मंगलवार, 29 मई 2012

अदब के लठैत




"एक विशेष माहौल और परिवेश में मेरा जन्म हुआ और परवरिश हुई। यह लोग मुझसे ऐसी आशा क्यों करते हैं कि मैं उस जीवन का चित्रण करूँ जिससे मैं परिचित नहीं? गाँव की ज़िन्दगी से कुछ हद तो मैं वाक़िफ़ हूँ क्योंकि उसका मुझे अनुभव था लेकिन वह अनुभव एक बड़े फ़ासले का था। तरक़्क़ी पसन्द लोगों ने मुझको बहुत बुरा-भला कहा और इस तरह मज़ाक़ उड़ाया मानो मैं लोक-आन्दोलन की विरोधी हूँ।"

किसी मौक़े पर यह बयान दिया था मरहूम मुसन्निफ़ा क़ुर्रतुल ऐन हैदर उर्फ़ ऐनी आपा ने। हिन्दुस्तानी अदब में ये बड़ी पहचानी प्रवृत्ति है, हमारे कुछ जोशीले वामपंथी लठैत समय-समय पर अदीबों को ढोर की तरह हांका और पीटा करते हैं। चोट खाए साथियों से अपील है कि उनकी आलोचनाओं को मानस से फटकार दें, हौसला बनाए रखें और जिस दुनिया को वे देखते-समझते हैं उसी पर अपनी उंगलियों को चलाते रहें।  


शुक्रवार, 25 मई 2012

निहितार्थ




प्रश्न: आर्य इस देश के निवासी हैं, हड़प्पा और ऋगवेद की सभ्यता में अन्तर नहीं है, एक ही सभ्यता है ऋगवेद के रूप में आर्यों की, जो हड़प्पा की नगर सभ्यता- तथाकथित नगर सभ्यता के रूप में है- ये सारी बातें संघ परिवार की संस्थाएं भी कह रही हैं (और आप भी कह रहे हैं)। मेरी पीढ़ी के लोग और नवयुवक लोग - सभी की तरफ़ से मैं आप से यह जानना चाहता हूँ कि आपका एजेण्डा और उन लोगों का एजेण्डा जिन्होने बाबरी मस्जिद गिरायी थी, एक ही दिखाई पड़ता है, क्यों? यह सिर्फ़ संयोग है? क्या इसमें सम्बन्ध है? 

यह सवाल नामवर सिंह ने रामविलास शर्मा से एक साक्षात्कार के दौरान किया था सन २००० में कभी, और मंगलेश डबराल ने उसे एक टेप रिकार्डर पर रिकार्ड कर  लिया था। यह साक्षात्कार तद्भव के २५वें अंक में प्रकाशित हुआ है (पहले के किसी अंक में भी छपा था, इस अंक में दुबारा छपा है)। यह बातचीत बेहद दिलचस्प इसलिए है कि इसमें से हिन्दी साहित्य की एक विशेष प्रवृत्ति का पता मिलता है। नामवर जी के सवाल और रामविलास जी के उत्तर, ऐसा लगता है कि दो अलग-अलग दुनियाओं से हैं। अब जैसे देखिये ये जो सवाल किया गया है, उसके जवाब में रामविलास जी बताते हैं कि.. 

(पूरे तर्क देखने के लिए तद्भव देखें.. मैं संक्षेप में मूल बिन्दु दे रहा हूँ)

१. भारत जैसे देश में अपनी संस्कृति और इतिहास का अध्ययन फ़ासिस्टों के हाथों में छोड़कर आर एस एस जैसी संस्थाओं से मुक़ाबला नहीं किया जा सकता। 
२. भारत में आर्यों की कोई अखण्ड इकाई नहीं थी, जैसा कि पूंजीवादी इतिहासकार और मार्क्सवादी इतिहासकार दोनों मानते हैं, 
३. नस्ल मे आधार पर भारत या संसार में किसी समाज का संगठन नहीं हुआ,
४. ऐतिहासिक भाषा विज्ञान, भाषाओं का अध्ययन नस्ली आधार पर करता रहा है, 
५. किसी आदि भाषा से अन्य भाषाओं का विकास नहीं हुआ है.. उसके बदले गण भाषाएं थीं।

