क्या मंगलेश जी बाबरी मस्जिद की वर्षगाँठ पर प्रकाशित चीज़ों को हाण्डी का चावल मान रहे हैं कि एक सर्च मारकर देख लिया और पता चल गया की ब्लॉग की हाण्डी में कितनी धर्मनिरपेक्षता है। अगर मंगलेश जी को उसी विषय पर अपनी सर्च में चार लोगों की श्रद्धांजलि मिल जातीं तो उनकी राय क्या होती?.. कि ब्लॉग की दुनिया बड़ी प्रगतिशील, बड़ी परिपक्व है? नवभारत टाईम्स में छपे अपने आलेख में वे लिखते हैं कि
लेकिन ब्लॉग की अवधारणा और उसके उद्देश्यों के समर्थक इन पंक्तियों के लेखक का एक दुख यह है कि उसे 6 दिसंबर 2007 को बाबरी मस्जिद ध्वंस के पंद्रहवें वर्ष पर ब्लॉगों के हलचल-भरे संसार में सिर्फ 'कबाड़खाना' नामक एक ब्लॉग पर कैफी आजमी की कविता 'दूसरा वनवास' के अलावा कुछ नहीं मिला।
क्या ब्लॉग के बारे में राय बनाने का यह सही पैमाना है। मुझे कल यदि मंगलेश जी की कविता के ऊपर एक लेख लिखना हो तो क्या मैं फटाफट उनकी कविता संग्रह में भोपाल त्रासदी पर लिखी किसी कविता की तलाश करूँ और न मिलने पर घोषित कर दूँ कि कवि में सामाजिक चेतना का अभाव है।
मैं पूछना चाहता हूँ कि ये ६ दिसम्बर का संदर्भ दिया क्यों जा रहा है? जो भी ब्लॉग की दुनिया से परिचित है वह जानता है कि साम्प्रदायिकता को लेकर यहाँ कितनी आग उगली गई है.. हिन्दी ब्लॉगिंग के तथाकथित 'मोहल्ला युग' में तो काफ़ी सारे ब्लॉगर्स ने और उसके पहले भी भाई प्रियंकर और अफ़लातून ने भी साम्प्रदायिक सोच के खिलाफ़ मोर्चा खोला है। मगर इसकी मंगलेश जी को कोई हवा नहीं इसीलिए मेरा शक़ है कि मंगलेश जी को हिन्दी ब्लॉग की दुनिया की उतनी ही जानकारी है जितनी हाथी की पूँछ पकड़ कर उसका आकार रज्जुवत बताने वाले पण्डित की होती है।
वे यहीं नहीं रुकते और दुःख प्रगट करते हैं कि किसी एक अमेरिकी इंडियन मूल के कवि एमानुएल ओर्तीज की एक अद्भुत कविता जिसका हिंदी अनुवाद कवि असद जैदी ने किया था उन्हे ब्लॉग पर नहीं मिली.. हद है.. उम्मीद पालने की.. बच्चा जुम्मा- जुम्मा आठ दिन का हुआ और आप उस से कह रहे हैं कि हाइज़ेनबर्ग का अनसर्टेनिटी प्रिन्सिपल बताओ.. जिसमे आधुनिक विज्ञान को मूलभूत रूप से बदल दिया.. बहुत महत्वपूर्ण है पर कितने लोगों को पता है क्या होता है अनसर्टेनिटी प्रिन्सिपल..?
मुझे भी दो दुःख हैं एक तो यह कि मैं एक बड़े कवि से इस सुर में बात कर रहा हूँ और दूसरे यह कि मेरी भाषा का बड़ा कवि उलटे-सीधे निष्कर्ष निकाल रहा है। उन्होने हिन्दी ब्लॉग की दुनिया विकसित होने से पहले ही उसके उद्देश्य और मंज़िलें तय कर दी है-
लगता है कि बाजारवादी और वर्चस्ववादी मुख्य धारा के मीडिया के बरक्स यह वैकल्पिक माध्यम आने वाले वर्षों में हाशियों की अस्मिता का एक प्रभावशाली औजार बनेगा.. वे आगे कहते हैं कि क्या ब्लॉगों से गंभीर, वैचारिक, बौद्घिक होने की मांग करना अनुचित होगा, क्या यह कहना गलत होगा कि उन्हें उर्दू के सतही शायर चिरकीं की मलमूत्रवादी गजलों, लेखकों की निजी कुंठाओं और पारिवारिक तस्वीरों की बजाय एमानुएल ओर्तीज की कविताएं, एजाज अहमद की तकरीरें और तहलका द्वारा ली गई गुजरात के कातिलों की तस्वीरें जारी करनी चाहिए?
