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सोमवार, 28 जनवरी 2008

इतिहास की द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया

हेगेल के विचार

विचारों और वस्तुओं की हर धारणा व अवस्था अपने विपरीत की दिशा में बढ़ती है और एक उच्चतर और जटिलतर इकाई बनाने के लिए उस विपरीत के साथ एकाकार हो जाती है ..
विकास की क्रिया विपरीत ध्रुवों के घुलने-मिलने की सतत प्रगति है। फ़िक्ते ने ठीक कहा था स्थापना (thesis), प्रतिस्थापना (antithesis) और (दोनों की) संश्लिष्ट प्रस्थापना (synthesis) ही हर विकास और हर यथार्थ का अन्तर्निहित समीकरण है..

न केवल विचार इस द्वन्द्वात्मक समीकरण के मुताबिक विकसित होते हैं बल्कि भौतिक यथार्थ भी। किसी भी मामले के भीतर एक अन्तरविरोध होता है जिसे विकास को हल करना होता है एक एकता मूलक समाधान के ज़रिये..

मस्तिष्क इस द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया, विपरीत ध्रुवों की एकता को समझने का एक अनिवार्य अंग है। मस्तिष्क का काम और दर्शन का उद्देश्य उस एकता को चीन्हना है जो विविधता में छिपी होती है; नीतिशास्त्र का उद्देश्य चरित्र और आचार को एकीकृत करना है; राजनीति का ध्येय व्यक्ति और राज्य को एक करना है; और धर्म का ध्येय उस परम सत्ता (absolute) तक पहुँचना और महसूस करना है जिसमें सारा विरोध, सारी प्रतिपक्षता, समरसता में बिला जाती है। इस पूरे जगत का वह कुल योग जिस में प्रत्यय और पदार्थ, वस्तुगत और मनोगत, अच्छा और बुरा सब एक है।

आदमी में परम सत्ता आत्मचेतना के रूप में उठती है और परम चेतना (absolute idea) बन जाती है- अर्थात, व्यक्तिगत सीमाओं और कारणों के परे जाकर और सार्वभौमिक संघर्ष के नीचे चीज़ों की आन्तरिक एकरसता को पहचानकर, विचार स्वयं को परम सत्ता का अंग जानकर बोध को प्राप्त हो जाता है। इस ब्रह्माण्ड का मूल तत्व चेतना (reason) ही है.. और जगत का ताना-बाना पूरी तरह से चेतन से बना है।

बुराई और संघर्ष सिर्फ़ कोई नकारात्मक कल्पना नहीं हैं। लेकिन समझदारी की नज़र से वे अच्छाई तक पहुँचने की एक मंज़िल है। संघर्ष विकास का नियम है। आदमी का चरित्र दुनिया के तनाव और तूफ़ान में पनपता है। और एक आदमी अपनी पूरी ऊँचाई तक सिर्फ़ पीड़ा, दबाव और दायित्वो से गुज़र कर ही पहुँचता है। दर्द का भी एक तार्किक आधार है- वो जीवन के होने की पहचान है और उसकी पुनर्रचना के लिए उद्दीपन है। चीज़ों की बौद्धिकता के बीच भावावेगों की भी एक जगह है। यहाँ तक कि नेपोलियन की तानाशाही महत्वाकांक्षा भी राष्ट्रों के विकास में एक संजीदा किरदार निभा जाती है। जीवन सिर्फ़ मज़े के लिए नहीं बल्कि कुछ हासिल करने के लिए है।

दुनिया का इतिहास आनन्द का नाट्यमंच कभी नहीं रहा है; खुशहाली के दौर उसकी किताब के खाली पन्ने हैं क्योंकि वे शांति के दौर रहे हैं जिनके भीतर की ऊब आदमी के योग्य नहीं। इतिहास सिर्फ़ उन दौरों में बनता है जबकि यथार्थ के अन्तरविरोध विकास के द्वारा हल हो रहे हों, जैसे कि यौवन के धक्के और धचके खा कर ही प्रौढ़ता की व्यवस्था के सुकून में जाया जा सकता है।

