प्रमोद भाई बता रहे हैं कि मेरा नाम लेकर लोगों का मुँह कड़वा रहा है। मुझे इस का बड़ा खेद है कि लोकप्रिय होने की मूर्खतापूर्ण इच्छा को धकिया कर बाहर नहीं कर सका हूँ दिल से। इसी इच्छा के तहत यह पोस्ट- बहुत कड़वाहट फैला ली अब थोड़ा मीठा होना चाहता हूँ। वैसे भी आयुर्वेद बताता है कि पित्त का शमन मधुर रस से हो जाता है।
सर्दियों में कानपुर जाने के लिए घरवालों से मिलने के अलावा एक और चीज़ का आकर्षण का तार भी तना रहता है। वो ऐसी चीज़ है जो मेरी जानकारी में कानपुर और लखनऊ के अलावा कहीं और नहीं मिलती इस दैवीय वस्तु को मलाई-मक्खन का नाम दिया गया है। मुझे दुनिया में इस से बेहतर मिठाई दूसरी नहीं लगती।
मेरे लिए आइसक्रीम और मलाई-मक्खन में वही फ़रक है जो किसी फोटोग्राफ़र के लिए हॉटशॉट कैमरे और नाइकॉन एस एल आर में होता रहा होगा। बचपन में जो लखनऊ में खाया था उसका स्वाद सबसे बेहतर की तौर पर स्मृति में दर्ज है.. आजकल जो मिलता है उसमें मिलावटों का स्वीकार तो खुद बेचनेवाले भी करते हैं। पहले झऊवे में मिट्टी की परात में रख कर चलते थे और मिट्टी के सकोरों में खिलाते थे.. वह दिव्य होता था। अब वो बात नहीं हैं।
वैसे मेरे पास एक हैदराबादी रेसिपी बुक है जिसमें इसका नाम निमिष दिया गया है। अब निमिष नाम का कोई उर्दू-फ़ारसी मूल तो मिला नहीं मगर निमि नाम के एक राजा हुए हैं रघुकुल में जो वशिष्ठ के शापवश विदेह हो गए थे और बाद में गुरुकृपा होने पर उन्हे प्राणियों के नेत्रों में जगह मिली।
इस तरह से एक पलक झपकने का जो काल है उसे निमेष कहा गया हैं। निमेष या देशज रूप में निमिष या निमिख का अर्थ है बेहद सूक्ष्म अन्तराल.. क्षणिक। और मलाई मक्खन, झाग की तरह हलका और क्षणिक लगता है। निमिष नाम होने के पीछे का यही तर्क सोच सका हूँ। वो बात अलग है कि यह एक क्षण से कहीं ज़्यादा एक दिन तक टिक जाता है।
आजकल बाज़ार में मिलने वाले मलाई-मक्खन और किताब में दी हुई इस निमिष की तस्वीर में टेक्सचर का एक अन्तर है जो निश्चित ही मिलावटों का नतीजा है। जैसे कि देशी टमाटर (नाटा और पतली खाल का) बाज़ारू टमाटर (लम्बा और मोटी खाल का) से कहीं ज़्यादा खट्टा होता है। मेरा अनुमान है किताब वाले निमिष की मिठास ठेले वाले मलाई-मक्खन से कहीं ज़्यादा होगी।
वैसे तो फ़ास्टफ़ूड खाने वाली संस्कृति में ऐसी रेसिपी बताना मूर्खतापूर्ण है जिस में दूध को घंटे भर इस तरह घोटना पड़े कि उसमें मलाई न पड़ने पाए फिर रात भर चाँदनी में छोड़ना पड़े और फिर सुबह उठकर मथना पड़े इतना कि दूध बचे ही न सब एक झाग/मलाई-मक्खन बन जाय.. मगर क्या करें इन दिनों हम मूर्खताएं जब कर ही रहे हैं तो एकाध और कर लेने में क्या जाता है।
यह निमिष सिर्फ़ सर्दी के मौसम में ही तैयार हो सकता है जब ठीक से ओस गिरने लगे। जिन मित्रों को दिलचस्पी हो वे ऊपर की तस्वीर पर किलक कर पूरी विधि देख सकते हैं..
