मंगलवार, 15 जनवरी 2008

काम चलाने की मानसिकता

छोटे शहरों में सार्वजनिक आयामों का ऐसा हाल क्यों है जैसा कि है? सड़कों की, नालियों की, खेल के मैदानों की यहाँ तक कि अपने रहने के मकानों तक की कोई चिंता नहीं करता.. सब लोग किसी तरह काम चला लेते हैं। घर के ठीक सामने नालियाँ कीच से बजबजाती रहती हैं और लोग उन्हे साफ़ करने-कराने का कोई यत्न नहीं करते! क्यों? इस काम-चलाऊ मानसिकता का कारण क्या है? क्या इसलिए कि यह किसी और का काम है? और वे किसी और के काम में दखल न देने वाली नागरिक-नैतिकता रखते हैं? क्या मुम्बई जैसे बड़े शहरों के पुराने इलाक़ों में भी यही तस्वीर है? नहीं..!

शायद आप ने पिछले दिनों पढ़ा हो कि बान्द्रा ईस्ट के एम आई जी मैदान को लेकर क्लब की अधिकारियों और नागरिकों के बीच एक झगड़ा चल रहा है.. अभी हाल यह है कि मैदान को कुछ निश्चित घंटों के लिए ही आम नागरिकों के लिए खोला जाता है। बाकी समय मैदान को रणजी ट्रॉफ़ी के मैचेस, कुछ सांस्कृतिक आयोजन वगैरह के लिए किराये पर दे दिया जाता है जो क्लब की आय का एक मात्र स्रोत है।

पर नागरिकों का मानना है कि इसके चलते इलाक़े के बच्चे अपने खेलने के मैदान से वंचित हो रहे हैं। और वे खेल के मैदान को क्लब के अधिकार से निकाल कर सार्वजनिक दायरे में लाना चाहते हैं। क्लब वाले कह रहे हैं कि उन्होने मैदान को महाडा से खरीद लिया है और नागरिक सकते में हैं कि ये कब हुआ कैसे हुआ? और उनके बीच लड़ाई जारी है!

मेरा सवाल है कि क्या ऐसी लड़ाई किसी छोटे शहर या क़स्बे में मुमकिन है? अगर नहीं तो क्यों नहीं? अभी पिछले दिनों मैं कानपुर गया हुआ था जहाँ मेरे बचपन का एक बड़ा हिस्सा गुज़रा है। बचपन में मैं साकेत नगर के जिस मकान में रहा करता था उसे फिर से देखने जा पहुँचा। उस मकान में कोई बदलाव नहीं आया यह देख कर मुझे थोड़ी हैरानी हुई मगर ज़्यादा हैरानी इस बात से हुई कि सामने की सड़क और मैदान में भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ।

वो आज भी वैसे ही ऊबड़-खाबड़ और उजाड़ पड़ा हुआ है झाड़ियों और पत्थरों से भरा हुआ कि जिसे देखकर आप के भीतर खेलने की कोई उमंग नहीं जागेगी। क्या यहाँ रहने वाले बच्चों को खेलने की कोई ज़रूरत नहीं? या उनके माँ-बाप इस बारे में सचेत नहीं? और अगर सचेत हैं तो कुछ करते क्यों नहीं? क्या उनके पास समय नहीं है? ऊर्जा नहीं है? क्या बात है?

मेरा अपना ख्याल यह है कि मुम्बई और कानपुर में फ़र्क गाँव से जुड़ाव का है। लोग छोटे शहरों में रहते हुए भी कभी पूरी तरह से मान नहीं पाते कि उन्हे स्थायी तौर पर यहीं रहना है। वे लगातार एक विस्थापित मानसिकता में ही बने रहते हैं। वे महज आर्थिक कारणों से गाँव छोड़कर शहर आए होते हैं और अपने शहरी-निवास को एक प्रवास मानकर बने रहते हैं एक अस्थायी मानसिकता में।

दूसरी बात जो मुझे लगती है कि चूँकि ज़्यादातर शहर मूलतः अंग्रेज़ों के द्वारा बनाए-बसाए गए हैं तो शहर में रहने वाले हिन्दुस्तानी एक पराये आयाम में परदेसी मानसिकता से रहते हैं। दूसरे की बनाई संरचना में अपने योगदान की बात, अपनी रचनात्मकता की बात वे नहीं सोचते। मुम्बई जैसे महानगर के इन इलाक़ों में लोगों के भीतर एक स्थायित्व आया है.. अब यहीं रहना है, कहीं और नहीं जाना, न आगे न पीछे। तो अपने आस-पास पर अपने अधिकार का दावा पेश करते हैं.. और अपने योगदान के प्रति सजग होते हैं।

आप का क्या खयाल है?

