हेगेल के विचार
विचारों और वस्तुओं की हर धारणा व अवस्था अपने विपरीत की दिशा में बढ़ती है और एक उच्चतर और जटिलतर इकाई बनाने के लिए उस विपरीत के साथ एकाकार हो जाती है ..
विकास की क्रिया विपरीत ध्रुवों के घुलने-मिलने की सतत प्रगति है। फ़िक्ते ने ठीक कहा था स्थापना (thesis), प्रतिस्थापना (antithesis) और (दोनों की) संश्लिष्ट प्रस्थापना (synthesis) ही हर विकास और हर यथार्थ का अन्तर्निहित समीकरण है..
न केवल विचार इस द्वन्द्वात्मक समीकरण के मुताबिक विकसित होते हैं बल्कि भौतिक यथार्थ भी। किसी भी मामले के भीतर एक अन्तरविरोध होता है जिसे विकास को हल करना होता है एक एकता मूलक समाधान के ज़रिये..
मस्तिष्क इस द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया, विपरीत ध्रुवों की एकता को समझने का एक अनिवार्य अंग है। मस्तिष्क का काम और दर्शन का उद्देश्य उस एकता को चीन्हना है जो विविधता में छिपी होती है; नीतिशास्त्र का उद्देश्य चरित्र और आचार को एकीकृत करना है; राजनीति का ध्येय व्यक्ति और राज्य को एक करना है; और धर्म का ध्येय उस परम सत्ता (absolute) तक पहुँचना और महसूस करना है जिसमें सारा विरोध, सारी प्रतिपक्षता, समरसता में बिला जाती है। इस पूरे जगत का वह कुल योग जिस में प्रत्यय और पदार्थ, वस्तुगत और मनोगत, अच्छा और बुरा सब एक है।
आदमी में परम सत्ता आत्मचेतना के रूप में उठती है और परम चेतना (absolute idea) बन जाती है- अर्थात, व्यक्तिगत सीमाओं और कारणों के परे जाकर और सार्वभौमिक संघर्ष के नीचे चीज़ों की आन्तरिक एकरसता को पहचानकर, विचार स्वयं को परम सत्ता का अंग जानकर बोध को प्राप्त हो जाता है। इस ब्रह्माण्ड का मूल तत्व चेतना (reason) ही है.. और जगत का ताना-बाना पूरी तरह से चेतन से बना है।
बुराई और संघर्ष सिर्फ़ कोई नकारात्मक कल्पना नहीं हैं। लेकिन समझदारी की नज़र से वे अच्छाई तक पहुँचने की एक मंज़िल है। संघर्ष विकास का नियम है। आदमी का चरित्र दुनिया के तनाव और तूफ़ान में पनपता है। और एक आदमी अपनी पूरी ऊँचाई तक सिर्फ़ पीड़ा, दबाव और दायित्वो से गुज़र कर ही पहुँचता है। दर्द का भी एक तार्किक आधार है- वो जीवन के होने की पहचान है और उसकी पुनर्रचना के लिए उद्दीपन है। चीज़ों की बौद्धिकता के बीच भावावेगों की भी एक जगह है। यहाँ तक कि नेपोलियन की तानाशाही महत्वाकांक्षा भी राष्ट्रों के विकास में एक संजीदा किरदार निभा जाती है। जीवन सिर्फ़ मज़े के लिए नहीं बल्कि कुछ हासिल करने के लिए है।
दुनिया का इतिहास आनन्द का नाट्यमंच कभी नहीं रहा है; खुशहाली के दौर उसकी किताब के खाली पन्ने हैं क्योंकि वे शांति के दौर रहे हैं जिनके भीतर की ऊब आदमी के योग्य नहीं। इतिहास सिर्फ़ उन दौरों में बनता है जबकि यथार्थ के अन्तरविरोध विकास के द्वारा हल हो रहे हों, जैसे कि यौवन के धक्के और धचके खा कर ही प्रौढ़ता की व्यवस्था के सुकून में जाया जा सकता है।
इतिहास एक द्वन्द्वात्मक गति है, जैसे क्रांतियों की एक लड़ी लगभग, जिसमें एक जन के बाद दूसरे जन और प्रतिभा के बाद दूसरी प्रतिभा परम सत्ता (absolute) का औजार बनती चलती है। महान हस्तियाँ खुद भविष्य के जनक होने से ज़्यादा भविष्य की दाईयाँ होते हैं। वे जो सामने ले कर आते हैं उसे जन्म तो ज़ाइटगेस्ट (युग-चेतना) देती है। प्रतिभावान लोग बाकी सभी की ही तरह ढेरी के ऊपर एक पत्थर बस रखते हैं बस उनका भाग्य इसमें निहित होता है कि वे ऐसा करने वाले आखिरी व्यक्ति होते हैं और उनके पत्थर रखने के बाद ढेर गिरता नहीं खड़ा रहता है।
ऐसे लोगों को उस बड़े विचार की कोई चेतना नहीं होती वे जिसके ऊपर से परदा हटा रहे होते हैं.. लेकिन उन्हे अपने समय की ज़रूरत की अन्तर्दृष्टि होती है- कि क्या पक कर तैयार हो चुका था। जो उनके अपने समय का, उनकी दुनिया का सच था- आगे आने वाली प्रजाति का सच जो समय के गर्भाशय में पहले ही विकसित हो चुकी थी।
इतिहास का ऐसा दर्शन क्रांतिकारी निष्कर्षों की ओर ले जाता है। द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया जीवन के मूलभूत नियम में बदलाव ले आती है। कोई भी बदलाव स्थायी नहीं है। चीज़ों की हर अवस्था में एक अन्तरविरोध है जिसे केवल दो विरोधी शक्तियों का संघर्ष ही हल कर सकता है।
(विल ड्यूरां की किताब 'हिस्ट्री ऑफ़ फिलॉसफ़ी' के अंश पर आधारित)
इतिहास के द्वन्द्वात्मक विकास के हेगेल के इसी दर्शन के आधार पर मार्क्स ने अपना ऐतिहासिक द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धान्त खड़ा किया। मार्क्स ने परमसत्ता के बदले आर्थिक बदलावों और जनान्दोलनों को हर मूलभूत बदलाव का केन्द्रीय कारण माना। उनके अनुसार हेगेल उल्टे खड़े होकर दुनिया को देख रहे थे और मार्क्स ने उनकी दृष्टि को पलट भर दिया और दुनिया की सही शक्ल ज़ाहिर हो गई।
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