इसके जवाब में नामवर जी विषय की इन सारी बारीक़ियों पर कोई बात नहीं करते। वे वापस अपनी मूल चिन्ता पर लौट जाते हैं,  कि आर्यों का मूल स्थान क्या था, इस प्रश्न के जवाब के राजनीतिक निहितार्थ होते हैं और रामविलास जी को उस का फ़िक्रमंद होना चाहिये और आर्यों के भारत का मूल निवासी होने से पैदा होने वाली फ़ासिस्ट राजनीति का खण्डन करना चाहिये। इस के जवाब में रामविलास जी वापस विषय की बारीक़ी में लौटते हैं- 

१. हिन्दू राष्ट्रवाद के लिए वैदिक भाषा आदिभाषा है और आर्यभाषा परिवार की सारी भाषाएं वैदिक संस्कृत से निकली हैं, और ये बात पूंजीवादी भाषाविज्ञान भी मानता है। 
२. मैं गणभाषाओं की बात करता हूँ.. मराठी में तीन लिंग होते हैं, बंगला में एक भी नहीं होता- दोनों भाषाएं कैसे संस्कृत से निकल सकती हैं? गणभाषाओं का व्याकरण अलग है, शब्द भण्डार अलग है। 
३. वैदिक संस्कृति, हिन्दू संस्कृति नहीं है। (यानी हिन्दू संस्कृति में दूसरे तत्व में मिले हुए हैं) 
४. हिन्दू कट्टरपंथी और इस्लामिक कट्टरपंथी दोनों ही जातीयता का विरोध करते हैं, 
५. जबकि आर्य विभिन्न गणों में विभाजित थे, उनकी संस्कृति और भाषाओं में फ़र्क़ था, वे आपस में लड़ते थे, ऐसा कोई मार्क्सवादी इतिहासकार भी नहीं स्वीकार करता (परोक्ष रूप से वे भी जातीयता  के पहलू को अनदेखा करते हैं)  
६. आर्य भारत में रहते थे, उनके साथ द्रविड़ और मुण्डा लोग भी रहते थे, अन्य भाषाभाषी लोग भी रहते थे, हिन्दू राष्ट्रवादी उनकी बात नहीं करते, मैं करता हूँ.. मैंने उस पर किताबे लिखी हैं.. 

रामविलास जी के लम्बे जवाब के बाद नामवर जी इन मसलों पर चर्चा नहीं करते, वे वापस अपने मूल बिन्दु पर लौटते हैं- आप के ग्रंथो से जो राजनीति निकलती है उसका लाभ हिन्दू राष्ट्रवाद उठाता है। रामविलास जी कहते हैं- मैं जो लिख रहा हूँ वह हिन्दू राष्ट्रवाद का बिलकुल उलटा है, तुम न समझो तो मैं क्या करूँ। 

पूरी बातचीत में रामविलास जी विषय की बारीक़ियों की बात करते रहते हैं और नामवर जी निष्कर्षो के निहितार्थ की। और रामविलास जी कुछ बेचैन और चिड़चिड़े भी समझ में आते हैं। शायद इस वजह से कि रामविलास जी बार-बार अपने खोजे हुए सत्य पर बल दे रहे हैं और नामवर जी उसके सम्भावित उपयोग के भय की ओर उन्मुख हैं। इसको पढ़ते हुए चर्च और कोपरनिकस के अन्तरविरोध की याद हो आई, चर्च भी कोपरनिकस के आनुसंधानिक सत्य को झुठलाने पर आमादा था। हालांकि उस सत्य और इस सत्य की कोई तुलना नहीं। और मेरा आशय यह भी नहीं कि रामविलास जी की अवधारणा सत्य ही है। दिल को खटकने वाली बात इतनी सी है कि क्या इसी वजह से कोई बात न कही जाएगी कि वो पार्टीलाइन नहीं है या फिर कोई उसका ग़लत इस्तेमाल कर लेगा? 

फिर भी मेरे लिए यह संवाद पढ़ना बहुत मनोरंजक रहा। एक तो इसलिए भी कि हमारी भाषा के दो महापुरुषों का संवाद हम कमज़र्फ़ों की तरह ही उछलता-कूदता सा चलता हुआ मिला और दूसरे बड़ी वजह यह कि इसको पढ़कर दो विद्वानों के अलग-अलग मानसिक संगठन से रूबरू भी हुए। एक जो पूरी तरह अपने अनुसंधान में डूबा, राजनैतिक रूप से गहरे तौर पर प्रतिबद्ध मगर अपने निष्कर्षों को लेकर सिर्फ़ इस वजह से शर्मिन्दा नहीं कि किसी को लग सकता है कि वो फ़ासिस्ट इस्तेमाल के है; और दूसरा जो साहित्य और अनुसंधान को लगातार उनके राजनैतिक निहितार्थों से तौलता हुआ।