8 टिप्‍पणियां:

Pratyaksha ने कहा…

कल अखबार में एक खबर थी , गुड़गाँव दिल्ली एक्स्प्रेसवे तैयार पर किसी वी आई पी द्वारा उद्घाटन के लिये रुका , चालू नहीं हुआ । कम्यूटर्स की दुर्दशा बरकरार । आज के अखबार में .. सौ लोगों की भीड ने नारियल फोड़ा और स्वयं ही हाईवे का उद्घाटन कर दिया । NHAI के आधिकारियों ने रोकने की कोशिश की पर नाकाम । आम जनता द्वारा आम जनता के लिये ।

मीनाक्षी ने कहा…

छोटे शहरों और गाँवों में रहने वालों की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी इतनी आसान नहीं है जितनी महानगरों की. समय आने पर इन्हीं छोटे शहर और गाँवों के लोग एक जुट होकर समय आने पर उस मैदान को साफ कर बैठने लायक बना लेते हैं. यह मैंने अम्बाला शहर और उससे कुछ दूर के एक गाँव में देखा है.

azdak ने कहा…

ओह, लड़कियां-औरतें व्‍हाटेवर इतनी समझदार होती हैं.. कैसे हो जाती हें?

Manjit Thakur ने कहा…

महोदय, इसको विशुद्ध हिंदी में कहते हैं तदर्थवाद और अंग्रेजी में तो पता नहीं एडहॉक सिस्टम या पता नहीं क्या ्ल्लम-गल्लम कहते हैं। लेकिन काम चला लेने की यही मानसिकता है , जिसने भारत के चला रखा है। बीस साल से मरम्मत को बिलख रही सड़कों से काम चल रहा है, घर में पानी घुस आता है, पर काम चल रहा है। बीवी पड़ोसी की अच्छी लगती है, पर काम अपनी बीवी से ही चलाना पड़ता है ना।( आखिरी उदाहरण आपके दुखी मन की उदासी को दूर करने के प्रयास के तहत जबरन लिखा है।)

ghughutibasuti ने कहा…

हाँ, यह मानसिकता हममें बहुत गहरे तक बैठी हुई है । हम पढ़ाई उतनी ही करते हैं जिससे काम चल जाए, नौकरी में मेहनत उतनी ही करते हैं जिससे नौकरी बनी रहे, अपने परिवार पर ध्यान भी उतना ही देते हैं कि बस परिवार विवाह टूटने की स्थिति ना आए । कहीं ऐसा तो नहीं है कि यह भारतीय दर्शन का हिस्सा है । जितना है, जैसा है उससे काम चलाओ । एक और बात, हम कीचड़ में कमल बन अपने को व अपने घर को साफ रख लेते हैं, आसपास की सड़को, मैदानों से हमारा कोई लगाव नहीं । हम निर्लिप्त भाव से जीते हैं ।
घुघूती बासूती

Manish Kumar ने कहा…

अच्छा विषय उठाया है आपने मुझे लगता है कि ये समस्या अपने शहर में अस्थायी जिंदगी का अहसास रहने की वज़ह से कहीं ज्यादा ये दूसरों का काम है वाली मानसिकता की वज़ह से है। बड़ी बड़ी अट्टालिकाओं के मकान मालिक की कार भी जब बजबजाती सड़क से गुजरकर मौजैक पोर्टिको तक पहुंचती है तो उतनी देर को वो नाक के अंदर कपड़ा डाल कर वर्षों तक गुजार लेता है.
आम जनता भी अपने आस पास के शहर को गंदा करने में कोई कसर नहीं रखती। बस घर के आहाते को चमका लिया गली मोहल्ला जाए भाड़ में। हालांकि गंदगी का सारा दोष सरकार डालने में भी ये पीछे नहीं रहते.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

अब सवाल ये है ..

कौन पहला कदम चलेगा ?

सरकार या जनता ?

अजित वडनेरकर ने कहा…

अपना भी वही खयाल है जो आपका है। टालने की वृत्ति, ठेलने के वृत्ति, बचने की वृत्ति, अनदेखी की वृत्ति और न जाने क्या क्या बीमारियां घर कर गई हैं भारतीय समाज में।
सहकार का सर्वथा अभाव क्या प्रजातंत्र की देन है ? सब कुछ करे सरकार, हमें कुछ नहीं करना । वोट तो दे ही दिया है....

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