इतिहास एक द्वन्द्वात्मक गति है, जैसे क्रांतियों की एक लड़ी लगभग, जिसमें एक जन के बाद दूसरे जन और प्रतिभा के बाद दूसरी प्रतिभा परम सत्ता (absolute) का औजार बनती चलती है। महान हस्तियाँ खुद भविष्य के जनक होने से ज़्यादा भविष्य की दाईयाँ होते हैं। वे जो सामने ले कर आते हैं उसे जन्म तो ज़ाइटगेस्ट (युग-चेतना) देती है। प्रतिभावान लोग बाकी सभी की ही तरह ढेरी के ऊपर एक पत्थर बस रखते हैं बस उनका भाग्य इसमें निहित होता है कि वे ऐसा करने वाले आखिरी व्यक्ति होते हैं और उनके पत्थर रखने के बाद ढेर गिरता नहीं खड़ा रहता है।

ऐसे लोगों को उस बड़े विचार की कोई चेतना नहीं होती वे जिसके ऊपर से परदा हटा रहे होते हैं.. लेकिन उन्हे अपने समय की ज़रूरत की अन्तर्दृष्टि होती है- कि क्या पक कर तैयार हो चुका था। जो उनके अपने समय का, उनकी दुनिया का सच था- आगे आने वाली प्रजाति का सच जो समय के गर्भाशय में पहले ही विकसित हो चुकी थी।

इतिहास का ऐसा दर्शन क्रांतिकारी निष्कर्षों की ओर ले जाता है। द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया जीवन के मूलभूत नियम में बदलाव ले आती है। कोई भी बदलाव स्थायी नहीं है। चीज़ों की हर अवस्था में एक अन्तरविरोध है जिसे केवल दो विरोधी शक्तियों का संघर्ष ही हल कर सकता है।



(विल ड्यूरां की किताब 'हिस्ट्री ऑफ़ फिलॉसफ़ी' के अंश पर आधारित)




इतिहास के द्वन्द्वात्मक विकास के हेगेल के इसी दर्शन के आधार पर मार्क्स ने अपना ऐतिहासिक द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धान्त खड़ा किया। मार्क्स ने परमसत्ता के बदले आर्थिक बदलावों और जनान्दोलनों को हर मूलभूत बदलाव का केन्द्रीय कारण माना। उनके अनुसार हेगेल उल्टे खड़े होकर दुनिया को देख रहे थे और मार्क्स ने उनकी दृष्टि को पलट भर दिया और दुनिया की सही शक्ल ज़ाहिर हो गई।

बुधवार, 22 अगस्त 2007

कब होगी क्रांति?

पिछले दिनों मैंने अपनी एक पोस्ट में बाबा मार्क्स की उस बात में आस्था व्यक्त की जिसमें उन्होने उम्मीद जताई थी कि सबसे पहले मज़दूर क्रांति इंग्लैंड/जर्मनी में आएगी क्योंकि वह (उस काल का) सबसे औद्योगिक रूप से विकसित देश है। तो अविकसित और विकासशील देशों के हाल-चाल और भूत काल में उनके भीतर हुए समाजवाद के प्रयोगों की असफलता को ध्यान में रखकर मैंने लेनिन को किनारे करते हुए मार्क्स की बात के मर्म को पहचाना। पर आज उसी मसले पर फ़रीद के साथ चर्चा करते हुए लगा कि सबसे विकसित देश में पहले क्रांति होने वाली यह बात अब शायद प्रासंगिक नहीं रह गई।

दुनिया डेढ़ सौ साल में बहुत बदल गई है। दुनिया का एक हिस्सा दूसरे हिस्से के बेहद करीब आ गया है। 'देश' के आयाम में कोई फ़र्क नहीं आया है मगर 'काल' का आयाम सिकुड़ गया है। एक हिस्से का दूसरे पर प्रभाव पहले भी पड़ता था। अब भी पड़ता है। मगर जो प्रभाव प्राचीन काल में हजार बरस में पड़ता, मध्यकाल में दस साल में पड़ता, आज के समय में वही प्रभाव दस दिन से भी कम समय में पड़ सकता है। कुछ प्रभाव तो साथ-साथ ही पड़ते हैं।
ऐसे में किसी एक विकसित व परिपक्व हो गए हिस्से में क्रांति हो भी गई, तो क्या? दूसरे अपरिपक्व हिस्से उस पर प्रतिक्रिया करेंगे। तत्काल प्रतिक्रिया। और क्रांति को विफल कर देंगे। एक देश के भीतर तो ऐसे प्रयास होते रहे हैं। और स्वतंत्र राज्यों की 'क्रांति' को विफल करने के भी प्रयास किए जाते रहे हैं, अमरीका द्वारा वियतनाम और निकारागुआ जैसे तमाम अन्य देशों में। या तत्कालीन सोवियत रूस द्वारा प्रतिक्रांति(!) को विफल करने की चेकोस्लावाकिया और अफ़गानिस्तान में की कोशिशें भी ऐसी ही प्रतिक्रिया का उदाहरण रही हैं।