हिन्दी साहित्य रामविलास जी के अनुसंधान के कठोर अनुशासन, और अपने खोजे हुए सत्य के प्रति आग्रह का कितना अनुगामी हुआ है, कहना मुश्किल है। हो सकता है कुछ झक्की जीव यश और प्रसिद्धि के प्रलोभनों से दूर किसी आधुनिक मड़ई में अपनी गहरी साधना में लगे पड़े हों, और आने वाले दिनों का समाज उनके श्रम और साधना का ऋणी रहे, इस वक़्त उनके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। इस वक़्त हम जिनके बारे में कह सकते हैं वो हैं एक पिटे-पिटाए राजनैतिक सत्य की लीक पकड़कर चलने वाले और फ़टाफ़ट कुछ पहचान, मान, प्रकाशन, पुरस्कार, और सामाजिक प्रतिष्ठा लूट लेने के लिए आतुर शिष्यों की भीड़, जिनके लिए साहित्य सिर्फ़ एक राजनैतिक निहितार्थ है, उस से ज़्यादा कुछ नहीं। कुछ और लोग भी हैं, पर वो इस मुख्य धारा से बाहर किसी छोटी धारा में हैं, या एकदम हाशिये पर हैं। 

***  

(जहाँ कहीं भी कोष्ठक आया है, उसके भीतर मेरे शब्द हैं) 





रविवार, 13 मई 2012

दोस्त


उस दिन शांति के सर में तेज़ दर्द था। शायद गर्मी की वजह से।  शांति आँख बंद करके लेटी ही थी कि एस एम एस की घंटी बजी। लेटे-लेटे ही शांति ने फ़ोन की खिड़की पर देखा- आरती का मेसेज था- उसकी माँ नहीं रही। शांति का मन दो मिनट तक उस के दर्द से भरे सर और हाथ में पकड़े फ़ोन के बीच झूलता रहा। आरती शांति के सामने वाली इमारत में रहती है। उसका बेटा पीयूष, अचरज के ही क्लास में है और दोनों की अच्छी दोस्ती भी है। दो-एक बार आरती और पंकज, शांति के घर आए हैं और दो-एक बार शांति और अजय उनके घर गए हैं। आरती की माँ और पिताजी शांति की इमारत के दूसरे विंग में रहते थे। और शांति का घर उनके लिए आरती के घर से भी पास पड़ता था। मगर उनका कहीं आना-जाना कम ही होता था। आंटी को वैसे भी गठिया था और चलने-फिरने में तकलीफ़ होती थी और अंकल वैसे तो स्वस्थ हैं मगर बहुत मिलनसार नहीं। नमस्ते करने पर मुस्करा कर जवाब ज़रूर देते हैं पर उससे ज़्यादा नज़दीकियों की कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते। न बच्चों का हाल पूछते, और न मौसम के हाल पर बिसूरते। बस आंटी के बगल में खड़े होकर उनकी बातों के खतम होने का इन्तज़ार करते। और अक्सर उस इंतज़ार में उनकी भंगिमा बिगड़ सी जाती। मगर आंटी उनपर ज़रा ध्यान नहीं देती- वो सूचनाओं के पर्याप्त आदान-प्रदान के बाद ही हिलतीं। वैसे भी उनकी हड्डियों को हिलने में तक़्लीफ़ थी तो वो हर क़दम का भरपूर लाभ लेकर ही आगे बढ़ना चाहतीं। अंकल बेचारे, जो शायद किसी भी आम पुरुष की तरह चलने में नहीं पहुँचने में यक़ीन रखते थे, उतनी देर कसमसाते रहते। अब आंटी चली गईं.. अब उन्हे कभी इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा- शांति ने सोचा। सर दर्द से बोझिल हो रहा था। खड़े-खड़े उसे उठाए रखना भारी पड़ रहा था, इसीलिए शांति लेट गई थी। मगर इस नई सूचना न उसका लेटे रहना मुश्किल हो गया। उसे आरती के पास जाना ही होगा- सोचकर शांति उठ गई। पहले अजय को मेसेज किया, फिर पाखी को बताया, और निकल पड़ी। 

