शुक्रवार, 25 जनवरी 2008

अरबी, फ़ारसी, उर्दू और नुक़्तेबाज़ी

मेरे पुराने मित्र इरफ़ान यारो की इस बेशर्मी से बड़ी तकलीफ़ में हैं कि वे गलत-सलत लिख रहे हैं। उन्होने किसी का नाम नहीं लिया पर मेरा ख्याल है कि वो यार कोई और नहीं मैं ही हूँ। वे मेरी ग़लती के लिए मुझे फटकारना तो चाहते हैं पर दूसरों के आगे जो मेरी उर्दूदां की इज़्ज़त बनी हुई है उसे नहीं उतारना चाहते ..आखिर दोस्त हैं मेरे। पर मैं इस तरह की बेइज़्ज़ती से बचने से सुखी होने से ज़्यादा उस लिंक के खो जाने से दुखी हूँ जो वो मुझे दे सकते थे; बड़े-बूढ़े कह गए हैं बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा?

खैर.. मामला नुक़्तों का है.. मैंने इरफ़ान भाई से जो सवाल किए थे चूँकि उन्होने जवाब नहीं दिए तो मैं ही उसकी चर्चा कर रहा हूँ। मेरे सवाल थे..

क और क़, ज और ज़, फ और फ़, ग और ग़, का तो आप बहुत ख्याल रखते हैं मगर मैंने आप को भी मुहब्बत को मुह़ब्बत और इश्क़ को इ़श्क़ लिखने नहीं देखा.. ? आप को पता है रमदान को ईरान के पूर्व में रमज़ान क्यों कहा जाता है? और व्याकरण व उच्चारण की शुद्धता का बहुत ख्याल रखने वाले अरब लोग पारस को फ़ारस क्यों कहने लगे?

जो उर्दू नहीं जानते वो भी जानते हैं कि एक जाहिल वाला ज होता है और एक ज़हीन वाला ज़ होता है। और कुछ समझदार लोग जानते हैं कौए वाले क के अलावा एक क़ होता है जो हलक़ से बोला जाता है और नुक़्ते में इस्तेमाल होता है। फिर एक ग होता है जो बेगम में होता है और एक ग़ जो ग़म में होता है (इरफ़ान भाई का ग़म इसी बेगम को बेग़म बना देने से शुरु हुआ था)। और फ के अलावा एक फ़ को तो लोग इतना ज़्यादा जान गए हैं कि अब फूल को फ़ूल ही कहते हैं। इस से कम से कम इतना तो पता चलता है कि लोग सही बोलना चाहते हैं.. पर अज्ञान की वजह से (वज़ह नहीं) नहीं बोल पाते।

और उर्दू जानने वाले जानते हैं कि ये जो ज़ होता है चार प्रकार का होता है.. ज़े, ज़ाल, ज़ा, ज़ाद, {एक पाँचवा त्ज़े (या ऐसा ही कुछ उच्चारण वैसे उर्दू वाले उसे भी ज़े ही कहते हैं) भी होता है पर उसका उर्दू में नहीं के बराबर इस्तेमाल है जैसे हिन्दी में लृ का}। जब मैंने फ़ारसी सीखना शुरु किया था तो मैं बहुत दिनों तक इस पहेली से बहुत परेशान रहा कि ये चार तरह के ज़ रखने का क्या मतलब जब कि उच्चारण सब का एक ही है- मेरा मन स्वीकार ही नहीं कर पाता था कि कोई भी समझदार जन अपनी भाषा में इस प्रकार का विधान रखेंगे? इस राज़ को जब मैंने समझा तो बहुत सुकून मिला.. पर राज़ बाद में। पहले ये भी जानना ज़रूरी है कि उर्दू में ह भी दो हैं और अ भी दो और स तीन हैं।

