती है; नीतिशास्त्र का उद्देश्य चरित्र और आचार को एकीकृत करना है; राजनीति का ध्येय व्यक्ति और राज्य को एक करना है; और धर्म का ध्येय उस परम सत्ता (absolute) तक पहुँचना और महसूस करना है जिसमें सारा विरोध, सारी प्रतिपक्षता, समरसता में बिला जाती है। इस पूरे जगत का वह कुल योग जिस में प्रत्यय और पदार्थ, वस्तुगत और मनोगत, अच्छा और बुरा सब एक है।

आदमी में परम सत्ता आत्मचेतना के रूप में उठती है और परम चेतना (absolute idea) बन जाती है- अर्थात, व्यक्तिगत सीमाओं और कारणों के परे जाकर और सार्वभौमिक संघर्ष के नीचे चीज़ों की आन्तरिक एकरसता को पहचानकर, विचार स्वयं को परम सत्ता का अंग जानकर बोध को प्राप्त हो जाता है। इस ब्रह्माण्ड का मूल तत्व चेतना (reason) ही है.. और जगत का ताना-बाना पूरी तरह से चेतन से बना है।

बुराई और संघर्ष सिर्फ़ कोई नकारात्मक कल्पना नहीं हैं। लेकिन समझदारी की नज़र से वे अच्छाई तक पहुँचने की एक मंज़िल है। संघर्ष विकास का नियम है। आदमी का चरित्र दुनिया के तनाव और तूफ़ान में पनपता है। और एक आदमी अपनी पूरी ऊँचाई तक सिर्फ़ पीड़ा, दबाव और दायित्वो से गुज़र कर ही पहुँचता है। दर्द का भी एक तार्किक आधार है- वो जीवन के होने की पहचान है और उसकी पुनर्रचना के लिए उद्दीपन है। चीज़ों की बौद्धिकता के बीच भावावेगों की भी एक जगह है। यहाँ तक कि नेपोलियन की तानाशाही महत्वाकांक्षा भी राष्ट्रों के विकास में एक संजीदा किरदार निभा जाती है। जीवन सिर्फ़ मज़े के लिए नहीं बल्कि कुछ हासिल करने के लिए है।

दुनिया का इतिहास आनन्द का नाट्यमंच कभी नहीं रहा है; खुशहाली के दौर उसकी किताब के खाली पन्ने हैं क्योंकि वे शांति के दौर रहे हैं जिनके भीतर की ऊब आदमी के योग्य नहीं। इतिहास सिर्फ़ उन दौरों में बनता है जबकि यथार्थ के अन्तरविरोध विकास के द्वारा हल हो रहे हों, जैसे कि यौवन के धक्के और धचके खा कर ही प्रौढ़ता की व्यवस्था के सुकून में जाया जा सकता है।

इतिहास एक द्वन्द्वात्मक गति है, जैसे क्रांतियों की एक लड़ी लगभग, जिसमें एक जन के बाद दूसरे जन और प्रतिभा के बाद दूसरी प्रतिभा परम सत्ता (absolute) का औजार बनती चलती है। महान हस्तियाँ खुद भविष्य के जनक होने से ज़्यादा भविष्य की दाईयाँ होते हैं। वे जो सामने ले कर आते हैं उसे जन्म तो ज़ाइटगेस्ट (युग-चेतना) देती है। प्रतिभावान लोग बाकी सभी की ही तरह ढेरी के ऊपर एक पत्थर बस रखते हैं बस उनका भाग्य इसमें निहित होता है कि वे ऐसा करने वाले आखिरी व्यक्ति होते हैं और उनके पत्थर रखने के बाद ढेर गिरता नहीं खड़ा रहता है।

ऐसे लोगों को उस बड़े विचार की कोई चेतना नहीं होती वे जिसके ऊपर से परदा हटा रहे होते हैं.. लेकिन उन्हे अपने समय की ज़रूरत की अन्तर्दृष्टि होती है- कि क्या पक कर तैयार हो चुका था। जो उनके अपने समय का, उनकी दुनिया का सच था- आगे आने वाली प्रजाति का सच जो समय के गर्भाशय में पहले ही विकसित हो चुकी थी।

इतिहास का ऐसा दर्शन क्रांतिकारी निष्कर्षों की ओर ले जाता है। द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया जीवन के मूलभूत नियम में बदलाव ले आती है। कोई भी बदलाव स्थायी नहीं है। चीज़ों की हर अवस्था में एक अन्तरविरोध है जिसे केवल दो विरोधी शक्तियों का संघर्ष ही हल कर सकता है।



(विल ड्यूरां की किताब 'हिस्ट्री ऑफ़ फिलॉसफ़ी' के अंश पर आधारित)




इतिहास के द्वन्द्वात्मक विकास के हेगेल के इसी दर्शन के आधार पर मार्क्स ने अपना ऐतिहासिक द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धान्त खड़ा किया। मार्क्स ने परमसत्ता के बदले आर्थिक बदलावों और जनान्दोलनों को हर मूलभूत बदलाव का केन्द्रीय कारण माना। उनके अनुसार हेगेल उल्टे खड़े होकर दुनिया को देख रहे थे और मार्क्स ने उनकी दृष्टि को पलट भर दिया और दुनिया की सही शक्ल ज़ाहिर हो गई।

रविवार, 27 जनवरी 2008

ज्ञान जी भी बदल जाएंगे

मेरे कई मित्र नाखुश हैं कि मैने ज्ञान जी के प्रतिक्रियावाद को ढंग से जवाब क्यों नहीं दिया । वे मेरी प्रगतिशीलता पर शक़ तो नहीं करते पर मेरी शीतलता को उनके ‘गोल’ में बने रहने की मेरी दबी हुई इच्छा मानते हैं। मैं अपने दोस्तों से माफ़ी चाहता हूँ (वे चाहें तो इसे उनके 'गोल' में बने रहने की मुखर इच्छा मान सकते हैं) पर मेरे ऐसे ठण्डे जवाब के कुछ कारण हैं;


१) ज्ञान जी का सुर खिलंदड़ा था और उन्हे एहसास नहीं था कि उनका मज़ाक किसी को इतना बुरा लगेगा। मेरे प्रतिक्रिया करने के पहले कई लोगों ने ज्ञान जी के मज़ाक में छिपी हुई स्त्री-विरोधी विचार को चिह्नित कर दिया था.. अगर वे ज़रा भी समझदार हैं तो समझ चुके होंगे कि उनसे क्या गलती हो गई और समझदार नहीं है तो मेरे भी उसी बात को दोहराने से कोई लाभ नहीं होने वाला था.. बल्कि असर उलटा होता। मेरे उनके बीच स्नेह का जो सम्बन्ध है वो टूट जाता। मेरा मानना है कि ज्ञान जी समझदार व्यक्ति हैं और वो पहली प्रतिक्रिया के बाद ही समझ गए थे कि उनसे कुछ ग़लती हो गई। और उन्होने फ़ौरन माफ़ी भी माँग ली थी।


२) मेरा मानना है कि भीतर बैठे हुए संस्कार सिर्फ़ समझदारी से नहीं बदलते.. एक भौतिक प्रक्रिया में बदलते हैं। मैंने अपने निजी अनुभव में पाया है कि एक व्यक्ति जो अपनी बहनों के सर से दुपट्टा थोड़ा सरकते ही उनके माथे पर दुपट्टे को कील से ठोंकने की बात करता था.. अपने बहुओं को जीन्स पहनकर स्कूटर चलाता हुआ देखकर प्रसन्न होता है और उसकी बहनें इस दुभाति व्यवहार के लिए कुढ़ती हैं। एक दूसरा आदमी जिसने कभी अपने हाथ से एक गिलास पानी लेकर नहीं पिया, अपने खाने-पीने को लेकर इतना अड़ियल रहा कि उसकी पत्नी को जीवन भर दो तरह ही की रसोई बनानी पड़ी (एक बाकी सब के लिए और एक उसके लिए)। वही आदमी अपनी बेटी के जल्दी दफ़्तर जाने पर अपनी नातिन के लिए कभी-कभी लंचबॉक्स भी बनाता है। ईवोल्यूशन का सिद्धान्त बताता है कि वातावरण के अनुकूल वांछित परिवर्तन पीढ़ियों के ज़रिये विकसित होते हैं।

३) मेरे पास इतनी ऊर्जा नहीं है कि हर प्रतिक्रियावादी विचार के साथ मैं एक बहस में उतरूँ। ज्ञान जी के अगर किसी विचार से मुझे तक्लीफ़ है मगर उसका सीधा प्रभाव मुझ पर तो पड़ नहीं रहा तो सही है मैं क्यों खर्चा होऊँ? ज्ञान जी झेंलेंगे उनका परिवार झेलेगा। मेरे-आपके बहस करने से थोड़ी बदलती है दुनिया। दुनिया के बदलने की अपनी चाल है।