अगर आप सचमुच सवाल कर रहे हैं तो मेरा जवाब है कि हाँ अनुचित होगा। पहली बात तो ये कि आप जिस बौद्धिकता, वैचारिकता की अनुपस्थिति की बात कर रहे हैं वो ही ग़लत है। दूसरे ये कि आप सवाल नहीं कर रहे माँग कर रहे हैं.. और मैं तो कहता हूँ कि आप माँग भी नहीं कर रहे.. आप सवाल की शक्ल में व्हिप जारी कर रहे हैं। जैसे साहित्य की दुनिया में राजनीतिक पार्टी और आलोचक लेखक का मार्गदर्शन करते हैं कि किन विषयों पर लिखो.. क्या विमर्श करो? जैसे कुछ साल पहले स्त्री विमर्श और दलित विमर्श का दौर था अभी भी शायद वही चल रहा है। जो साहित्य पार्टीलाइन सोच कर लिखा जाता है.. मैं उसे अभिव्यक्ति नहीं नारेबाज़ी कहता हूँ।
ब्लॉग के ज़रिये आम आदमी को एक आज़ादी मिली है। आप उस में पार्टी लाइन चलाना चाहते हैं? भड़ास वाले अपने ब्लॉग पर विचार वमन करें या साधुवादी लोग जन्मदिन मना कर एक दूसरे को बधाई दें..वो उनकी अभिव्यक्ति है। वे भी आप की ही तरह सम्पूर्ण मनुष्य हैं और वे वही अभिव्यक्त करेंगे जो करना चाहते हैं और उन्हे इसका हक़ है। अगर आप को लगता है कि आप लोगों को यह बताकर कि उन्हे क्या करना चाहिये किसी बौद्धिकता का परिचय दे रहे हैं तो मुझे फिर दुःख है। वे क्या बो्लें या न बोलें और कब बोलें.. आप ज़रा सोचें.. आप उन्हे बताएंगे?
सदिच्छाएं तो मेरी भी बहुत हैं पर वास्तविक समाज से अलग कोई ब्लॉग का समाज बन जाएगा.. ऐसी कोई ग़लतफ़हमी हम और आप कैसे पाल सकते हैं? हमें तो मार्गदर्शन की ज़रूरत है पर आप तो समझदार आदमी हैं। गुजरात में मोदी जीतता रहे और गुजराती ब्लॉगियों से आप उम्मीद करें कि वे गुजरात के क़ातिलों के तस्वीर जारी करें। क्या उनको आप आकाश से आया हुआ मान रहे हैं? जितने प्रतिशत लोग आप की कविताएं पढ़कर आह्लादित होते हैं उस से अधिक लोग यहाँ एमानुएल ओर्तीज की कविताओं पर भावुक हो रहे होंगे ऐसी कल्पना ही बचकानी है। रही बात उन बहुसंख्यक लोगों की जो न आप की कविता पढ़ते हैं और न गुजरात पर धरना-प्रदर्शन.. उनसे ऐसी उम्मीद, साफ़ शब्दों में, मूर्खतापूर्ण है।
16 टिप्पणियां:
कल मंगलेश जी का लेख पढा था तो उनकी बातें ठीक लग रही थीं। आज आप की टिप्पणी भी ठीक लग रही है। बड़ा कन्फ्यूजन है।
मेरी प्रतिक्रिया यहाँ पढ़ें.
http://kakesh.com/?p=295
पहले काकेश जी को पढ़कर सहमति दर्ज करा ही चुका हूं और आपका लिखा पढ़कर और भी सहमत हुआ!!
ब्लॉग जगत में लिखने वाले हजार लोगों से कोई उम्मीद करे कि वह आपकी चाही गई हर चीज यहां डाल ही दे और न मिलने पर आप घोषणा कर दे कि यहां तो बस फालतू ही मिलता है यह तो बेमानी है।
"हमें तो मार्गदर्शन की ज़रूरत है पर आप तो समझदार आदमी हैं।"
कम से कम हमें मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं. किसी महाशय को नेट पर हिन्दी कैसे लिखें या ब्लॉग कैसे बनाये वगेरे के लिए सहायता चाहिए तो सम्पर्क करें.
गुजरात वालो क धर्मनिरपेक्षता के लिए किसी के प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं. आप मुम्बई में है वहाँ हुए दंगो के कातिलो की तस्वीरे जारी करें और धरना प्रदर्शन भी.
मंगलेश को थोड़ा-बहुत जो जानता हूं उससे उनकी एक घबराये हुए कवि की तस्वीर बनती है, व्हिप जारी करनेवाले कमिसार की नहीं.. पोस्ट पर उनके लिखे लिंक को मैं दुबारा पढ़ रहा था.. एक महानगरीय कवि की कविताओं को लेकर थोड़ी भावुकता से अलग मुझे तो उसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा.