यानी जब तक यह समूचा विश्व एक साथ क्रांति के लिए परिपक्व नहीं हो जाता। तार्किक तौर पर क्रांति नहीं हो सकती। मतलब क्रांति तभी होगी जब पूरा विश्व एकरस हो जाएगा। और एकरस तो होना निश्चित है। पूँजीवादी बाज़ार का जो आक्रामक तेवर अभी दुनिया में चल रहा है, उसे देख कर दूर-दूर के इलाक़ो का भी आमूल-चूल परिवर्तन होना तय दिख रहा है। इस प्रक्रिया में पर्यावरण, वन्य-जीवन, लोक-परम्परा और परिपाटियों के नाश का एक आसन्न खतरा भी साफ़ नज़र आता है। देखना होगा कि प्रतिरोधी शक्तियाँ कितना बदल पाती हैं बाज़ार के इस विनाशकारी मिज़ाज को।
इतना सब हो चुकने के बाद जो भी नुची-खुची या अतिसमृद्ध जो भी दुनिया होगी उसके भीतर साधनों और सम्पदा के साझे अधिकार की समझ को व्यवस्था में नीतिबद्ध कर देने की प्रक्रिया के लिए क्या किसी रक्तपात की आवश्यक्ता होगी? और उस सूरत में इस प्रकार के अवस्था-परिवर्तन को क्या क्रांति कहना उचित होगा?

मंगलवार, 14 अगस्त 2007

मज़दूर होने की आज़ादी?

कल हमारे स्वतंत्रता दिवस की साठवीं वर्षगाँठ है.. अंग्रेज़ी में Independence Day.. इन शब्दों में ही हमारी स्वतंत्रता की असलियत छिपी है.. हमारा देश न अकेले अपने तंत्र से चल रहा है.. न ही Independent है.. अब पूरा विश्व एक तंत्र की तरह विकसित हो रहा है.. और उसमें अलग अलग देशों की Independence के बजाय inter-dependence की तरफ़ झुकाव बढ़ता जा रहा है.. बावजूद इसके कि अमेरिका अपनी दादागिरी किए जा रहा है, विश्व एक ऐसी इकाई के रूप में विकसित हो रहा है जिसके अलग अलग हिस्सों में भयानक विरूपता है.. मेरे जैसे इस का विरोध करने वालों का विरोध इस वैश्वीकरण से नहीं बल्कि इस विरूपता से है.. जो हमें स्वतंत्र तो नहीं ही छोड़ रही और साथ साथ एक ऐसे तंत्र के हवाले कर रही है जो न सिर्फ़ क्रूर है बल्कि बेढंगा है..

हमारी स्वतंत्रता का दूसरा पहलू आज़ादी है.. वैयक्तिक आज़ादी.. इस विषय पर मैं बाबा मार्क्स को याद करना चाहूँगा.. हम एक समाज की ओर बढ़ रहे हैं जिसमें ज़्यादा से ज़्यादा लोग धीरे धीरे मज़दूर बनते जा रहे हैं.. आई टी सेक्टर में काम करने वाला भी मज़दूर है और एक बड़े अस्पताल में काम करने वाला डॉक्टर भी.. मेरे जैसा एक लेखक भी.. और अनूप जी जैसे अफ़सर भी.. मेरी एक पिछली पोस्ट में भी मैंने बाबा को याद किया तो पोस्ट की मूल बात से तो बड़े भाई ज्ञान जी खूब सहमत हुए मगर बाबा मार्क्स को बिल्कुल नकार दिया.. मेरा ख्याल है कि बाबा को गलत समझा जा रहा है.. बाबा मार्क्स एक कमाल के दिमाग के स्वामी थे.. उनकी बारे में कोई भी राय उनको पढ़ कर लगनी चाहिये न कि उन के समर्थकों को देख-पढ़कर.. आज कल के हमारे देश के कम्यूनिस्टों को देखकर तो कतई कोई राय बाबा के बारे में न बनायें.. नहीं तो ये वैसा ही होगा जैसे कि कोई भक्तों को भड़ैती देखकर भगवान को नकार दें..१८४४ में रचित इकोनोमिक एंड फिलॉसॉफ़िकल मैन्यूस्क्रिप्ट से यह अंश समझने योग्य है..