अगर कोई समझता है कि सभी मनुष्यों को बराबरी का हक किसी वॉल्तेयर साहिब के सिद्धान्त और कुछ फ़्रांसीसी क्रांतिकारियों के बलिदान के चलते मिला है या भारत से जातिवाद किसी गाँधी बाबा या बाबा साहेब के बदौलत खत्म हो रहा है या स्त्रियों के अधिकार किसी रोज़ा लक्ज़्मबर्ग या मैडम क्यूरी की देन है तो ये उनकी ग़लतफ़हमी है। इन महान लोगों का योगदान को कम नहीं कर रहा बस उन्हे उनके समय में स्थापित कर रहा हूँ। ये सारे परिवर्तन इसलिए हुए और हो रहे हैं और होंगे क्योंकि वे एक ऐतिहासिक प्रगति का हिस्सा हैं। पूँजीवाद ने दुनिया में ऐसे भौतिक परिवर्तन कर दिए हैं कि कोई चाह कर भी आदमी के सांस्कृतिक जगत के इन बदलावों को नहीं रोक नहीं सकता।

गाँव में सबको सबकी जाति मालूम होती है। मगर एक बार जब ट्रेन आ गई, और आप को गाँव छोड़कर धंधे की तलाश में शहर जाना पड़ा तो आप नहीं जान सकते कि ट्रेन में आप के बगल में सटकर बैठने वाले अनजान आदमी की जाति क्या है? जाति की जड़ तो कट गई.. कुछ दिनों में पेड़ भी गिर जाएगा। ऐसे ही स्त्रियों के प्रति व्यवहार है जो वैचारिक बहस से नहीं, ठोस व्यवहार में बदलेगा।

४) ब्लॉग की दुनिया बड़ी हो रही है पर इसमें अभी भी एक पारिवारिक भावना बनी हुई है। वो पूरी तरह कब खत्म हो जाएगी या खत्म हो ही जाएगी ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता। पहले-पहले जब हम एक-दूसरे को नहीं जानते थे तो हमारी उनकी बड़ी रार हुई थी, जो उनकी और मेरी पुरानों पोस्टों में देखी जा सकती है। पर अब ज्ञान जी से एक बड़े भाई जैसा सम्बन्ध बन गया है। और अगर बड़ा भाई कुछ ग़लत बात कर भी रहा हो तो उसको जवाब देने का सब का अलग तरीक़ा होता है- मेरा यह तरीक़ा है।

आखिर ‘क़यामत से क़यामत तक’ के सामंतवादी समाज से ‘दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएंगे’ के पूँजीवादी समाज में कुछ तो अंतर है। आप को उम्मीद है कि पिछली पीढ़ी बदल जाएगी।

५) यह सिर्फ़ मेरी अपनी प्रतिक्रिया का मेरे मित्रों के लिए स्पष्टीकरण हैं मेरे उन मित्रों का विरोध नहीं जिन्होने इस मसले पर कड़ा रुख अपनाया है। बड़े भाई ज्ञान जी अगर ऐसी पोस्ट लिखेंगे तो उन्हे लोगों ऐसे कड़े रुख के लिए तैयार भी रहना चाहिये और छोटे भाई शिव कुमार मिश्र को भी।

शुक्रवार, 25 जनवरी 2008

अरबी, फ़ारसी, उर्दू और नुक़्तेबाज़ी

मेरे पुराने मित्र इरफ़ान यारो की इस बेशर्मी से बड़ी तकलीफ़ में हैं कि वे गलत-सलत लिख रहे हैं। उन्होने किसी का नाम नहीं लिया पर मेरा ख्याल है कि वो यार कोई और नहीं मैं ही हूँ। वे मेरी ग़लती के लिए मुझे फटकारना तो चाहते हैं पर दूसरों के आगे जो मेरी उर्दूदां की इज़्ज़त बनी हुई है उसे नहीं उतारना चाहते ..आखिर दोस्त हैं मेरे। पर मैं इस तरह की बेइज़्ज़ती से बचने से सुखी होने से ज़्यादा उस लिंक के खो जाने से दुखी हूँ जो वो मुझे दे सकते थे; बड़े-बूढ़े कह गए हैं बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा?

खैर.. मामला नुक़्तों का है.. मैंने इरफ़ान भाई से जो सवाल किए थे चूँकि उन्होने जवाब नहीं दिए तो मैं ही उसकी चर्चा कर रहा हूँ। मेरे सवाल थे..

क और क़, ज और ज़, फ और फ़, ग और ग़, का तो आप बहुत ख्याल रखते हैं मगर मैंने आप को भी मुहब्बत को मुह़ब्बत और इश्क़ को इ़श्क़ लिखने नहीं देखा.. ? आप को पता है रमदान को ईरान के पूर्व में रमज़ान क्यों कहा जाता है? और व्याकरण व उच्चारण की शुद्धता का बहुत ख्याल रखने वाले अरब लोग पारस को फ़ारस क्यों कहने लगे?

जो उर्दू नहीं जानते वो भी जानते हैं कि एक जाहिल वाला ज होता है और एक ज़हीन वाला ज़ होता है। और कुछ समझदार लोग जानते हैं कौए वाले क के अलावा एक क़ होता है जो हलक़ से बोला जाता है और नुक़्ते में इस्तेमाल होता है। फिर एक ग होता है जो बेगम में होता है और एक ग़ जो ग़म में होता है (इरफ़ान भाई का ग़म इसी बेगम को बेग़म बना देने से शुरु हुआ था)। और फ के अलावा एक फ़ को तो लोग इतना ज़्यादा जान गए हैं कि अब फूल को फ़ूल ही कहते हैं। इस से कम से कम इतना तो पता चलता है कि लोग सही बोलना चाहते हैं.. पर अज्ञान की वजह से (वज़ह नहीं) नहीं बोल पाते।

और उर्दू जानने वाले जानते हैं कि ये जो ज़ होता है चार प्रकार का होता है.. ज़े, ज़ाल, ज़ा, ज़ाद, {एक पाँचवा त्ज़े (या ऐसा ही कुछ उच्चारण वैसे उर्दू वाले उसे भी ज़े ही कहते हैं) भी होता है पर उसका उर्दू में नहीं के बराबर इस्तेमाल है जैसे हिन्दी में लृ का}। जब मैंने फ़ारसी सीखना शुरु किया था तो मैं बहुत दिनों तक इस पहेली से बहुत परेशान रहा कि ये चार तरह के ज़ रखने का क्या मतलब जब कि उच्चारण सब का एक ही है- मेरा मन स्वीकार ही नहीं कर पाता था कि कोई भी समझदार जन अपनी भाषा में इस प्रकार का विधान रखेंगे? इस राज़ को जब मैंने समझा तो बहुत सुकून मिला.. पर राज़ बाद में। पहले ये भी जानना ज़रूरी है कि उर्दू में ह भी दो हैं और अ भी दो और स तीन हैं।

उर्दू एक संकर भाषा है.. उर्दू का फ़ारसी में मतलब होता है छावनी, कैन्टोनमेंट। आज भी लाहौर व काबुल के उस इलाक़े में उर्दू बाज़ार नाम के मोहल्ले मौजूद हैं जहाँ सेना की छावनी होती थी। लाहौर और काबुल में ही क्या अपने दिल्ली में भी एक उर्दू बाज़ार है- लाल किले के सामने, जामा मस्जिद के बाजू में। इन छावनियों में स्थानीय लोगों और छावनी में बसने वाले तुर्की, अरबी, ताजिक, उजबेकी, ईरानी, अफ़्ग़ानी आदि सैनिकों के अन्तर्सम्बन्ध से जो भाषा जन्मी वह आगे चलकर उर्दू कहलाई। उर्दू की लिपि वही जो फ़ारसी की है और फ़ारसी की लिपि वही है जो अरबी की है। पर इनमें फ़रक है.. अरबी में २८ अक्षर हैं, फ़ारसी में ३२ और उर्दू में ३८।

‘ट’ वर्ग की ध्वनियों को और सघोष ध्वनियों (ख,घ,भ आदि) को शामिल करने के लिए उर्दू में इन अक्षरों का इजाफ़ा करना पड़ा, जो फ़ारसी में नहीं हैं। और अरबी के २८ अक्षरों में इन ध्वनियों के अलावा प, च, ग ध्वनियाँ नहीं है। और 'त्ज़' (या जो भी वह है) ध्वनि भी नहीं है जो फ़ारसी के अलावा फ़्रेंच में मिलती है। चूँकि अरबी में प की ध्वनि है ही नहीं इसलिए वे पारस को हमेशा फ़ारस ही पुकारते रहे। और जब अरबों ने पारस पर आक्रमण करके क़ब्ज़ा किया तो अरबी साम्राज्यवाद से प्रभावित लोग स्वयं को भी फ़ारसी कहने लगे। इस्लाम के विस्तार को अरबी साम्राज्यवाद कहना कुछ अटपटा लगेगा कुछ लोगों को मगर इस्लाम के विद्वान असग़र अली इंजीनियर साहब की इस्लाम के विकास की ऐतिहासिक-वैज्ञानिक व्याख्या से मैंने कुछ ऐसा ही सीखा है।

अब आप कल्पना कीजिये अरबी भाषा की जिसमें ट, ठ, ड, ढ, ड़ नहीं, ख, ग, घ, च, छ, प, फ नहीं, भ नहीं और दो अ, दो क, दो ह, और तीन स .. और चार ज़.. !!!??? अरबी लोग बोलते क्या हैं ल म ह क़ ख़ ग़ और ज़.. बस?