मुझे यह बात समझ नहीं आती कि मंगलेश डबराल या किसी मंगतदास ने मुख्यधारा के किसी अख़बार में ब्लॉगों के संबंध में कुछ लिखा है- अच्छा-बुरा, सतही या सारगर्भित- यह हमारे लिए अचानक उत्तेजना और बेचैनी का इतना बड़ा मसला क्यों बन जाता है.. एक ओर हम उसे अभी जुम्मा-जुम्मा चार दिन का बताते भी रहना चाहते हैं, दूसरी ओर इस क्षोभ की रस्सी भी पकड़े रहना चाहते हैं कि हमारी एस्सेंडेंसी कोई चिन्हित क्यों नहीं कर रहा? फिर मंगलेश, या कोई मंगतदास ब्लॉग में धंसकर ही उसकी थाह पा पाएंगे ऐसी भोली अपेक्षा क्यों? इस सिलसिले में मुझे लगता है बहुत बार गोले के बाहर से गोले की चीज़ें ज़्यादा साफ़-साफ़ दिखती हैं.. मुझे तो एसएमएस की तर्ज़ पर हिंदी ब्लॉगों को एमएमएस ठहराने की उनकी पंक्ति बड़ी सुहानी लगी.. खुद से पूछनेवाली बात है (मंगलेश के जवाब में काकेश ने भी आज अपने पोस्ट पर लिखा है) कि हिंदी ब्लॉगों में भाई व बहिनी बोध से ज़्यादा हम कहीं कहां उठ पाये हैं.. और नहीं उठ पाये हैं तो किसी के कह देने मात्र से हमारा तन-मन इस कदर सुलगने क्यों लगता है?. विमल ने आज अपने पोस्ट में खुलासा किया है, और अच्छी बात कही है, कि ब्लॉग ने एक स्तर पर उन्हें खुद को खोजने में मदद दी.. ज़्यादातर लोग यह खोज कर रहे हैं, और यह सचमुच बड़ा अच्छा लक्षण है, मगर उसके आगे तो अभी ठीक से नेट-प्रैक्टिस भी नहीं शुरू हुई है.. और नहीं हुई है तो उसे स्वीकारने में ऐसी शर्म और झुंझलाहट क्यों..
रुसो का एक क्वोट है: houses make a town, but citizens a city.. मैं सिर्फ़ यह कहना चाहता हूं आभासी दुनिया का citizen बनने में हम अभी भी काफ़ी वक़्त लेंगे. और ऐसा कोई बाहर से हमारी तरफ देखते हुए हमें बता रहा है तो इसे मूर्खतापूर्ण कहकर गुस्सा ज़ाहिर कर लेना मुझे कोई बहुत समझदारी की बात नहीं लगती..
ठीक बात है. जिस तरह एक मुश्किल यह है कि हमारे यहाँ हर मुश्किल को कुछ दिवसों वगैरह से जोड़ दिया गया है, उससे बाहर जा कर कुछ सोचने की जरूरत नहीं समझी जाती वैसी ही मुश्किल यह है कि अखबारों में ब्लोग पर लिख वही रहे हैं जिन्हें ब्लोगिंग के बारे में कुछ पता नहीं है. चाहे वह मंगलेश डबराल हों या कोई और.
मैंने तो थोड़ा खोजबीन करके लिंक वगैरह भी दे दिया है कि मंगलेश जी देख लें कि वे क्या कह रहे हैं और ब्लागर क्या लिख रहे हैं.
ये तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है । जिसे जो लिखना है लिखे किसी को बाध्य तो नहीं किया जा सकता।
ज्ञानी लोग जब मुंह खोलते हैं तो ज्ञान झरता है . कई बार पूर्वगृह और अज्ञान ज्यादा झरता है .
आपने सही पकड़ा है . सबसे ज्यादा अरुचिकर टिप्पणी तो साथी कवि उदयप्रकाश को लक्षित करके और बिना उनका नाम लिए है कि " कुछ लेखकों के ब्लॉग शायद अनजाने में ही आत्म विज्ञापन का साधन बने हुए दिखते हैं, जिनमें उनकी रचनाओं के साथ उनकी आगामी पुस्तकों के चित्र भी चिपके होते हैं ."
हिंदी रचनाकारों के बीच का यह ईर्ष्या-द्वेष -- यह राज रोग -- पता नहीं कब दूर होगा . खुद फली फोड़ेंगे नहीं और दूसरे के काम में नुक्स निकालेंगे .