..मज़दूरी मज़दूर के लिए बाहरी है(आन्तरिक नहीं)-- यानी यह उसके मूल अस्तित्व से नहीं उपजती; ऐसे कि मज़दूर अपने काम में अपने आप को पुनर्स्थापित नहीं करता बल्कि नकारता है, खुश नहीं होता दुख पाता है, स्वतंत्र मानसिक और शारीरिक ऊर्जा विकसित नहीं करता बल्कि अपने हाड़-मांस को दफ़नाता है और दिमाग को नष्ट करता है। इसलिए मज़दूर अपने अस्तित्व को तभी महसूस कर पाता है जब वह काम नहीं कर रहा हो; जब वह काम कर रहा होता है, वह अपने को महसूस नहीं करता। वह जब काम नहीं कर रहा तो चैन से(रिलैक्स्ड) है और जब काम कर रहा है तो राहत नहीं है(तनाव में है)। क्योंकि उसका श्रम उसकी मरज़ी का नहीं है बल्कि थोपा हुआ है। और इसलिए यह किसी ज़रूरत का शमन नहीं बल्कि इस काम से अलग की ज़रूरतो को बुझाने का एक साधन मात्र है। इसका अलगाव वाला गुण इस बात से साफ़ ज़ाहिर हो जाता है कि जैसे ही कोई भौतिक या दूसरा दबाव नहीं रहता, कोई भी मज़दूरी नहीं करना चाहता। थोपी हुई मज़दूरी, वह मज़दूरी जिस में आदमी अपने आप से अलगाव महसूस करता है, वह मज़दूरी है जिसमें अपने ही हाड़-मांस की बलि दी जाती है, उसे दफ़नाया जाता है। इस मज़दूरी का बाहरी स्वभाव इस बात से भी ज़ाहिर होता है कि इस पर मज़दूर का नहीं बल्कि दूसरे का अधिकार होता है.. उस से मज़दूर के अपनेपन की हानि होती है..

अब बताइये कितने लोग हैं जिन पर यह बात लागू नहीं होती..? मगर इसी बेरहम दुनिया में हमारी आज़ादी के भी बीज छिपे हुए हैं.. जैसे ये हमारा ब्लॉग.. ये हम किसी के दबाव में नहीं लिखते.. जो मन आता है लिखते हैं.. कुछ लोगों को टिप्पणियों का दबाव लगता होगा.. मगर आप टिप्पणी करने के लिए किसी को मजबूर नहीं कर सकते.. ये एक ऐसी सामाजिक सीमा है जिसका अतिक्रमण आप किसी आदर्श समाज में भी नहीं कर सकते.. साम्यवाद में भी नहीं.. आप किसी स्त्री/पुरुष से प्रेम करने के लिए तो स्वतंत्र है पर उसे वापस प्रेम करने के लिए बाध्य नहीं कर सकते.. ये हमारी आज़ादी की सीमा है..

हमारा जीवन का अधिकतर समय ऐसी गतिविधि में जाता है जिसे हम बाध्यता में कर रहे होते हैं.. मज़दूर हो या अफ़सर, एक बाध्यता बनी रहती है.. ज्ञान जी अफ़सरी के ठाठ का आनन्द तो लेते होंगे मगर रोज़ सवेरे-सवेरे उठ कर दफ़्तर जाकर गाड़ियों का संचालन करना उनके आदर्श दिन की रूपरेखा न होगा.. पर ब्लॉग तो वह किसी के निर्देश पर किसी दबाव में नहीं लिखते.. अपनी मौज अपनी आज़ादी से लिखते हैं..

हम सब के जीवन में ऐसी फ़ुरसत और आज़ादी और और आए ऐसी कामना करता हूँ..

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