उर्दू एक संकर भाषा है.. उर्दू का फ़ारसी में मतलब होता है छावनी, कैन्टोनमेंट। आज भी लाहौर व काबुल के उस इलाक़े में उर्दू बाज़ार नाम के मोहल्ले मौजूद हैं जहाँ सेना की छावनी होती थी। लाहौर और काबुल में ही क्या अपने दिल्ली में भी एक उर्दू बाज़ार है- लाल किले के सामने, जामा मस्जिद के बाजू में। इन छावनियों में स्थानीय लोगों और छावनी में बसने वाले तुर्की, अरबी, ताजिक, उजबेकी, ईरानी, अफ़्ग़ानी आदि सैनिकों के अन्तर्सम्बन्ध से जो भाषा जन्मी वह आगे चलकर उर्दू कहलाई। उर्दू की लिपि वही जो फ़ारसी की है और फ़ारसी की लिपि वही है जो अरबी की है। पर इनमें फ़रक है.. अरबी में २८ अक्षर हैं, फ़ारसी में ३२ और उर्दू में ३८।

‘ट’ वर्ग की ध्वनियों को और सघोष ध्वनियों (ख,घ,भ आदि) को शामिल करने के लिए उर्दू में इन अक्षरों का इजाफ़ा करना पड़ा, जो फ़ारसी में नहीं हैं। और अरबी के २८ अक्षरों में इन ध्वनियों के अलावा प, च, ग ध्वनियाँ नहीं है। और 'त्ज़' (या जो भी वह है) ध्वनि भी नहीं है जो फ़ारसी के अलावा फ़्रेंच में मिलती है। चूँकि अरबी में प की ध्वनि है ही नहीं इसलिए वे पारस को हमेशा फ़ारस ही पुकारते रहे। और जब अरबों ने पारस पर आक्रमण करके क़ब्ज़ा किया तो अरबी साम्राज्यवाद से प्रभावित लोग स्वयं को भी फ़ारसी कहने लगे। इस्लाम के विस्तार को अरबी साम्राज्यवाद कहना कुछ अटपटा लगेगा कुछ लोगों को मगर इस्लाम के विद्वान असग़र अली इंजीनियर साहब की इस्लाम के विकास की ऐतिहासिक-वैज्ञानिक व्याख्या से मैंने कुछ ऐसा ही सीखा है।

अब आप कल्पना कीजिये अरबी भाषा की जिसमें ट, ठ, ड, ढ, ड़ नहीं, ख, ग, घ, च, छ, प, फ नहीं, भ नहीं और दो अ, दो क, दो ह, और तीन स .. और चार ज़.. !!!??? अरबी लोग बोलते क्या हैं ल म ह क़ ख़ ग़ और ज़.. बस?

क़, ख़ और ग़ की तरह दूसरा अ और दूसरा ह दोनों हलक़ से बोले जाते हैं। इश्क़ में इ है उसकी सही ध्वनि हलक़ से निकलने वाले ऐ़न से आती है। और मुहब्बत य मुहम्मद में जो ह है वह भी हलक़ से ही निकलने वाली ध्वनि है। हज़ारों में कोई एक ही मुहम्मद के ह को हलक़ से बोलता है। मुझे नहीं याद पड़ता कि मैंने इरफ़ान को भी कभी ऐसे बोलते सुना हो.. लिखते तो वो हमेशा मुह़म्मद ही हैं बिना ह के नीचे नुक़्ता लगाए। क और ग और ख के नीचे नुक़्ता लगाने वाले ह और अ के नीचे नुक़्ता न लगाकर कोई ग़लत कर रहे हैं या किसी अघोषित नियम का पालन.. ये कौन बताएगा?

मगर सवाल उठता है कि न तो स हलक़ से निकल सकता है और न ही ज़। तो इनका रहस्य क्या है? ये माजरा क्या है? असल में.. अरबी में ये सारे अक्षर अलग-अलग ध्वनियों के प्रतिनिधि हैं;

तीन 'स' में से एक 'से' का उच्चारण स नहीं 'थ' है..
सीन का उच्चारण सीन ही है..
और साद के स के उच्चारण में थोड़ा भारी स की ध्वनि है..
चार ज़ में से पहले ज़ाल का उच्चारण दाल है.. जबकि उसके पहले के दाल का उच्चारण डाल है..
दूसरे ज़, ज़े का उच्चारण ज़ ही है..
तीसरे ज़- ज़ाद का उच्चारण दाद है.. थोड़ा भारी द..
और चौथे ज़- ज़ा का उच्चारण ज़ जैसा ही है पर थोड़ा भारी ज़..