प्रमोद भाई, मंगलेश जी का लेख मैंने देख तो तभी लिया था जब अविनाश ने उसका लिंक चढ़ाया था मोहल्ले पर.. पर जब आज कुछ साथियों को मंगलेश के लेख का गुणगान करते हुए देखा तो खीज हुई.. और ये तो कोई बात नहीं हुई कि मंगलेश ब्लॉग के बारे में कुछ भी कहें तो हम उन्हे अनसुना कर दें.. आज तक उनकी कविताएं पढ़ते आए हैं और पसन्द करते आए हैं.. जब उनके श्रीमुख से ऐसी बातें सुनते हैं तो झुंझलाहट सामान्य से कुछ ज़्यादा होती है..और आप उन्हे जवाब देना चाहते हैं..
कोई बाहरवाला हमें आईना दिखाए हमें कोई तक्लीफ़ नहीं पर हमें किसी और की तस्वीर दिखा के कहे कि ये आईना है.. और अगर तुम ऐसे नहीं दिख रहे तो क्यों नहीं दिख रहे.. तुम्हे दिखना चाहिये.. तो वो मुझे पचाने में तक्लीफ़ होती है।
* पूर्वग्रह
*जुम्मा जुम्मा आठ दिन होते हैं.
मंगलेश जी ने शायद उनकी बौध्धिक उर्जा के प्रारूप अपनी बात हिन्दी के मुख्य समाचार पत्र पर रखी परन्तु, मैंने भी उनका विरोध जताते टिप्पणी लिखी है जो अभी तक देखी नहीं -
- मेरा विरोध " हिन्दी या किसी भी भाषाई ब्लॉग विधा पर , किसी भी तरह के "अनुशाशन" के ख़िलाफ़ है "
- ब्लॉग स्वतंत्र लेखन की विधा को अपने कुदरती विकास की गति से बढ़ना होगा. किसी भी सरकार, बुध्धिजीवी वर्ग या अन्य ताकत क्यों हमें बतलाये की हम, अपने ख़ुद के ब्लॉग पर क्या लिखें, कौन सी तस्वीर लगाएं या किस प्रकार अपनी बात कहें. या क्या न कहेँ या उनकी मरजी के मुताबिक ही लिखेँ !
बस - अभी इतना ही --
यहाँ मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि हर लेखक की अपनी समझ और नैतिकता होती है..वह उसी समझ से लिखता है..कुछ स्वयंपाकी लोग ऐसे भी होते हैं जो बारात में तो शामिल होते हैं पर खाना अपने हाथ का बना खाते है...
उनका मानना रहता है कि वो अपना नेम व्रत नहीं तोड़ेंगे...
ऐसे ही कुछ लोग होते हैं जो दुनिया में हर कहीं अपनी मेज सजी देखना चाहते हैं..हर किसी का मूल्यांकन अपने तरीके से करने की लाइलाज बीमारी से ग्रस्त होते हैं वे...
मैं नहीं समझता कि कोई ब्लॉगर अपने ब्लॉग में किसकी फोटो छापे या किसकी कविता...या कुछ और इस आधार पर और एक पोस्ट के आधार पर मूल्यांकन करना तो कुछ अजीब सी बात हो गई...
मुक्तिबोध की कविता में क्या नहीं है के आधार पर किए गए मूल्यांकन को लेकर पररेशान होना अपना समय खराब करना है...
ब्लॉग को लेकर बोलनेवालों से निवेदन है कि पहले कुछ दिन कुछ ब्लृगों को देख लें...
रही बात 6 दिसंबर की तो उसदिन मैंने अपनी कविता पागलदास छापी थी...पता नहीं लोग उसे 6 दिसंबर से जोड़ते हैं या नहीं..या उसी कविता को 6 दिसंबर से जोड़ना चाहते हैं जिसमें 6 दिसंबर जैसे शब्द प्रयोग किए गए हो.....
मैं जैसा दिखता हूं मुझे वैसा देखो। सारे आयाम देखो। मुझमें अच्छाई परखो, बुराई समझाओ। थोड़ा वक्त दो। अपनी खुजली के लिए मुझे ज़ख्मी न करो। मुझसे भी पूछो कि मैं खुद को कहां से , कैसे देखता हूं। कितना बुरा हूं मैं, पहले मुझसे ही जानों। फिर मेरी बुराई देखो अपनी नज़र से। हो सके तो अच्छाई भी।
आपने सम्यक देखा , सम्यक लिखा। हमें पसंद आया। अरूण आदित्य जी ने भी सही कहा। प्रमोदभाई हमेशा की तरह निराली समझदारी वाली बात कह गए। हमें पसंद आई।
लीजिए मंगलेशजी ब्लॉग पर हीरो हो गए। अब तक मंगलेश डबराल को साहित्यकार, कवि, पत्रकार ही जानते थे। अब ब्लॉगर भी जान गए हैं।
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