घर के बाहर जूते-चप्पलों की ढेरी लगी हुई थी। दरवाज़ा खुला था। और बाहर के कमरे में ही आंटी का शव कमरे के बीचो-बीच रखा था।  शांति ने पिछली बार जब आंटी को देखा था उसके मुक़ाबले काफ़ी कम वजन लग रहा था। अस्पताल में बिताए अन्तिम दिनों में शायद ये बदलाव आया होगा।  शांति की नज़रें आरती को खोजने लगीं। कुछ पहचाने हुए और कुछ अनजान चेहरे भी उस कमरे में मौजूद थे। सबके चेहरे गम्भीर और उदास। पर उनमें आरती नहीं थी। आंटी के शव के साथ उन अनजान लोगों के बीच खड़े रहना शांति को अजीब सा लगने लगा। शांति अन्दर चली गई।  आरती रसोई में पंकज और एक दो अन्य लोगों के साथ थी-  दाह-संस्कार के बारे में बात हो रही थी। कब होगा, कैसे होगा.. किस-किस को खबर हो गई, कौन रह गया आदि। जैसे ही शांति और आरती की नज़रें मिलीं। दोनों स्वाभाविक रूप से एक दूसरे के गले लग गईं। शांति ने आरती की पीठ पर एक-दो दफ़े दिलासा के लिए हाथ फेरा। आरती ने भी हलके से शांति की पीठ थपथपाई.. कुछ पल वे इसी मुद्रा में रहे और फिर अलग हो गए। आरती वापस अपनी चिंताओ में लौट गई। शांति को एक पल का अवकाश मिला और उसे अपना सरदर्द याद आया। वो वहीं था, कहीं नहीं गया था। उस सर दर्द की उपस्थिति में ही शांति ने पाया कि शांति का आरती को दिलासे के लिए गले लगाना एक औपचारिकता था- उसने पहले से सोचा हुआ था कि वो क्या करेगी। आंटी की मृत्यु दुख का मौका था मगर तक़ल्लुफ़ का भी मौक़ा था। शांति को दुख है पर इतना भी नहीं कि उसे रोना आ जाय। और आरती के दुख में शरीक़ होना बिना रोए कैसे मुमकिन है.. शायद सिर्फ़ उसे गले लगाकर और पीठ थपथपाने की दिलासा देकर। लेकिन अपनी औपचारिकता के अलावा उस गले लगने में शांति को आरती की भी औपचारिकता का एहसास हुआ। जैसे पहले से तय था कि वो गले मिलेंगे और कुछ पल एक-दूसरे की पीठ सहलाकर अलग हो जाएंगे। आरती पहले से तैयार थी। शांति ने आरती के चेहरे को देखा- आरती उदास थी पर रो नहीं रही थी। उसके हावभाव से लग रहा था कि ज़िम्मेदारी निभा रही थी। मृत्यु एक निजी अवसर है, मरने वाले के लिए और उसके क़रीबी लोगों के लिए। मगर मृत्यु एक सामाजिक अवसर भी है, जहाँ दोस्त, पड़ोसी और दूर के सम्बन्धी उस सत्य के साक्षी होते हैं। उस वक़्त आरती को देखते हुए बिलकुल नहीं लगा कि उसके लिए आंटी की मृत्यु  कोई निजी अवसर थी। वो पूरी तरह उसके सामाजिक आयाम में बनी हुई थी। तो फिर आंटी की मृत्यु का आरती पर निजी तौर पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा था? ऐसा कैसे सम्भव था! 
रसोई में भीड़ बढ़ने लगी थी। शांति पीछे हट आई। अचानक उसकी नज़र दूसरे कमरे में बिस्तर पर बैठे अंकल पर पड़ी। अंकल कमरे में एकदम अकेले थे और वो उसी ओर देख रहे थे। शांति को एकाएक समझ नहीं आया कि वो क्या करे? नमस्ते करे या कुछ और? शांति ने अपने आप को आरती का सामना करने के लिए तो तैयार किया था, पर अंकल की बात वो भूल ही गई थी। और इसीलिए उनसे कैसे मिले में कुछ भी सूझ न पाने की स्थिति में शांति दरवाज़े के सामने से हट गई। 