17 टिप्पणियां:
भाई क्या मामला है कभी चाट का जिक्र करके मिर्ची लगवा देते हैं और कभी मलाई मख्खन के नाम से मुंह में पानी लिवा देते हैं । ये जुलम ठीक नहीं है अभय भाई ।
कभी शाहजहाँपुर तशरीफ़ लाइये, चौक बाजार में ऐसा मलाई मक्खन खिलायेंगे कि तबियत हरी हो जायेगी ।
नखलऊ और कानपुर कभी रहे नहीं लेकिन जब तक शाहजहाँपुर में रहे मलाई मक्खन खूब खाया ।
काश!!! मथुरा में भी मलाई मक्खन मिलता होता :-)
मुंह में पानी आ गया
सही कहा भैया, ये मलाई खाए अर्सा हो गया, ये कंही और मिलती भी नही। कानपुर छोड़े अर्सा हो गया, दो साल पहले दिसम्बर मे जब कानपुर गए थे, तब खाया था, तब से लेकर अब तक तरस गए है। इसी दुकानदार के पास दूध भी होता है, वो भी झक्कास होता है।
ये मलाई बनाने का प्रोसेस भी बहुत जुगाड़ु होता है, सर्दी मे ही बनती है, बहुत धैर्य चाहिए बनाने के लिए। हल्की इतनी, कि चार कुल्हड़ भी खा लो, पता ही नही चलता।
मुंबई वाली कहां है.. मलाई भी मक्खन भी?
सही है। मिठाई अच्छी है। प्रमोदजी क्या सही हड़का रहे हैं। अगर ऐसा है तो बताया जाये। :)
निर्मल आनंद पढ़कर आनंद आया । आपने जो निमिष पर लिखा है वह जानना भी रोचक है। ज़रूरी है कि इस फ़ास्ट फ़ूड युग में कुछ आप जैसे हो जो ऐसी स्वादिष्ट classic बातें बता सकें । आपके blog द्वारा ही एक सुरुचिपूर्ण खान पान वाले blog से परिचय हुआ है। बहुत आभार ।
बिरहाना रोड का मीटर भर दूध अगला आईटम है क्या ?
अब तो चखना ही होगा। निमिष की व्याख्या तो बढ़िया है।
kanpur station per utartey hi sabsey pehley MAKKHAN khayaa jaata hai ..baad me ghar pahunchtey hain hum....
आपने भी कहाँ मलाई-मक्कन की याद दिला दी।खूब खाई है लखनऊ मे।
अब
तो मुझे तो जल्दी से जल्दी कानपुर जाना होगा...
आपने तो दुखी कर दिया जी.पहले चाट अब ये.ना जाने कितनी चीज याद आ गयी.
आर्यनगर की बिरयानी, बन्द मलाई, सुबह सुबह छाछ और ब्रेड-मक्खन, मसाला दूध...यह सब चीजें तो कानहीपुर में मिलती है.एक बार जाने का मन कर रहा है.देखो ...कब जा पाते हैं.
मलाई-मक्खन और निमिष की तवीरों को निर्निमेष दृष्टि से ताकता रहा . फिर एक उसांस भर कर काम पर लग गया . ये कड़वाहट दूर करना हुआ कि स्वाद की सुर्री छोड़ना . अब जनता परेशान है . स्वादग्रन्थियां फोकट में तरल द्रव्य छोड़ रही हैं.
आपके इस मुर्खतापूर्व इच्छा ने तो नाक में दम कर दिया है। अब बताइये भला, जब से पढ़ा है झर-झर लार चु रहा है... पोंछते-पोंछते कुरता का आस्तीन गिला हो गया है।
अहा!! नखलऊ की याद ताज़ा कर दी आपने.ज़ब तक लखनऊ रहे तब तक अक्सर इतवार की सुबह चौक जाकर मक्ख्न्न मलाई का आनन्द लिया करते थे. अब न वो स्वाद है न वो समय,फिर भी मज़ा आ गया,अब क्या खिलवाने का इरादा है?
wah! kya khoob hai makkhan-malai, kanpur k alawa kahin nahin milegi. makkhan malai yaad dilane k liye dhanyawad, shambhunath shukla
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