टाइलर कोवेन की जिस किताब की चर्चा मैं इस ब्लॉग पर पहले भी कर चुका है, पिछले दिनों वह हासिल कर ली और आजकल पढ़ रहा हूँ। डिसकवर योर इनर इकॉनमिस्ट का एक रोचक अंश मुझे चर्चा करने लायक लगा..
पूँजीवाद का सबसे कम चर्चित गुण यह है कि वह कैसे अलग अलग तरह और जोड़ के ईनाम और जुर्माने को मिलाता-बिलाता है। पूँजीवाद सिर्फ़ डॉलर्स, डॉलर्स और और डॉलर्स ही नहीं है। मनुष्यता की भलाई के लिए आन्तरिक प्रेरणा को गोलबंद करने का यह सबसे अच्छा तंत्र है। और लोगों को (अपने जीवन पर) एक नियंत्रण के एहसास के लिए जगह बनाना भी इस में शामिल है।
कब प्रेरकों (इनसेन्टिव्स) को बदल दें और कब पैसे के बारे में सोचना बंद कर दें- यह जानने का नाम ही पूँजीवाद है। सोवियत संघ के साथ समस्या सिर्फ़ यह नहीं थी कि सकारात्मक प्रेरक बहुत कमज़ोर थे बल्कि नकारात्मक प्रेरक भी बहुत प्रबल थे। सोवियत संघ के अधिकतर लोगों के लिए ठीक-ठाक जीवन जीने का एकमात्र रास्ता कम्यूनिस्ट पार्टी के दफ़्तर से होकर जाता था। यह दबाव हर वक़्त था और ज़बरदस्त था। या तो आप चुन सकते थे पूरी तरह बाग़ी होना- जिसका अंत बेहद बुरा होता- या फिर सत्ता के पीछे भागना या कम से कम उसे बरदाश्त करने की ताब रखना। लगभग हर सामाजिक और आर्थिक फ़ैसला इस गणित से तय हो रहा था।
निश्चित ही यह एक बेहद बीमार प्रेरक था मगर समस्या कहीं और भी थी। आम तौर पर समझा जाता है कि प्रेरक-मुक्त (इनसेन्टिव फ़्री) व्यवहार के लिए सोवियत समाज ने पूँजीवाद से ज़्यादा अवसर प्रदान किए। (जबकि सच्चाई उलटी थी) राज्य द्वारा नियंत्रित अर्थव्यवस्था के चलते नए व्यापारिक योजनाओं को बनाने और लागू करने के लिए बहुत ही कम मौके मौजूद थे। गतिविधि का दायरा दोस्तियों और पारिवारिक सम्बन्धों तक सीमित था। जिसका नतीजा था इस दुनिया को बेहतर बनाने के लिए रचनात्मकता और मानवीय पूँजी का निवेश भी सीमित रहा।
और कम्यूनिज़्म (सोवियत संघ) के असफल होने का यह बड़ा कारण है।
कोवेन साहब की सोवियत संघ के बारे में कही गई बात काफ़ी तार्किक है। सब जानते हैं कि सोवियत काल में रूस कितना बंद और घुटन भरा समाज बन गया था.. मगर 'पैसे के बारे में सोचना बंद कर देने वाली' जिस अवस्था का ज़िक्र कोवेन कर रहे हैं वह उपभोक्ता के सिरे पर तो हो सकती है पर कम्पनियाँ ऐसी किसी अवस्था को मानती भी होंगी, शक़ है। उनका पूरा ज़ोर तो उन सारी उपयोगिताओं को भी बाज़ारू बना देने का है जो अभी तक खरीद-फ़रोख्त के दायरे से बाहर हैं।
क्या सौ साल पहले कोई कल्पना कर सकता था कि पानी बिकेगा? कल को हवा बिकेगी.. क्या आप आज मान सकते हैं? सार्वजनिक अधिकार की प्राकृतिक चीज़े? और क्या पृथ्वी के इन संसाधनो पर सिर्फ़ मनुष्य का अधिकार है? अन्य प्राणियों का क्या? और रही बात आज़ादी की.. पूँजीवाद हमेशा आज़ादी की बात करता है- उस आदमी की आज़ादी का क्या जो इस आर्थिक तंत्र का हिस्सा नहीं बनना चाहता.. वो पानी और हवा के लिए मोहताज बना रहेगा? क्या उसके जीने का हक़ खत्म हो जाएगा? क्या ये परिदृश्य आज मौजूद नहीं है?
मुझे दो बातें लगती है;
१) बिना पैसे के जो आनन्द हम लेते हैं उन्हे हमने पूँजीवाद से नहीं सीखा है बल्कि सच्चाई उलटी है पूँजीवादी मानसिकता हर चीज़ को पैसे से तौलने के चक्र में फँस जाती है। हो सकता है कि एक आदर्श पूँजीवादी समाज में यह सम्भव हो कि कम्पनियाँ यह तय करें कि कब पैसे के बारे में सोचना बंद कर दें। पर सम्भव तो बहुत कुछ आदर्श साम्यवादी समाज में भी है.. और मामला सम्भावनाओं का नहीं वास्तविकताओं का है।
२) सोवियत संघ की असफलता से पूँजीवाद की सफलता सिद्ध नहीं की जा सकती। पूँजीवाद आर्थिक सम्पदा को बढ़ाने में सफल रहा है और अभी भी उसके लिए बहुत जगह बनी हुई है पर आदमी की ज़िन्दगी को और इस दुनिया को बेहतर बनाने में वह कितना सफल हुआ है, इस पर बहुत बड़ा सवालिया निशान है।
4 टिप्पणियां:
बुनियादी सवाल हैं। लगातार सोच-विचार कर समझना ज़रूरी है।
अच्छी जानकारी दी.एक सुझाव है जब आप किसी पुस्तक के बारे में बतायें तो थोड़ी जानकारी और दें...मसलन उसका प्रकाशक , पृष्ठ संख्या व मूल्य. अभी पिछ्ले दिनों आपकी बतायी हुई ओरहान पामुक की स्नो देखी एक स्टाल में सोचा खरीद लूँ पर दाम 400 रुपया देख कर सोचा शायद इसकी इतनी वर्थ नहीं है इतनी..ये तो इससे सस्ती मिल ही जायेगी...
पूंजीवाद हो साम्यवाद दोनों में कोई भी पूर्ण नहीं है.इन पर लगातार विमर्श कर एक सर्वसहमति पर पहुंचना कठिन है लेकिन विमर्श जारी रहे.
बढ़िया है। आम आदमी के बारे में क्यों सोचते है ?किसी भी काल में , किसी भी व्यवस्था ने कभी नहीं सोचा। तमाम अच्छे बुरे दौरों से गुज़रने के बाद आज भी हर फिक्र इस बिंदु पर आकर टिकती है कि आम आदमी का क्या होगा ?
पूंजी कभी बुरी नहीं होती. लेकिन पूंजी ही निर्णायक हो जाए तो अर्थ अनर्थ बन जाता है.
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