अंकल अकेले क्यों थे? उनकी पत्नी की मृत्यु हुई थी.. कोई उनको दिलासा क्यों नहीं दे रहा? फिर शांति ने ग़ौर से देखा पूरे घर में आरती और पंकज के दोस्त और पड़ोसी ही थे। अंकल का एक भी दोस्त वहाँ नहीं था? शांति को लगा कि उसे अंकल के पास बैठना चाहिये। वो दरवाज़े पर लौट गई। अंकल ने वापस उस की ओर देखा। इस बार शांति तैयार थी- उसने नमस्ते कर ली.. और उनके पास ही बैठ गई। पर उसके पास कहने को कुछ नहीं था। अंकल की तरफ़ सीधे देखना भी आसान नहीं था। वो इधर-उधर देखती रही। बीच-बीच में एक नज़र अंकल को भी देख लेती। अंकल भी रो नहीं रहे थे। उदास थे और चुप थे। जिस बिस्तर पर वो बैठे थे उस पर अस्पताल जाने से पहले आंटी भी सोया करती होंगी। कितनी रातों दोनों ने जीवन और मृत्यु की बाते की होंगी। अचानक शांति को एहसास हुआ कि क्यों नहीं रो रहे थे अंकल और आरती। आंटी की मृत्यु के पहले ही उनकी बीमारी के दौरान उन्होने आंटी की मृत्यु की कल्पना करना शुरु कर दिया होगा.. और शायद उसका इंतज़ार भी। 
कुछ वक़्त बीत गया। कमरे में शांति और अंकल ही बने रहे। अंकल का कोई दोस्त तब भी नहीं आया था। शायद उनका कोई दोस्त था ही नहीं। आंटी ही उनकी एकमात्र दोस्त थीं। अंकल और दुनिया का जो भी सम्बन्ध था, आंटी के ज़रिये था। बिना आंटी के अंकल शायद अब चलते समय किसी से मिलने के लिए कहीं नहीं रुकेंगे। किसी का इंतज़ार नहीं करेंगे.. सीधे अपनी मंज़िल पर पहुँच जायेंगे। 

*** 

पिछले इतवार को दैनिक भास्कर में छपी

गुरुवार, 10 मई 2012

समय की नदी




 जब शांति छोटी थी तो तो उसके पास बहुत खिलौने नहीं थे। बच्चों के खेलने के लिए उन दिनों लट्टू, फिरकी, झुनझुना, गुब्बारे आदि होते थे। लड़के गिल्ली-डंडा और कंचे खेलते, पतंग उड़ाते, और बेकार हो गए साइकिल के टायर को किसी लोहे की तीली से घुमाते। और लड़कियां गुड्डे- गुड़ियों  से घर-घर खेलती। लोगों की आमदनी कम थी और इसलिए माना जाता था कि बच्चों के मन बहलाने के लिए टूटी-फूटी बेकार हो गई चीज़ें काफ़ी है। और होता भी यही था। कांच की टूटी हुई चूड़ियां, शीशे के टुकड़े, कोई गुलाबी रिबन, कोई चमकीली पन्नी या गोटा और ऐसी हुई कुछ बटोरी हुई चीज़ें शांति का ख़ज़ाना हुआ करती थीं। बची-खुची चिंदियों और फटी हुई साड़ियों से शांति की माँ ने उसके लिए गुड़िया बनाई थी। जब तक उसका बचपन रहा शांति उस गुड़िया से खेलती रही। स्कूल जाने, घर में माँ का हाथ बँटाने, और इन सब से खेलने के बाद भी बहुत सारा वक़्त था जो बचा रह जाता था। उस वक़्त में शांति और उसकी उमर के दूसरे बच्चे बिलकुल खाली रहते। कुछ भी न करते। अगर घर के अन्दर होते तो खिड़की पर बैठकर बाहर ताका करते। और अगर बाहर होते तो पेड़, मिट्टी और घास के उस अबूझ संसार में फैले अनगिन रहस्यों पर अचरज किया करते। कभी बाग में टपाटप गिरते महुओं की कालीन पर से महुए बीन कर खाते। कभी पहली बरसात के बाद ज़मीन की दरारों से निकलती बीर-बहूटी की फ़ौजों के कुछ सिपाहियों को माचिस की खाली डिब्बियों में क़ैद करते। तो कभी निपट दुपहरी में तपती छत पर पानी की बूंद टपका कर उसका हवा होना देखते। 