क़, ख़ और ग़ की तरह दूसरा अ और दूसरा ह दोनों हलक़ से बोले जाते हैं। इश्क़ में इ है उसकी सही ध्वनि हलक़ से निकलने वाले ऐ़न से आती है। और मुहब्बत य मुहम्मद में जो ह है वह भी हलक़ से ही निकलने वाली ध्वनि है। हज़ारों में कोई एक ही मुहम्मद के ह को हलक़ से बोलता है। मुझे नहीं याद पड़ता कि मैंने इरफ़ान को भी कभी ऐसे बोलते सुना हो.. लिखते तो वो हमेशा मुह़म्मद ही हैं बिना ह के नीचे नुक़्ता लगाए। क और ग और ख के नीचे नुक़्ता लगाने वाले ह और अ के नीचे नुक़्ता न लगाकर कोई ग़लत कर रहे हैं या किसी अघोषित नियम का पालन.. ये कौन बताएगा?

मगर सवाल उठता है कि न तो स हलक़ से निकल सकता है और न ही ज़। तो इनका रहस्य क्या है? ये माजरा क्या है? असल में.. अरबी में ये सारे अक्षर अलग-अलग ध्वनियों के प्रतिनिधि हैं;

तीन 'स' में से एक 'से' का उच्चारण स नहीं 'थ' है..
सीन का उच्चारण सीन ही है..
और साद के स के उच्चारण में थोड़ा भारी स की ध्वनि है..
चार ज़ में से पहले ज़ाल का उच्चारण दाल है.. जबकि उसके पहले के दाल का उच्चारण डाल है..
दूसरे ज़, ज़े का उच्चारण ज़ ही है..
तीसरे ज़- ज़ाद का उच्चारण दाद है.. थोड़ा भारी द..
और चौथे ज़- ज़ा का उच्चारण ज़ जैसा ही है पर थोड़ा भारी ज़..

किस तरह से भारी यह किसी अरबी बोलने वाले को सुनकर ही समझा जा सकता है। हमारे कान उस ध्वनि को सुनने-समझने के लिए और हमारी ज़बान उसे उच्चारित करने के लिए विकसित नहीं हुई है क्योंकि छै महीन से एक साल की उमर तक शिशु जो ध्वनियाँ सुनता है वो उसके मस्तिष्क में जड़ हो जाती हैं उसके बाद नई ध्वनियाँ बोलना सीखना लगभग असम्भव होता है ऐसा वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चला है। इसीलिए शायद पारम्परिक ज्ञान में भी मातृ भाषा का इतना महत्व माना गया है।

अरबी ज़बान की ये सारी ध्वनियाँ जब फ़ारस पहुँची तो पारस के लोगों ने ‘न जाने क्यों’ (या बेशर्मी से?!) इन ध्वनियों को ठीक-ठीक नहीं ग्रहण किया और अरबी की ध्वनियों को ग़लत-सलत उच्चारित करना शुरु कर दिया.. जैसे रमदान को रमज़ान।

उर्दू ने भारतीय बोलियों के तमाम ध्वनियों को अपनाने के लिए अरबी-फ़ारसी लिपि में प्रगतिशील परिवर्तन किए पर फ़ारसी द्वारा की गई ग़लतियों को जारी रखा। फ़ारस से पूर्व में, जहाँ-जहाँ फ़ारसी का प्रभाव रहा- अफ़्ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, और बंगलादेश तक में रमदान को रमज़ान कहा जाता है। अब ये बताइये कि रमदान को रमजान लिखना सही है या रमज़ान.. या दोनों ग़लत?

हिन्दी में इन नुक़्तों की विशेष दिक़्क़त इसलिए होती है कि हिन्दी भाषा में यह ध्वनियाँ पहले से मौजूद नहीं है। हिन्दी या ग़ैर-उर्दू भाषी बच्चा अपनी माँ से नहीं सुनता ये ध्वनियाँ। और जब सुनता है तो उसके शुद्ध (?) उच्चारण को जाँचने के लिए देवनागरी तथा अन्य भारतीय लिपियाँ उसकी कोई मदद नहीं करती।

इसलिए इरफ़ान भाई से फिर गुज़ारिश है कि कोई जानबूझकर बेशर्मी से ग़लती नहीं कर रहा.. अनजाने में भूल हो जाती है। और लोग कोशिश कर रहे हैं एक भाषा को जानने-पहचानने की। ग़लतियाँ हो जाती हैं.. आप उस को बेशर्मी समझ कर खफ़ा मत होइये..

स्पष्टीकरण: मैं न उर्दू ठीक से जानता हूँ न फ़ारसी। बस सीखना चाहता हूँ.. और उसके लिए कोशिश करता रहता हूँ।

गुरुवार, 24 जनवरी 2008

हमारा नैतिक बोध

आज कल आदमी और दुनिया की बहुत सी परेशानियों के लिए पश्चिमी सभ्यता को ज़िम्मेदार माना जाता है.. अंधाधुंध भौतिकता, और राजनैतिक-सामाजिक-निजी जीवन में पतित नैतिक मूल्यों के लिए तो विशेषकर ही.. ऐसे इल्ज़ाम मैंने भी लगाए हैं मगर इमैन्युअल कान्ट का यह टुकड़ा देखिये क्या कहता है..

हमारे कुल अनुभव की सबसे चकित कर देने वाली सच्चाई हमारा नैतिक बोध ही है, लालच के आगे हमेशा मौजूद रहने वाला वह भाव, जो बताता है कि यह या वह ग़लत है। हमारे घुटने टेक देने के बावजूद वह भाव बना रहता है.. क्या है वह जो पछतावे की कचोट और एक नए इरादे को पैदा करता है ? वह हमारे भीतर का निरपेक्ष आदेश (categorical Imperative) है, हमारी चेतना का उन्मुक्त आदेश। ऐसे व्यवहार करना जैसे कि हमारे संकल्प के ज़रिये हमारा व्यवहार प्रकृति का सार्वभौमिक नियम बन जाने वाला हैं। तर्क से नहीं, बल्कि तात्कालिक और सुस्पष्ट बोध के द्वारा हम जानते हैं कि हमें ऐसे किसी भी व्यवहार से बचना चाहिये जो अगर सब लोग करने लगें तो सामाजिक जीवन असम्भव हो जाएगा। मेरे भीतर यह बोध रहता है कि मुझे झूठ नहीं बोलना चाहिए, भले ही वो मेरे फ़ायदे में ही क्यों न हो। दुनियादारी अन्दाज़ों पर आधारित है- उसका सूत्र ईमानदारी है तभी तक जब कि वह सब से अच्छी नीति हो; लेकिन हमारे हृदय का नैतिक नियम निरपेक्ष है और निर्द्वन्द्व है।

कोई व्यवहार इसलिए अच्छा नहीं है क्योंकि उसका फल अच्छा है या फिर इसलिए कि वह समझदारी भरा है, बल्कि इसलिए कि वह हमारे अन्दर की कर्तव्य-भावना के अनुसार में है। यह नैतिक नियम निजी अनुभव से नहीं उपजता वरन वह स्वयंभू है और हमारे सभी भूत, वर्तमान और भविष्य के व्यवहार के लिए पहले से ही निर्धारित (a priori) होता है। इस दुनिया में निर्द्वन्द्व रूप से अच्छी चीज़ सिर्फ़ अच्छा इरादा, शुभ सकंल्प ही है- नैतिक नियम के पालन का संकल्प, अपने नफ़े-नुक़सान से परे। अपने आनन्द का मत सोचो; अपना कर्तव्य निभाओ। नैतिकता स्वयं को आनन्द देने का नहीं बल्कि स्वयं को आनन्द के योग्य बनाने का सिद्धान्त है। हमें अपने आनन्द को दूसरों में खोजना चाहिये, और अपने लिए सम्पूर्णता- चाहे वह आनन्द लाए या पीड़ा। तो मनुष्य के साथ, अपने साथ व दूसरों के साथ, ऐसे व्यवहार करो जैसे वे किसी साध्य का साधन नहीं अपने आप में साध्य हों। और हम महसूस कर सकते हैं कि यह भी निरपेक्ष आदेश का ही एक हिस्सा है।

ऐसे सिद्धान्त के अनुसार आचरण कर के हम बौद्धिक जनों का एक आदर्श समाज बना सकेंगे, और ऐसे समाज को बनाने के लिए बस हमें ऐसे व्यवहार करना है जैसे हम पहले ही से उसके हिस्से हों; सम्पूर्ण नियम को हमें अपूर्ण अवस्था में ही लागू करना होगा। आप कह सकते हैं कि यह कठोर नीति है– सौन्दर्य से पहले कर्तव्य, आनन्द से पहले नैतिकता; लेकिन सिर्फ़ इसी तरह से हम पाशविकता के पाश से निकल कर देवत्व प्राप्ति की ओर बढ़ सकते हैं।

ध्यान दें कि कर्तव्य के प्रति यह निर्द्वन्द्व आदेश अन्ततः हमारे संकल्प की, मनोरथ की आज़ादी को सिद्ध कर देता है। अगर हम स्वयं को स्वतंत्र नहीं समझते तो तो हम किसी कर्तव्य की बात को सोच भी कैसे सकते थे? इस स्वतंत्रता को हम सैद्धान्तिक बुद्धि से सिद्ध नहीं कर सकते; हम इसे नैतिक चुनाव की दुविधा में ही सीधे सिद्ध करते हैं। और हम इस स्वतंत्रता को अपने शुद्ध अहम के, अपनी अन्तरात्मा के मूल तत्व की तरह महसूस करते हैं।

(विल ड्यूरां की किताब दि स्टोरी ऑफ़ फिलॉसफ़ी के एक अंश पर आधारित)

.. कान्ट को पश्चिमी दर्शन परम्परा में एक बड़ा मुक़ाम मानते हैं.. और उसके ऐसे विचारों को पढ़ने के बाद मैं आदमी और दुनिया की तमाम परेशानियों के लिए पश्चिमी सभ्यता को गरियाने के पहले सोचूँगा.. क्योंकि, निश्चित ही, सभ्यता बड़ा शब्द है..