किस तरह से भारी यह किसी अरबी बोलने वाले को सुनकर ही समझा जा सकता है। हमारे कान उस ध्वनि को सुनने-समझने के लिए और हमारी ज़बान उसे उच्चारित करने के लिए विकसित नहीं हुई है क्योंकि छै महीन से एक साल की उमर तक शिशु जो ध्वनियाँ सुनता है वो उसके मस्तिष्क में जड़ हो जाती हैं उसके बाद नई ध्वनियाँ बोलना सीखना लगभग असम्भव होता है ऐसा वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चला है। इसीलिए शायद पारम्परिक ज्ञान में भी मातृ भाषा का इतना महत्व माना गया है।

अरबी ज़बान की ये सारी ध्वनियाँ जब फ़ारस पहुँची तो पारस के लोगों ने ‘न जाने क्यों’ (या बेशर्मी से?!) इन ध्वनियों को ठीक-ठीक नहीं ग्रहण किया और अरबी की ध्वनियों को ग़लत-सलत उच्चारित करना शुरु कर दिया.. जैसे रमदान को रमज़ान।

उर्दू ने भारतीय बोलियों के तमाम ध्वनियों को अपनाने के लिए अरबी-फ़ारसी लिपि में प्रगतिशील परिवर्तन किए पर फ़ारसी द्वारा की गई ग़लतियों को जारी रखा। फ़ारस से पूर्व में, जहाँ-जहाँ फ़ारसी का प्रभाव रहा- अफ़्ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, और बंगलादेश तक में रमदान को रमज़ान कहा जाता है। अब ये बताइये कि रमदान को रमजान लिखना सही है या रमज़ान.. या दोनों ग़लत?

हिन्दी में इन नुक़्तों की विशेष दिक़्क़त इसलिए होती है कि हिन्दी भाषा में यह ध्वनियाँ पहले से मौजूद नहीं है। हिन्दी या ग़ैर-उर्दू भाषी बच्चा अपनी माँ से नहीं सुनता ये ध्वनियाँ। और जब सुनता है तो उसके शुद्ध (?) उच्चारण को जाँचने के लिए देवनागरी तथा अन्य भारतीय लिपियाँ उसकी कोई मदद नहीं करती।

इसलिए इरफ़ान भाई से फिर गुज़ारिश है कि कोई जानबूझकर बेशर्मी से ग़लती नहीं कर रहा.. अनजाने में भूल हो जाती है। और लोग कोशिश कर रहे हैं एक भाषा को जानने-पहचानने की। ग़लतियाँ हो जाती हैं.. आप उस को बेशर्मी समझ कर खफ़ा मत होइये..

स्पष्टीकरण: मैं न उर्दू ठीक से जानता हूँ न फ़ारसी। बस सीखना चाहता हूँ.. और उसके लिए कोशिश करता रहता हूँ।

12 टिप्‍पणियां:

अनिल रघुराज ने कहा…

इतनी बारीकियां बता डालीं और कहते हैं कि न उर्दू ठीक से जानता हूँ न फ़ारसी!! वैसे हिंदी अखबारों से नुक्ता धीरे-धीरे गायब होता जा रहा है। टेलिविजन न्यूज़ में भी इसका इस्तेमाल इसलिए बचा है क्योंकि यहां बोलना पड़ता है। आपको बता दूं कि न्यूजरूम में नुक्ते को मुसलमानी बिंदी भी कहते हैं।
खैर जो भी हो, आइंदा से नुक्ते को लेकर कोई उलझन होगी तो डिक्शनरी देखने के बजाय आपको फोन करूंगा। भरोसा है कि आप मेरा कन्फ्यूज़न और ज्यादा नहीं बढ़ाएंगे।

चंद्रभूषण ने कहा…

पांचवें ज का इस्तेमाल अंग्रेजी के एक शब्द ट्रेज़री के उच्चारण में भी होता है- बकौल फादर कामिल बुल्के। मेरे ख्याल से अगर जलील और ज़लील जैसा कोई अर्थ का अनर्थ होने की बिल्कुल जाहिर गुंजाइश न हो तो भरसक नुक्तों के इस्तेमाल से बचना चाहिए। अपने मित्र प्रकाश चौधरी को जब मैं ख़ाना ख़ाने जैसीं बातें करते सुनता हूं तो फ्रस्टेशन में माथा तक नहीं पीट पाता...

