बुधवार, 11 सितंबर 2013

नरक की फांस

निर्धन होना दुर्भाग्य है। मूर्खता और अज्ञानता दुर्भाग्य है। अकेला पड़ जाना भी दुर्भाग्य है। हम जिनके बीच, जिनके साथ रहते हैं, उनका प्रेम न मिल पाना बहुत बड़ा दुर्भाग्य है। 

मगर सबसे बड़ा दुर्भाग्य है- हम जिनके साथ रहते हैं उनके लिए हमारे मन में प्रेम का न होना। प्रेम के बदले क्लेश, क्रोध, और हिंसा का होना। 

प्रेम के बिना जीवन एक जीवित नरक है। और ये नरक किसी और का बनाया हुआ नहीं, हमारी अपनी रचना है। स्वयं गढ़ते हैं हम अपना नरक! 

इस नरक से निकलने का एक ही उपाय है- अपने ह्रदय में लोगों के लिए प्रेम पैदा करना। और फिर लोगों के ह्रदय में अपने लिए। जब तक हमारे ह्रदय में प्रेम की जोत न जलेगी, हमें कोई प्रेम न करेगा। और हम नरक में जीते रहेंगे। 


नरक की फांस केवल प्रेम से कटती है। 

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

प्रेम बिना मन भूखा मानो।

भारत भूषण तिवारी ने कहा…

गुस्ताखी माफ़, मगर इस सीरीज़ को ‘काल चिंतन’ का सीक्वल कहने का मन कर रहा है. यहाँ आप कहते हैं ‘निर्धन होना दुर्भाग्य है’ और फिर अगली पोस्ट में अन्याय पर दृष्टिपात करते हुए आप ईसा, गांधी के साथ-साथ मार्क्स को भी लपेट लेते हैं. पहले मुझे लगा कि दोनों पोस्टों में विरोधाभास है, मगर ऐसा बिलकुल नहीं है. वे तो ‘परफेक्टली इन सिंक’ हैं!

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