मंगलवार, 22 जनवरी 2008

दि काइट रनर

लड़कपन की मासूम दुनिया के बेहद भावुक चित्रण की सफल किताब है दि काइट रनर। किताब में कई जगह घटनाए, भाव बनकर सीधे आप के भीतर उतर जाती हैं। किताब पढ़ते हुए आप बच्चे के अनुराग, उत्साह, ईर्ष्या और ग्लानि के साथ-साथ डूबते-उतराते रहते हैं। यहाँ तक मैं अपनी शरीके हयात की राय से इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ पर किताब का एक राजनैतिक पहलू भी है। और अफ़ग़ानिस्तान की उबलती हुई राजनैतिक पृष्ठभूमि पर लिखी गई यह किताब एक बार भी राजनीति की चर्चा नहीं करती- बस एक नायक के पिता का बयान है जो बार-बार दोहराया जाता है कि वो मुल्लाओं की दाढ़ी पर पेशाब करना चाहते हैं। बुरा आइडिया नहीं है पर मुझे ये अधकचरी समझ नहीं शातिर सोच लगती है।

राजनीति की बात न करना भी एक तरह की राजनीति होती है। दि काइट रनर पढ़ने वाला कोई भी पाठक तालिबानी मुल्लाओं की दाढ़ियों के प्रति वही नज़रिया रखेगा जो नायक के अब्बाजान रखते हैं; बिलकुल बुरा आइडिया नहीं है। मगर मेरा सवाल यह है कि क्या तालिबान और रूसी फ़ौजे ही अफ़ग़ानिस्तान का पूरा सच है.. अमरीका और आई एस आई की भूमिका शून्य रही है। और अगर कुछ रही है तो लेखक इस बारे में क्या छाप छोड़ता है?

उपन्यास के पहले हिस्से में बचपन के वो जादुई साल १९७३ के पहले के शाह ज़हीर शाह के काल में पैबस्त है। और जब रूसी सेनाएं काबुल में घुस आती हैं और उथल-पुथल शुरु होती है तब नायक और उसका परिवार अमरीका रवाना हो जाते हैं और इस दौरान कहानी कई छलांग लेती है। फिर एक नाटकीय मोड़ के बाद कहानी वापस २००१ के जून में खुलती है जब तालिबान अफ़ग़ानिस्तान में क़ाबिज़ हैं।

९/११ के बाद अमरीका के हमले की चर्चा किताब के आखिरी अध्याय में सरसरी तौर पर की गई है बहुत सम्हाल के इस तरह से की गई है कि अमरीका उसमें निर्दोष ही दिखता रहे। नायक के जीवन के उस दौर में जब वो और उसके पिता अफ़ग़ानिस्तान से पलायन कर के अमरीका प्रवास कर रहे थे, तब अमरीका उनके देश में कैसी भूमिका निभा रहा था उसकी कोई चर्चा नहीं की गई है। और इस्लामाबाद में अमरीकी दूतावास का अधिकारी नियमों की दुहाई देने के बावजूद जिस परोक्ष रूप से नायक की मदद करता है वो भी अमरीका की सकारात्मक छवि बनाने में योगदान करता है।


तो भाई साहब बचपन की निर्दोष मानसिक पटल के दोषों की दुनिया उकेरने वाले खालिद होसेनी की राजनीति उतनी मासूम नहीं है जितनी नज़र आती है। और यह सिर्फ़ संयोग नहीं है कि अमरीकी प्रकाशन उद्योग और फ़िल्म उद्योग ने इस कहानी को हाथोहाथ लिया है। मुझे अफ़सोस है कि जिस पतंग को लेकर खालेद होसेनी साहब दौड़ रहे हैं वो पतंग नहीं परचम है.. अमरीकी परचम।

बेदर्द दुनिया टीवी की

काफ़ी सालों से मेरी बीबी तनु मुझसे ज़्यादा किताबें पढ़ती रही है। ब्लॉग खोलने के बाद से जैसे मेरा एक नया जन्म हुआ और मैंने लिखने के साथ-साथ फिर से पढ़ना भी शुरु कर दिया और उपन्यास जिनको मैं बहुत पहले अलविदा कह चुका था.. उन्होने वापस मेरी मेज़ पर अपनी जगह पा ली! आप को यह बात थोड़ी खटक सकती है कि यह आदमी जो टीवी सीरियल लिखकर अपना पेट पालता है और उपन्यास के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ रहा है.. हद है!

पर क़सम से इसमें हिक़ारत/हिमाक़त जैसी कोई बात नहीं बल्कि हिकायत (कहानियाँ) गढ़ने के जिस बेदर्द टीवी की दुनिया में हूँ उसमें मेरे जैसे दूसरे लेखकों को फ़िक्शन पढ़ने के नाम पर उबकाई नहीं आती; मुझे इस बात की हैरानी होती है। साहित्य की दुनिया में लोग कहानी के साथ सुई-धागे से कढ़ाई जैसा व्यवहार करते होंगे शायद (मै नहीं जानता.. मैं साहित्यकार नहीं हूँ)। फ़िल्म वाले कढ़ाई नहीं करते कढ़ाई में सब्ज़ी-मसाले छौंकते जैसे कहानी बनाते हैं (इसका अनुभव है मुझे)। पर टीवी में हम लेखक (साथ में क्रिएटिव डाइरेक्टर और चैनल) कहानियों को कभी लकड़बग्घों की टोली की तरह नोचते-खसोटते हैं कभी क़साई की तरह काटते-छाँटते हैं।

रोज़ ब रोज़ अपने चरित्रों के एक्सीडेंट/ बीमारी/ हत्या/ कलह/ क्लेश/ तलाक़ हँसते-खेलते कर जाते हैं। इसलिए खुद शातिरपना करते हुए किसी और का शातिरपना देखना मनोरंजक अनुभव नहीं रहा। तो उपन्यास पढ़ना छूटा, टीवी सीरियल देखना भी छूटा (अपना लिखा भी नहीं देखता था.. आज भी नहीं देखता), हिन्दी फ़िल्में जो कभी रोज़ एक दो देखता था.. वो भी छूटा.. बस विदेशी फ़िल्में देखता रहा और दूसरी क़िस्म की किताबें पढ़ता रहा।

मैं कहानियों से कितना पका हुआ था/हूँ कि दुनिया-जहान की बात की मगर पिछले एक साल में मैंने शायद ही किसी कहानी के बारे में चर्चा कभी ब्लॉग पर की। पर ब्लॉग लिखते हुए और एक लम्बी (ओढ़ी हुई) बेरोज़गारी के चलते कुछ भीतर बदल गया और फिर से सहज होने लगा हूँ कहानियों के प्रति।

और इस बदलाव का नतीजा ये हुआ कि मैं पढ़ने भी लगा और उन उपन्यासों की चर्चा करने लगा जो तनु ने नहीं पढ़े थे। तो तंग आकर जवाबी कार्रवाई में उसने भी अपने व्यस्त शेड्यूल के बीच आते-जाते कार में एक ऐसा उपन्यास पढ़ डाला जो मैंने नहीं पढ़ा था- दि काइट रनर। और उसकी खुले दिल से तारीफ़ भी कर डाली.. तो भई मैंने भी हाथ में ले लिया दि काइट रनर। मुझे पढ़ कर कैसा लगा.. यह पढ़िये यहाँ..

रविवार, 20 जनवरी 2008

कल्लू की चाट मिलेगी?

