ये तस्वीर है कानपुर के मशहूर कल्लू चाटवाले के बेटे कमलेश की। नवाबगंज की पतली सी सड़क के एक पुराने मकान के नीचे बरामदे में यह दुकान पिछले पैंतालिस पचास साल से चल रही है। इस दुकान के खुलने का समय शाम चार-पाँच बजे से लेकर चाट के खत्म हो जाने तक है।
और कल्लू की चाट खतम होने में देर नहीं लगती.. ऐसा अकसर होता है कि आप पाँच बजे पहुंचे और बैंगनी खत्म हो चुकी है। इसलिए नहीं कि एक-डेढ़ घंटे के भीतर भीड़ ने सारी बैंगनियाँ लूट लीं बल्कि इसलिए कि कल्लू और कमलेश सालों से उतनी ही चाट बनाते हैं गिन के। जिस दिन मैं गया तो बताशे और टिक्की नहीं थी; कल्लू की तबियत ठीक नहीं थी तो वे नहीं बैठे।
सोचिये.. ऐसा कहाँ होता है आजकल? कोई प्रतियोगिता की होड़ नहीं, आगे निकल कर महल खड़े करने की कोई धक्का-मुक्की नहीं.. कोई प्रचार नहीं.. यहाँ तक कि कोई बोर्ड भी नहीं। बस एक सरल सहज गति से जीवनयापन। जबकि उनको पता है कि लोग क्या सोचते हैं उनकी चाट के बारे में। लोग कल्लू की चाट खाने दूर-दूर से तो आते ही हैं और साथ ही उनके नाम की कसमें भी खाते हैं और कहते हैं कि कल्लू कानपुर की सबसे अच्छी चाट बनाने वाले हैं।
मैंने भी खाई कल्लू की कचौडि़याँ और शिमला(मिर्च) इस बार। बावजूद इसके कि मैं पिछले लगभग बरस भर से मिर्च-मसालों से दूर संयमित भोजन कर रहा हूँ.. मेरा मुँह नहीं जला और पेट भी पचा गया। ज़रूर अपने शेष चरित्र के अनुकूल कल्लू अपनी चाट में बेकार के हानिकारक पदार्थों का इस्तेमाल नहीं करते होंगे।
ऐसे सरल-सहज कारीगरों-कलाकारों का क्या होगा बाज़ार की इस मॉलीय संस्कृति के दौर में..? क्या इनका जीवन-दर्शन एक दम बिला जाएगा? क्या आने वाली पीढ़ियाँ कल्लू जैसों की चाट का स्वाद नहीं सिर्फ़ मैकडोनाल्ड के बर्गर और केन्टकी के फ़्राइड चिकेन ही जानेगी?
10 टिप्पणियां:
हाय....चाट आपने खाई और मिर्ची हमें लग रही है, जबलपुर, सागर, भोपाल, इलाहाबाद, आगरा ग़रज़ ये कि हर शहर में ऐसे कल्लू हैं जो बिना प्रचार के अपनी दुकान सजाए हैं और कामयाब हैं । सारा शहर उमड़ता है ऐसी जगहों पर । हमें उन तमाम ठिकानों की याद आ गयी ।
अकेले अकेले चाट खा कर पचा भी गये और बता कर जला भी रहे हो...हाजमा ज्यादा ही अच्छा है...:)
कल्लू की कचौडियाँ और शिमला(मिर्च) । बिलकुल सही फरमाया आपने। ये चाट ही नहीं और भी खाद्य अच्छे होते हैं बड़े कंपनियों के माल से।
बहुत प्यारी पोस्ट लिखी है अभय भाई। एक दम कल्लू की चाट सी स्वादिष्ट जिसे बिना सतर्क हुए या सावधानी बरते खाया जा सके। सच कहते हैं यूनुस भाई। हर शहर में हैं कल्लू और किसी भी नए शहर में जाने पर पहली फुर्सत में इन्हें ही खोजने निकल पड़ता हूं मैं।
हाय ऐसा जुलुम न किया कीजिए. कम से कम फोटो तो न लगाते. अब क्या करें हमारे शहर में ऐसा कोई कल्लू भी नहीं....वैसे जानकर अच्छा लगा कि कहीं तो ऐसी चाट मिलती है जिसे बेफिक्र होकर खाया जा सके.