Yunus Khan ने कहा…

नुक्‍ते पर आपन अच्‍छी नुक्‍ताचीनी की । इरफ़ान ने तमाम लोगों पर उंगली उठाई थी जो ग़लत प्रयोग करते हैं, आपने नाहक अपने ऊपर ले लिया भाई, अब अपने ऊपर ले ही लिया तो हमारे लिए तो अच्‍छा ही रहा । इनती सारी बातें पता चल गयीं । कुल मिलाकर हमारा आग्रह यही रहता है कि कम से कम प्रयास करें सही बोलने का ।

मसिजीवी ने कहा…

उम्‍मीद है कि 5 ज, 7 स, 3 क, 13 ल आदि की जो चर्चा आप कर रहे हैं वे उर्दू की ही हैं और वहीं रहने की कह रहे हैं। हिंदी में भी वेसे ही इसतेमाल हो यह आपका आग्रह नहीं है, वरना मानना संभव नहीं हो पाएगा। 33 व्‍यंजन ही नहीं सधते बेचारों उस्‍तादों/शागिर्दों से हिन्‍दी में और के लिए इस बस में जगह नहीं है।

azdak ने कहा…

इस मामले में पुराना फेलियर हूं.. और अब क्‍या सुधरना.. फिर भी कभी इस्‍तेमाल में लाये एक पुराने लिंक को फिर चिपका रहा हूं.. शायद बाकी लोगों के यह भी कुछ काम आये. लिंक कौल साहब के इधर-उधर से है..

आभा ने कहा…

उर्दू में लिखने की और हिन्दी में बोलने की ये समस्या तो है। क्या किया जाय इस अज्ञानता का! यही अच्छा है कि इरफ़ान भाई जैसे लोग गलतियों को हक सहित समझाने के लिए हैं।

पारुल "पुखराज" ने कहा…

वाह,बड़ी उपयोगी जानकारी

Manish Kumar ने कहा…

भाई इरफान का इशारा किन की ओर था ये तो वही जाने पर इस बात के लिए उन्हें श्रेय तो जाता ही है कि उन्होंने आपसे इतना बढ़िया लेख लिखवा दिया। जब मैं उर्दू फोरमों में शिरकत करता था तब भी वो लोग रमदान मुबारक कहते थे और मुझे समझ नहीं आता था कि ये माज़रा क्या है। आज जाकर समझ आया।
बहुत बहुत शुक्रिया मेरी अज्ञानता की कई खिड़कियों को खोलने का ।

बेनामी ने कहा…

अरबी ज़बान की ये सारी ध्वनियाँ जब फ़ारस पहुँची तो पारस के लोगों ने ‘न जाने क्यों’ (या बेशर्मी से?!) इन ध्वनियों को ठीक-ठीक नहीं ग्रहण किया और अरबी की ध्वनियों को ग़लत-सलत उच्चारित करना शुरु कर दिया.. जैसे रमदान को रमज़ान।

लैंग्वेजहैट समझा रहे हैं, क्यों.

Farid Khan ने कहा…

ह भी तीन तरह का होता है। भ घ छ आदि ध्वनियाँ फ़ारसी लिपि में चूंकि नहीं होती....इसलिए ब के साथ ह मिला कर उसे भ बना दिया गया... लेकिन समस्या फिर भी बनी रही।
अगर भार लिखना हो तो बे + हे + अलिफ़ + रे = भार
अब अगर बहार लिखना हो तो ? वही बे + हे + अलिफ़ + रे

इसके फ़र्क़ के लिए दो चश्मी हे और हे है । भार के भ के लिए दो चश्मी हे और बहार के ह के लिए छोटी हे।

अजित वडनेरकर ने कहा…

बढ़िया आलेख है। हिन्दी में नुक्तों की व्यवस्था नहीं है मगर उर्दू शब्दों के प्रयोग में अर्थ के अनर्थ से बचने के लिए इनका ध्यान रख लिया जाए तो बेहतर है। सामान्यजन से शुद्धता की उम्मीद करना बेकार है।

SHAKUNTALA ने कहा…

निर्मल जी मैं अभी उर्दू जानने का प्रयास प्रयास कर रही हूँ ऐसे समय में अचानक आपका लेख सुकून दे गया की मुझे कुछ भी नहीं आता तो क्या हुआ आप जैसे गुनी तो हैं सीखाने के लिए

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