ये तस्वीर है कानपुर के मशहूर कल्लू चाटवाले के बेटे कमलेश की। नवाबगंज की पतली सी सड़क के एक पुराने मकान के नीचे बरामदे में यह दुकान पिछले पैंतालिस पचास साल से चल रही है। इस दुकान के खुलने का समय शाम चार-पाँच बजे से लेकर चाट के खत्म हो जाने तक है।

और कल्लू की चाट खतम होने में देर नहीं लगती.. ऐसा अकसर होता है कि आप पाँच बजे पहुंचे और बैंगनी खत्म हो चुकी है। इसलिए नहीं कि एक-डेढ़ घंटे के भीतर भीड़ ने सारी बैंगनियाँ लूट लीं बल्कि इसलिए कि कल्लू और कमलेश सालों से उतनी ही चाट बनाते हैं गिन के। जिस दिन मैं गया तो बताशे और टिक्की नहीं थी; कल्लू की तबियत ठीक नहीं थी तो वे नहीं बैठे।

सोचिये.. ऐसा कहाँ होता है आजकल? कोई प्रतियोगिता की होड़ नहीं, आगे निकल कर महल खड़े करने की कोई धक्का-मुक्की नहीं.. कोई प्रचार नहीं.. यहाँ तक कि कोई बोर्ड भी नहीं। बस एक सरल सहज गति से जीवनयापन। जबकि उनको पता है कि लोग क्या सोचते हैं उनकी चाट के बारे में। लोग कल्लू की चाट खाने दूर-दूर से तो आते ही हैं और साथ ही उनके नाम की कसमें भी खाते हैं और कहते हैं कि कल्लू कानपुर की सबसे अच्छी चाट बनाने वाले हैं।

मैंने भी खाई कल्लू की कचौडि़याँ और शिमला(मिर्च) इस बार। बावजूद इसके कि मैं पिछले लगभग बरस भर से मिर्च-मसालों से दूर संयमित भोजन कर रहा हूँ.. मेरा मुँह नहीं जला और पेट भी पचा गया। ज़रूर अपने शेष चरित्र के अनुकूल कल्लू अपनी चाट में बेकार के हानिकारक पदार्थों का इस्तेमाल नहीं करते होंगे।

ऐसे सरल-सहज कारीगरों-कलाकारों का क्या होगा बाज़ार की इस मॉलीय संस्कृति के दौर में..? क्या इनका जीवन-दर्शन एक दम बिला जाएगा? क्या आने वाली पीढ़ियाँ कल्लू जैसों की चाट का स्वाद नहीं सिर्फ़ मैकडोनाल्ड के बर्गर और केन्टकी के फ़्राइड चिकेन ही जानेगी?

शनिवार, 19 जनवरी 2008

एक टन का चूहा

पिछले दिनों प्रमोद भाई ने स्वीकारा कि वे चूहे से कितना घबराते हैं और फिर प्रत्यक्षा जी ने भी चूहे को लेकर एक अजीब भय और जुगुप्सा की चर्चा की अपने लेखन में। चूहे के सामने आने पर मैं भी अपने और उसके सापेक्षिक आकार के प्रति कोई विवेक बरत पाता हूँ, ऐसा नहीं है।

और चूहे के अलावा छिपकली और तिलचट्टे के सामने आते ही अच्छे-अच्छों की हालत जवाब देने लगती है। क्यों? प्रमोद भाई के बलिष्ठ शरीर और चूहे के चूहेपन का कोई मुक़ाबला है; एक पैर जमा के रख दिया तो टें बोल जाएगा मगर नहीं.. अपने ही पसीने छूट जाते हैं।

कल्पना कीजिये कि अगर यही चूहे किलो भर के नहीं टन भर के हों तो हमारा क्या हाल होगा? वैसे अब कल्पना करने की ज़रूरत नहीं.. वैज्ञानिकों को उरुग्वे में ऐसे चूहे (रोडेन्ट) के बीस लाख साल पुराने जीवाश्म मिले हैं जिसका अकेले सिर ही लगभग दो फ़ुट का था। और उसका कुल भार १००० किलो तक आँका जा रहा है। राहत की बात यह है कि उसके दाँत बताते हैं कि वह फल-सब्ज़ी खाने वाला प्राणी था।

आज शाकाहारी महाचूहे का जीवाश्म मिला है कल मांसाहारी चूहे के जीवाश्म मिल सकते हैं! जीवाश्म मिलना उनके अस्तित्व को सिद्ध करता है पर न मिलना यह सिद्ध नहीं करता कि अस्तित्व नहीं था।

प्रमोद भाई ने मुझे बताया है कि उनकी कल्पनाओं के चूहे बिल्ली और कुत्ते के आकार के हैं! आप जानते हैं कि पहले चीनियों की ड्रैगन की लोक-कथाओं को कोरी कल्पना समझा जाता था.. जब जीवाश्म मिलने शुरु हुए तो उनकी लोक-स्मृति की जड़ें वास्तविकता में धँसी थी, सभी ने स्वीकार लिया। तो क्या हमारा भी ये डर अवचेतन में दबी हुई कोई प्रजातीय-स्मृति है?

शुक्रवार, 18 जनवरी 2008

कमज़ोर शरीर में क़ैद इच्छाएं

बचपन में चालीस की उमर वाले लोग किसी और ही दुनिया के प्राणी लगते थे। अब चालीस पर खड़े होकर मैं अपने को उसी दुनिया में पाता हूँ जिस में पन्द्रह, बीस और पचीस में था। जवानी और बुढ़ापे के बीच खड़े होकर एक बात मैंने ग़ौर की है कि जवान आदमी ज़्यादा कोमल, आदर्शवादी और श्रेष्ठता-बोध से ओतप्रोत होता है। जबकि बूढ़ा आदमी कहीं कठोर, उपयोगितावादी और स्वार्थ-बोध में लिप्त होता है।

जवानी में आदमी शक्ति से, ओज से भरा होता है और बुढ़ापे में कमज़ोर। कुछ लोगों को यह बात अनैतिक लग सकती है मगर मुझे आज यह ठीक लगती है कि शक्ति से शुभता और कमज़ोरी से पाप उपजता है। इस समीकरण को 'कमज़ोर को प्यार करने' की ईसा की शिक्षा के विरुद्ध न समझा जाय। बल्कि सच तो यह है कि ईसा की शिक्षा में भी कमज़ोर और पाप के रिश्ते का स्वीकार है।

यहाँ पर मैं शक्ति को सत्ता के पर्यायवाची के तौर पर इस्तेमाल नहीं कर रहा। बल्कि अक्सर सत्ता में बैठा व्यक्ति बेहद कमज़ोर होता है। और कोई भी व्यक्ति हमेशा शक्तिशाली और कोई दूसरा हमेशा कमज़ोर नहीं रहता। ज्योतिष में भी मानवीय गुणों के बल और शुभता के इस सम्बन्ध को ग्रहों के उच्च और नीच के विशेषणों से परिभाषित किया है।

आम तौर बूढ़े आदमी को बाबा मानकर आदर और सम्मान का पात्र समझा जाता है.. यह मान लिया जाता है कि उम्र बढ़ने के साथ उसके अनुभव में भी वृद्धि हो गई होगी। पर हमेशा ऐसा होता नहीं। शनि जो स्वयं बुढ़ापे का प्रतीक है दुःख का कारक है ज्ञान का नहीं। ज्ञान का कारक राहु है जो आदमी को अपने शासन काल में दर-दर भटका देता है। तो शायद चरैवेति चरैवेति का ही एक दूसरा रूप राहु में देखा जा सकता है। शंकराचार्य अगर परम ज्ञानी थे तो वे परम घुमक्कड़ होकर दर-दर भटके भी थे; और ये भटकना कुछ लोग मानसिक धरातल पर कर लेते हैं।

अनुभवजन्य ज्ञान और वय का सम्बन्ध है पर सीधा बिलकुल नहीं। और आम तौर पर होता है ये कि लोग बस बूढ़े हो जाते हैं.. इच्छाएं, अरमान, समझ और अनुभव जहाँ के तहाँ पड़े रहते हैं और सिर्फ़ शरीर बुढ़ा जाता है। असल में बूढ़े लोग एक शिथिल और कमज़ोर शरीर में क़ैद अतृप्त इच्छाएं हैं। झुर्रियों वाली खाल के भीतर वह किसी भी अन्य आदमी जैसे ही होते है। ऐसे बूढ़ों को ज्ञानी बाबा समझने की ग़लती कर के मैं बहुत झेला हूँ और उनके हाथों क्लेश पाकर ही इस समझ पर पहुँचा हूँ।

गुरुवार, 17 जनवरी 2008

जहाँ पानी भी नहीं मिलेगा..

लीजिये पानी बोतल में तो बिक ही रहा था अब आप के घर में आने वाली पानी को भी निजी कम्पनियों के हाथों में सौंपने की योजनाओं पर अमल का काम शुरु हो चुका है। कोचाबाम्बा के अनुभव को दरकिनार कर के आम आदमी को ऐसी जगह ले जा कर मारा जा रहा है जहाँ पानी भी नहीं मिलेगा।

हिन्दुस्तान में इस की चर्चा मुम्बई और दिल्ली में होती रही है पर लागू हो रहा है सब से पहले कुन्दापुर कर्नाटक में। इस मूलभूत अधिकार- पानी- को मुनाफ़े का सौदा बनाने के लिए सबसे पहले नगर के सभी सार्वजनिक नलों का कनेक्शन काट दिया गया और अब हर नए कनेक्शन के लिए चार हजार रुपए का मूल्य रखा गया है। चार हजार!!?? ..सिर्फ़ पानी का कनेक्शन पाने के लिए.. और जो ये रक़म नहीं जुटा पाया उसका क्या होगा?