चाट के शौकीन तो हम भी है प्रभु। कानपुर मे कभी पी रोड पर हनुमान की चाट या बिरहाना रोड पर शंकर के गोलगप्पे खाए है कभी? इन लोगो ने भी कभी अपनी क्वालिटी से कम्प्रोमाइज नही किया। महंगाई बढती गयी, इनके रेट भी, लेकिन ग्राहकों की कभी कमी नही रही।
आजकल मिर्ची से एकदम दूर हूँ, लेकिन फिर भी चाट का ठेला देखकर मन मचल मचल जाता है।
प्रमोदजी की तरह हम भी कहेंगे,
आपके शहर की सारी चाट की दुकाने बंद हो जाये, किताबों की अलमारी में दीमक, चूहे सब घुस जायें :-)
यहाँ पेट पर पट्टी बाँधकर और पानी पीकर सोना पडता है अक्सर और आप चाट, टिक्की, गोलगप्पों और कचौडियों की बात कर रहे हो ।
जहां तक पसंद का सवाल है, मुझे चाट, गोलगप्पे बिल्कुल पसंद नहीं, इसलिए आपका लेख पढ़कर न मेरे मुंह में पानी आ रहा है और न ही आपसे ईर्ष्या हो रही है। मुझे याद नहीं कि मैंने कभी अपने इनिशिएटिव पर चाट या गोलगप्पा खाया हो। कोई खिला दे तो बात अलग है।
और वो बिना किसी प्रतियोंगिता के जीवन की सहज गति, बहुत कुछ और भी सोचने पर मजबूर करती है। पहले मुझे लगता था कि पैसा कमाने या आगे बढ़ने की किसी इंसान की जरूरत आखिर कितनी हो सकती है। अगर किसी कंपनी का सालाना टर्नओवर 10 करोड़ का है, तो क्या खुश रहने और शांति से जीने के लिए इतना काफी नहीं है। लोग क्यूं, 10 का 100 करोड़, 100 करोड़ का 1000 करोड़ और 1000 करोड़ एक लाख करोड़ बनाने के पीछे पागल रहते हैं। लेकिन शायद यह काफी भोली सोच थी, जिसका ठोस वस्तुगत यथार्थ से लेना-देना नहीं। पूंजीवाद का यही नियम है, और नए ग्लोबलाइज्ड मुक्त बाजार में यह अपने चरम पर है कि पूंजी लगातार दुगुनी-तिगुनी होती जाए। नहीं होगी, तो बाजार में अपना अस्तित्व बचाकर नहीं रख पाएगी। ज्यादा बड़ी पूंजी उसे लील लेंगी। यह प्रतियोगिता पूंजीवाद से वैसे ही संबद्ध है, जैसे सूरज से रोशनी या गाय से उसकी पूंछ।
कल्लू चाट वाला इस मुक्त बाजार का हिस्सा नहीं है। चार और चाट वाले उसकी बगल में दुकान खोलकर उससे बढि़या, पॉलिश्ड माल बेचने लगें तो शायद कुछ हरकत हो।
खासकर पूरे उत्तार भारत का हर शहर-कस्बा ऐसे स्वाद के उस्तादों से समृद्ध है। हर बार मुज़फ़्फ़रनगर जाकर घूम-घूमकर परहेज तोड़ता हूँ। बदकिस्मती यह है कि गली-मोहल्लों के दुर्लभ स्वाद वाली दुकानें नई पीढ़ी के लड़के-लड़कियों का आकर्षण नहीं बन रही हैं। वे जाने किस बताए गए स्वाद के फैशन में बर्गर टाइप ठिकानों पर जाने लगे हैं।
बनारस या किसी भी शहर में जाकर ऐसी पुरानी दुकानों का पता कर वहां पहुंचना बड़ा सुकून देता है। बनारस में भी यही किया था। कलकत्ते में कुछ धक्के खाये। कानपुर जाना होता है तो में कल्लू भाई की चाट और बाकी आप लोगों से पूछताछ करने के बाद।
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