इस जन-विरोधी क़ीमत से अतनु डे भी खुश नहीं हैं जो खुद इस स्कीम की वकालत करते रहे हैं.. शायद वे निजी कम्पनियों से हमदर्दी की उम्मीद कर रहे थे। वैसे वो चिन्तित भी नहीं हैं; वे अभी भी अपने भोलेपन में इस क़ीमत को कम कर देने को बेहतर आर्थिक नीति बता रहे हैं। पर मैं पूछना चाहता हूँ कि अगर सर्वश्रेष्ठ आर्थिक नीति पानी के कनेक्शन की क़ीमत को लाख रुपये रखने की होगी तो क्या उसे ही लागू किया जाना चाहिये?

व्यसन का विरोध?

सिगरेट छोड़े हुए लगभग एक साल हुआ जा रहा है और आजकल बरसो की पुरानी सहेली की याद बहुत सता रही है। पुरानी लत है शायद अभी भी उसके अवशेष अवचेतन में कहीं दबे पड़े हैं। कितना नसेड़ी होता है आदमी क्या-क्या नशे पाले रहता है.. चाय कॉफ़ी, पान, तम्बाकू, सुपाड़ी, सिगरेट, शराब, भांग, चरस, गांजा, अफ़ीम, कोकेन। एक बार पिया इनको और गए.. शरीर फिर-फिर माँगता है इनका सेवन। सब के साथ एक ही बार में ही बेड़ी पड़ जाती हो ऐसा नहीं है- कुछ थोड़ा ज़्यादा समय लेते हैं।

होता क्या है एडिक्शन..? किसी पदार्थ के सेवन की बार-बार तलब, चाहत, हुड़क ही तो लत पड़ जाना है। एक अनुभव के अनन्त काल तक पुनरुत्पादन की इच्छा। आप को कुछ जानी-पहचानी बात नहीं लग रही ये..? जीवित जगत का हर जीव-जन्तु अपने पुनरुत्पादन के ही काम में तो निरन्तर लगा हुआ है। कुछ जड़ पदार्थ मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर इस स्वभाव की अभिव्यक्ति करें तो यह चकित करने वाली बात ज़रूर है लेकिन प्रकृति के स्वभाव के अनुकूल ही है।

अस्तित्वात्मक दुविधा यह है कि आदमी इन पदार्थों के सेवन का प्रतिरोध कर के जीवन का समर्थन कर रहा है या प्राकृतिक स्वभाव का विरोध?

पूँजीवाद की प्रेरणा

टाइलर कोवेन की जिस किताब की चर्चा मैं इस ब्लॉग पर पहले भी कर चुका है, पिछले दिनों वह हासिल कर ली और आजकल पढ़ रहा हूँ। डिसकवर योर इनर इकॉनमिस्ट का एक रोचक अंश मुझे चर्चा करने लायक लगा..

पूँजीवाद का सबसे कम चर्चित गुण यह है कि वह कैसे अलग अलग तरह और जोड़ के ईनाम और जुर्माने को मिलाता-बिलाता है। पूँजीवाद सिर्फ़ डॉलर्स, डॉलर्स और और डॉलर्स ही नहीं है। मनुष्यता की भलाई के लिए आन्तरिक प्रेरणा को गोलबंद करने का यह सबसे अच्छा तंत्र है। और लोगों को (अपने जीवन पर) एक नियंत्रण के एहसास के लिए जगह बनाना भी इस में शामिल है।

कब प्रेरकों (इनसेन्टिव्स) को बदल दें और कब पैसे के बारे में सोचना बंद कर दें- यह जानने का नाम ही पूँजीवाद है। सोवियत संघ के साथ समस्या सिर्फ़ यह नहीं थी कि सकारात्मक प्रेरक बहुत कमज़ोर थे बल्कि नकारात्मक प्रेरक भी बहुत प्रबल थे। सोवियत संघ के अधिकतर लोगों के लिए ठीक-ठाक जीवन जीने का एकमात्र रास्ता कम्यूनिस्ट पार्टी के दफ़्तर से होकर जाता था। यह दबाव हर वक़्त था और ज़बरदस्त था। या तो आप चुन सकते थे पूरी तरह बाग़ी होना- जिसका अंत बेहद बुरा होता- या फिर सत्ता के पीछे भागना या कम से कम उसे बरदाश्त करने की ताब रखना। लगभग हर सामाजिक और आर्थिक फ़ैसला इस गणित से तय हो रहा था।

निश्चित ही यह एक बेहद बीमार प्रेरक था मगर समस्या कहीं और भी थी। आम तौर पर समझा जाता है कि प्रेरक-मुक्त (इनसेन्टिव फ़्री) व्यवहार के लिए सोवियत समाज ने पूँजीवाद से ज़्यादा अवसर प्रदान किए। (जबकि सच्चाई उलटी थी) राज्य द्वारा नियंत्रित अर्थव्यवस्था के चलते नए व्यापारिक योजनाओं को बनाने और लागू करने के लिए बहुत ही कम मौके मौजूद थे। गतिविधि का दायरा दोस्तियों और पारिवारिक सम्बन्धों तक सीमित था। जिसका नतीजा था इस दुनिया को बेहतर बनाने के लिए रचनात्मकता और मानवीय पूँजी का निवेश भी सीमित रहा।

और कम्यूनिज़्म (सोवियत संघ) के असफल होने का यह बड़ा कारण है।



कोवेन साहब की सोवियत संघ के बारे में कही गई बात काफ़ी तार्किक है। सब जानते हैं कि सोवियत काल में रूस कितना बंद और घुटन भरा समाज बन गया था.. मगर 'पैसे के बारे में सोचना बंद कर देने वाली' जिस अवस्था का ज़िक्र कोवेन कर रहे हैं वह उपभोक्ता के सिरे पर तो हो सकती है पर कम्पनियाँ ऐसी किसी अवस्था को मानती भी होंगी, शक़ है। उनका पूरा ज़ोर तो उन सारी उपयोगिताओं को भी बाज़ारू बना देने का है जो अभी तक खरीद-फ़रोख्त के दायरे से बाहर हैं।

क्या सौ साल पहले कोई कल्पना कर सकता था कि पानी बिकेगा? कल को हवा बिकेगी.. क्या आप आज मान सकते हैं? सार्वजनिक अधिकार की प्राकृतिक चीज़े? और क्या पृथ्वी के इन संसाधनो पर सिर्फ़ मनुष्य का अधिकार है? अन्य प्राणियों का क्या? और रही बात आज़ादी की.. पूँजीवाद हमेशा आज़ादी की बात करता है- उस आदमी की आज़ादी का क्या जो इस आर्थिक तंत्र का हिस्सा नहीं बनना चाहता.. वो पानी और हवा के लिए मोहताज बना रहेगा? क्या उसके जीने का हक़ खत्म हो जाएगा? क्या ये परिदृश्य आज मौजूद नहीं है?

मुझे दो बातें लगती है;

१) बिना पैसे के जो आनन्द हम लेते हैं उन्हे हमने पूँजीवाद से नहीं सीखा है बल्कि सच्चाई उलटी है पूँजीवादी मानसिकता हर चीज़ को पैसे से तौलने के चक्र में फँस जाती है। हो सकता है कि एक आदर्श पूँजीवादी समाज में यह सम्भव हो कि कम्पनियाँ यह तय करें कि कब पैसे के बारे में सोचना बंद कर दें। पर सम्भव तो बहुत कुछ आदर्श साम्यवादी समाज में भी है.. और मामला सम्भावनाओं का नहीं वास्तविकताओं का है।

२) सोवियत संघ की असफलता से पूँजीवाद की सफलता सिद्ध नहीं की जा सकती। पूँजीवाद आर्थिक सम्पदा को बढ़ाने में सफल रहा है और अभी भी उसके लिए बहुत जगह बनी हुई है पर आदमी की ज़िन्दगी को और इस दुनिया को बेहतर बनाने में वह कितना सफल हुआ है, इस पर बहुत बड़ा सवालिया निशान है।

मंगलवार, 15 जनवरी 2008

काम चलाने की मानसिकता

छोटे शहरों में सार्वजनिक आयामों का ऐसा हाल क्यों है जैसा कि है? सड़कों की, नालियों की, खेल के मैदानों की यहाँ तक कि अपने रहने के मकानों तक की कोई चिंता नहीं करता.. सब लोग किसी तरह काम चला लेते हैं। घर के ठीक सामने नालियाँ कीच से बजबजाती रहती हैं और लोग उन्हे साफ़ करने-कराने का कोई यत्न नहीं करते! क्यों? इस काम-चलाऊ मानसिकता का कारण क्या है? क्या इसलिए कि यह किसी और का काम है? और वे किसी और के काम में दखल न देने वाली नागरिक-नैतिकता रखते हैं? क्या मुम्बई जैसे बड़े शहरों के पुराने इलाक़ों में भी यही तस्वीर है? नहीं..!

शायद आप ने पिछले दिनों पढ़ा हो कि बान्द्रा ईस्ट के एम आई जी मैदान को लेकर क्लब की अधिकारियों और नागरिकों के बीच एक झगड़ा चल रहा है.. अभी हाल यह है कि मैदान को कुछ निश्चित घंटों के लिए ही आम नागरिकों के लिए खोला जाता है। बाकी समय मैदान को रणजी ट्रॉफ़ी के मैचेस, कुछ सांस्कृतिक आयोजन वगैरह के लिए किराये पर दे दिया जाता है जो क्लब की आय का एक मात्र स्रोत है।

पर नागरिकों का मानना है कि इसके चलते इलाक़े के बच्चे अपने खेलने के मैदान से वंचित हो रहे हैं। और वे खेल के मैदान को क्लब के अधिकार से निकाल कर सार्वजनिक दायरे में लाना चाहते हैं। क्लब वाले कह रहे हैं कि उन्होने मैदान को महाडा से खरीद लिया है और नागरिक सकते में हैं कि ये कब हुआ कैसे हुआ? और उनके बीच लड़ाई जारी है!

मेरा सवाल है कि क्या ऐसी लड़ाई किसी छोटे शहर या क़स्बे में मुमकिन है? अगर नहीं तो क्यों नहीं? अभी पिछले दिनों मैं कानपुर गया हुआ था जहाँ मेरे बचपन का एक बड़ा हिस्सा गुज़रा है। बचपन में मैं साकेत नगर के जिस मकान में रहा करता था उसे फिर से देखने जा पहुँचा। उस मकान में कोई बदलाव नहीं आया यह देख कर मुझे थोड़ी हैरानी हुई मगर ज़्यादा हैरानी इस बात से हुई कि सामने की सड़क और मैदान में भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ।

वो आज भी वैसे ही ऊबड़-खाबड़ और उजाड़ पड़ा हुआ है झाड़ियों और पत्थरों से भरा हुआ कि जिसे देखकर आप के भीतर खेलने की कोई उमंग नहीं जागेगी। क्या यहाँ रहने वाले बच्चों को खेलने की कोई ज़रूरत नहीं? या उनके माँ-बाप इस बारे में सचेत नहीं? और अगर सचेत हैं तो कुछ करते क्यों नहीं? क्या उनके पास समय नहीं है? ऊर्जा नहीं है? क्या बात है?

मेरा अपना ख्याल यह है कि मुम्बई और कानपुर में फ़र्क गाँव से जुड़ाव का है। लोग छोटे शहरों में रहते हुए भी कभी पूरी तरह से मान नहीं पाते कि उन्हे स्थायी तौर पर यहीं रहना है। वे लगातार एक विस्थापित मानसिकता में ही बने रहते हैं। वे महज आर्थिक कारणों से गाँव छोड़कर शहर आए होते हैं और अपने शहरी-निवास को एक प्रवास मानकर बने रहते हैं एक अस्थायी मानसिकता में।

दूसरी बात जो मुझे लगती है कि चूँकि ज़्यादातर शहर मूलतः अंग्रेज़ों के द्वारा बनाए-बसाए गए हैं तो शहर में रहने वाले हिन्दुस्तानी एक पराये आयाम में परदेसी मानसिकता से रहते हैं। दूसरे की बनाई संरचना में अपने योगदान की बात, अपनी रचनात्मकता की बात वे नहीं सोचते। मुम्बई जैसे महानगर के इन इलाक़ों में लोगों के भीतर एक स्थायित्व आया है.. अब यहीं रहना है, कहीं और नहीं जाना, न आगे न पीछे। तो अपने आस-पास पर अपने अधिकार का दावा पेश करते हैं.. और अपने योगदान के प्रति सजग होते हैं।

आप का क्या खयाल है?

सोमवार, 14 जनवरी 2008

बेगम नवाज़िश अली

जनरल साहब को धकिया-धकेल के वर्दी से वंचित कर दिया गया। बेचारों को इस ग़म से राहत देने को दहशतगर्दों (?) ने बीबी साहिबा का क़त्ल कर डाला। इन्तिखाब टालने पड़े। जनरल साहिब (रिटायर्ड) थोड़े सुकुन से हैं पर लोग बड़ी गालियाँ दे रहे हैं उन्हे। बेनज़ीर का खून तो उनके कपड़ों पर मल ही रहे हैं और पाकिस्तान की सारी मुसीबतों का ज़िम्मेवार भी मान रहे हैं उन्हे।

माना बुरे हैं पर अब इतने भी बुरे नहीं जनरल (रिटायर्ड) साहिब। कुछ तो आज़ादी का माहौल बनाया था उन्होने पाकिस्तान में। वरना एक अली सलीम, बेगम नवाज़िश अली बनकर क्यूंकर सबकी खिल्ली उड़ा सकता था ? वो भी नेशनल टेलेविज़न पर? कुछ लोग कहते हैं कि उनकी ही फ़ौज के एक कर्नल के बेटे अली को उन्हे खून के घूँट पी कर बरदाश्त करना पड़ा

वजह जो भी रही हो लेकिन इतना क्रेडिट तो देना पड़ेगा आप को कि बरदाश्त करने की क़ुव्वत है जनरल साहिब में। और इसी जज़्बे को तो डेमोक्रेसी कहते हैं। वैसे बेगम नवाज़िश अली को अब आप भी देख सकेंगे 9X पर हर शनिवार रात दस बजे। कुछ लोग अली को होमोसेक्चुअल कहते हैं कुछ लोग बाइसेक्चुअल.. मैंने उन्हे एक इन्टरव्यू में खुद को ट्राइ(try)सेक्चुअल बताते हुए सुना है।

देखिये महेश भट्ट के साथ उनके प्रोग्राम की यह क्लिप..

शनिवार, 12 जनवरी 2008

बुड़ुम.. बुड़ुम.. बुड़ुम..

आज सुबह एक पोस्ट लिख कर वापस सोने चला गया। जब जागा तो बाहर के कमरे से कुछ आवाज़ आ रही थी। भली सी, सुखद, तसल्ली देने वाली आवाज़। एक पल के बाद याद आ गया कि यह आवाज़ एक कम्प्यूटर गेम से आ रही थी जो तनु खेल रही थी। आम तौर पर वीडियो गेम्स, कम्प्यूटर गेम्स से धाँय धूम, धाड़ भाड़, शाँय शूँ, भीं‍ऽऽऽ ईंऽऽऽऽ तरह की आवाज़े आती हैं पर इस गेम से टुड़ुम-टुड़ुम-टुड़ुम, बुड़ुम-बुड़ुम, टुपुक, छपाक जैसी आवाज़े आ रही थीं। थोड़ी देर इन्हे सुनते रहने के बाद समझ आया कि ये सारी आवाज़े बूँद के जलराशि में मिलने की आवाज़े हैं।

और फिर इस ख्याल के साथ एक गूढ़ बात में उलझ गया। पुराना मुहावरा है बूँद के सागर में मिलने का- आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध को परिभाषित करता। और ख्याल आया अपनी मृत्यु और मृत्यु जनित अपने भय का.. अपने अस्तित्व के विखण्डन का। कोई अनोखा भय नहीं है मेरा। सभी डरते हैं मरने से। क्या यह जानकारी इस भय को भगाने के लिए काफ़ी नहीं कि मर कर हम बूँद के बदले सागर का अस्तित्व ग्रहण करेंगे? शायद नहीं.. या बिलकुल नहीं.. अगर काफ़ी होती तो हम डरते ही क्यों?

क्या हम डरते हैं क्योंकि हम अज्ञान के अँधेरे में हैं या हम डरते हैं क्योंकि हमें पता है कि सचमुच विखण्डन हो ही जाएगा? भारतीय अध्यात्म कहता है कि हमारा डर सिर्फ़ अज्ञान से उपज रहा है और विज्ञान मानता है कि सचमुच विखण्डन होना ही नियति है।

हिन्दू लोग अपनी आध्यात्मिक मान्यता के अनुसार इसीलिए मृत्यु के हर अवसर पर मोह-शोक—दुःख से ग्रस्त होने पर गीता-पाठ करते हैं कि आत्मा तो अजर-अमर है कपड़े बदलती है आदि आदि। पर वही लोग जो गीता-पाठ करते-कराते हैं गरुड़ पुराण का प्रेतकल्प पढ़ने और उसके अनुष्ठानों को करने की सलाह भी देते हैं। उस प्रेतकल्प के अनुसार शरीर को जला देने के बाद जो बचता है वह आत्मा नहीं अँगूठे के आकार का प्रेत है। कहीं और पढ़ेंगे तो आप को कुछ और मान्यता मिल जाएगी।

अध्यात्म के भीतर आत्मा सम्बन्धी विचार कोई एक नहीं है कि सीधे सीधे कपड़ने बदलने जैसी बात हो। मामला ज़रा जटिल है और आप उसमें जितना बूड़ियेगा उसका रंग उज्जवल होने के बजाय श्याम की ओर गहराता जाएगा। फिर भी यह मान्यता ठोस रूप में बनी रहती है कि आप चाहे, न चाहें, मानें, न मानें, मृत्यु के बाद आत्मा का अस्तित्व बना रहता है। शरीर से स्वतंत्र अस्तित्व!

गीता कहती है निष्काम कर्म करो! और बुद्ध कहते हैं कि कर्म बन्धन से कूद कर अलग हो जाओ और शरीर के भीतर चेतना की ऐसी अलख जगाओ कि पोर-पोर को जान लो..
विज्ञान ऐसा नहीं मानता। विज्ञान कहता है कि सबसे जटिल भौतिक संरचना और सबसे उन्नत चेतना वाला प्राणी मनुष्य है.. पर साथ ही मानता है कि शरीर के साथ ही चेतना का भी विखण्डन हो जाता है- मृत्यु के बाद चेतना (आत्मा) के स्वतंत्र अस्तित्व जैसी धारणा अतार्किक है। ग़ौरतलब है कि विज्ञान चेतना के अस्तित्व को नहीं नकारता.. सिर्फ़ उसके स्वतंत्र अस्तित्व को नकारता है।

तो फिर चेतना क्या है? विज्ञान के पास इसका कोई ठोस जवाब नहीं है पर हाँ वह इसे भौतिक पदार्थ के जटिल सरंचना का साइड इफ़ेक्ट सा मानता है। आत्मा की अनादि अनन्त स्वभाव पर अध्यात्म का ज़ोर है और पदार्थ की अखण्डता, शाश्वतता को विज्ञान मानता है.. कहीं ये एक ही सिक्के के दो पहलू तो नहीं? पर किस तरह.. ?

अब वापस लौटते हैं मूल बूँद और सागर की बात पर.. यदि वैज्ञानिक मान्यता से इस बात को देखें तो ठीक और तार्किक मालूम होती है। सिवाय एक पहलू के कि व्यष्टि के समष्टि में विलीन होने पर चेतना के स्तर पर कुछ भी घटित नहीं होगा क्योंकि शरीर की जटिल सरंचना का विखण्डन होते ही चेतना नष्ट हो जाएगी।

यदि आध्यात्मिक मान्यता से भी चला जाय तो बूँद सागर में मिल भी गई तो भी उसका स्वतंत्र अस्तित्व बना रहता है प्रेत के रूप में जो कर्म-बन्धन के चलते बार-बार जन्म और मृत्यु के चक्र में घूमते रहने के लिए बाध्य है। मगर प्रेत के रूप में और बारम्बार शरीर के रूप में उसे अनन्त दुःखों का भागी-भोगी होना ही पड़ता है। इसीलिए बुद्ध ने इस दुःख से निवृत्ति का मार्ग बताया.. जो गीता के मार्ग से सैद्धान्तिक रूप से अलग नहीं है। गीता कहती है निष्काम कर्म करो! और बुद्ध कहते हैं कि कर्म बन्धन से कूद कर अलग हो जाओ और शरीर के भीतर चेतना की ऐसी अलख जगाओ कि पोर-पोर को जान लो।

शरीर के भीतर चेतना की यह अलख वाली बात ध्यान देने योग्य है। बुद्ध अपने साधकों को वैचारिक मारा-मारी से दूर रहकर विपश्यना करने की सलाह देते हैं। वि-पश्य-ना.. वि माने विशेष और पश्य माने देखना। विपश्यना माने शरीर को खास तरह से देखना। ऐसे कि शरीर के एक-एक अणु को आप स्वतंत्र अस्तित्व के बतौर पहचान सकें, जान सकें और देख सकें।

क्या उसे बोध हो जाता है कि उसका मूल स्वभाव चित है ?या फिर अपने मूल स्वभाव अज्ञान को त्याग एक नए उन्न्त स्वभाव चित को प्राप्त हो जाता है ..?
जब कोई ऐसी अवस्था में पहुँच जाते हैं तो इसे बोध हो जाना कहते हैं या दूसरे शब्दों में पूरी तरह से चेतन हो जाना। इस अवस्था को प्राप्त हुआ व्यक्ति फिर जन्म नहीं लेता वह महाबोधि को, कैवल्य को, मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। मतलब कि फिर बूँद का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रहता। बूँद सागर में मिलने से घबराती नहीं क्योंकि कुछ खोता नहीं बहुत कुछ, सब कुछ मिल जाता है।

अगर इस आध्यात्मिक परिघटना को विज्ञान से समझने की कोशिश करें तो शायद यह कहना अनुचित न होगा कि चेतना का जो साइड इफ़ेक्ट, जो चेतन व्यवहार, पदार्थ का जो आधिभौतिक पहलू, पदार्थ की जटिल संरचना के चलते पदार्थ के भीतर फ़ौरी तौर पर पाया गया था वो साइड इफ़ेक्ट जटिलता के नष्ट होने पर भी पदार्थ के सरल स्वरूप में भी पदार्थ संचित कर ले जाता है। और एक महाचेतना का अंग बन जाता है। कैसे?

क्या माया के परदे से बाहर निकल अँधेरे को हटा कर पदार्थ सीख जाता है, जान जाता है.. क्या उसे बोध हो जाता है कि उसका मूल स्वभाव चित है ? या फिर अपने मूल स्वभाव अज्ञान को त्याग एक नए उन्नत स्वभाव- चित को प्राप्त हो जाता है ? और अगर ऐसी कोई परिघटना अगर सचमुच सम्भव है तो क्या इसीलिए बड़े-बूढ़े बार-बार चेताते हैं कि मनुष्य योनि बार-बार नहीं मिलती इसका सदुपयोग कर लो..? .. ह्म्म ! कुछ कहानी बनती है क्या?

इन वन वर्ड इमोशन!

'तारे ज़मीन पर' देखते समय मैं तमाम मौकों पर फुक्का फाड़ कर रो देने की स्थिति में बना रहा..दो तीन जगह फट भी गया फुक्का। निश्चित ही ये आमिर खान की निर्देशकीय कौशल का सूचक है।
इस तरह से रुलाने वाली फ़िल्म को कौन बुरा कह सकता है। कानपुर से मुम्बई के सफ़र में मैंने कुछ नौजवानों को इस फ़िल्म की चर्चा करते सुना- पूछ मत कैसी है बस देख तू! शायद नौजवान सरे आम अपने रोने की बात खोलने से क़तरा रहा था पर उस रुलाई के आनन्द को बाँटने के लिए हुड़क भी रहा था।

किसी भी फ़िल्म की यह सबसे बड़ी ताक़त होती है। ज्याँ लुक गोदार की फ़िल्म 'पियरे ला फ़ू' में जब सैमुअल फ़ुलर से पूछा गया कि सिनेमा क्या होता है तो उन्होने कहा कि फ़िल्म इज़ लाइक ए बैटलग्राउण्ड… लव, हेट, एक्शन, वायलेन्स, डेथ.. इन वन वर्ड इमोशन ! और इमोशन तारे ज़मीन में भरपूर है। आमिर खान ने अपनी पहली फ़िल्म में ही दिखा दिया कि जिन निर्देशकों की फ़िल्मों में वे काम करते रहे हैं उनके प्रति उनकी तथाकथित हिकारत यदि थी.. तो बेबुनियाद नहीं थी!

फिर भी फ़िल्म के एक दो बिन्दु ऐसे रहे जो मेरी छिद्रान्वषेक दृष्टि से बच नहीं सके। जैसे इन्टरवल के बाद आमिर के निजी जीवन में फ़िल्म की दखलन्दाज़ी उबाऊ लगने लगती है। जैसे बच्चे की त्वरित प्रगति थोड़ी नाटकीय हो जाती है।

जैसे जो बच्चा अपने परिवार से बिछुड़ जाने के दुख से एक खतरनाक स्थिति में पहुँच जाता है वो वापस अपने परिवार से मिलने पर परिवार के प्रति उदासीन नज़र आता है क्या इसलिए कि आमिर स्वयं के महत्व को हीरो के आकार के रखने का मोह संवरण नहीं कर पाए। जैसे कि बच्चे के चरित्र का इतना गहरा चित्रण करने के बावजूद आमिर माँ-बाप के चरित्र को बहु-आयामी बनाने से चूक गए।

आम तौर पर हिन्दी फ़िल्मों की स्क्रिप्ट पर चर्चा करने लायक कुछ नहीं रहता वो अधिकतर गानों, चुटकुलों और भावुक मसालों की एक लड़ी होती है। दोष किसी व्यकित का नहीं धंधे का है- एक (फ़िल्मी) कवि ने सही कहा है.. गंदा है पर धंधा है ये! मगर 'तारे ज़मीन पर' अलग है। इन छोटी-छोटी कमियों के बावजूद 'तारे ज़मीन पर' एक पैसावसूल अनुभव रहा जो आप को बच्चों की विशेषताओं के प्रति हमेशा के लिए संवेदनशील बना जाता है।
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