अब ज़माना बदल गया है। अब अचरज के पास असली खिलौने हैं। क्योंकि शांति और अजय के पास दाल-रोटी, कपड़े-लत्ते आदि जुटाने के बाद भी इतना पैसा बचा रहता है कि वो अपने बच्चों की ज़िद को पूरा कर सकें। असल में सच तो ये है कि पहले की तरह बच्चों को अब पैर पटक कर ज़िद करने की ज़रूरत भी नहीं पड़ती। माँ-बाप उनके मुँह खोलने से पहले ही उनकी पसन्द के खिलौने हाथों में उठाए चले आते हैं। और इस हद तक खिलौने खरीदते हैं कि कमरे में उनको रखने की जगह कम पड़ने लगती है। ज़्यादातर बच्चे असत्ती होते हैं, जुनूनी होते हैं। एक कहानी पसन्द आ गई तो बीस बार उसी कहानी को सुनाने की ज़िद करेंगे। कोई चीज़ पसन्द आयी तो हाथ धोकर उसके पीछे पड़ जाते हैं। बार-बार उसी को दोहराते जाते हैं। एक बार जो मज़ा मिला उसी को निरन्तर तलाशते जाते हैं। न जाने ये अकेले बच्चों का स्वभाव है या मनुष्य मात्र का! जो भी हो ये तर्कातीत भाव बच्चों में विशेष रूप से में झलकता है। शायद इसी नादानी को बचपना और इस तर्कातीत स्वभाव से ऊपर उठ जाने को परिपक्वता कहा जाता है। कोई मोकेपॉन और कोई टेनबेन बच्चों की इस वृत्ति को जमकर निचोड़ते हैं। और नतीजे में बच्चों की अलमारियों टेन्बेन की घड़ी, टेन्बेन के बैग, और न जाने क्या-क्या से उबलने लगती हैं। बहुत एहतियात बरतने पर भी शांति अचरज को इस जमाख़ोरी से अलग नहीं रख पाई। और फिर धीरे-धीरे शांति को एहसास हुआ था कि बच्चे सिर्फ़ अपने माँ-बाप और परिवार से नहीं, पूरे समाज से संस्कार ग्रहण करते हैं।  

जिस समाज में शांति बड़ी हुई थी, अब वो समाज नहीं रहा। इस समाज का रहन-सहन अलग है, मूल्य अलग, गति अलग है। बड़ों के पास तो समय नहीं ही है, बच्चों के पास भी समय नहीं है। अचरज के पास समय की मात्रा उतनी ही है जितनी शांति के पास होती थी। वही चौबीस घंटे। पर सुबह उठने से लेकर रात सोने तक अचरज शांति से कहीं ज़्यादा चीज़ें कर रहा होता है और कहीं अधिक सूचनाएं बटोर रहा होता है। शांति कभी-कभी अचरज और पाखी की किताबें और पाठ्यक्रम देखकर चकरा जाती है। इतनी कम उमर में क्या-क्या पढ़ना पड़ रहा है उसके बच्चों को। उनकी उमर शांति को देश-दुनिया के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। जबकि पाखी और अचरज स्कूल में जो सीखते हैं वो तो सीखते ही हैं उसके अलावा इन्टरनेट, और टीवी से भी लगातार सूचनाओं का संग्रह और विश्लेषण करते रहते हैं। घर से बाहर निकलते हैं तो भी हर ओर से उन पर साइनबोर्ड, पोस्टर और बिलबोर्ड की शकल में सूचनाओं और संदेशों की बारिश हो रही होती है। वे लगातार सीख रहे होते हैं और समझ रहे होते हैं। और ऐसा नहीं होता कि वे इस से ऊब जाते हैं। वे खुशहाल है, प्रसन्न है, जीवन की ऊर्जा और उत्तेजना से भरे हुए हैं। उनका मानस लगातार सक्रिय है। आँख बंद करने पर भी कानों में हेडफ़ोन लगाकर वे गीत-संगीत की शकल में जीवन की कैसे-कैसे सच्चाईयां समझते रहते हैं। हर वक़्त उनका चेतन और अवचेतन व्यस्त है। उनकी ये व्यस्तता शांति को बेचैन करती है। समय उनके लिए अबाध निरन्तर बहती नदी नहीं है। शांति के लिए भी नहीं थी। पर शांति के समय की नदी पर दो-चार ढीले-ढाले बाँध होते थे- स्कूल जाने से पहले की सुबह, स्कूल में बिताई दोपहर और घर लौटकर शाम तक का एक लम्बा वक़्फ़ा जिसमें करने को कुछ भी ठोस नहीं होता था, और अंत में शाम से लेकर सो जाने तक की रात। पर आजकल समय इतनी सुगठित और संगठित हो चुका है कि उस की निरन्तरता लगातार बाधित होती चलती है। जैसे किसी एक नदी के स्वाभाविक प्राकृतिक प्रवाह पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बहुत सारे बाँध बने हों। हर किताबी विषय को पढ़ने के लिए स्कूल में अलग घंटा तो होता ही है, उसके अलावा खेलने का अलग घंटा है, पिकनिक जाने का अलग घंटा है, और जब घंटे कम पड़ते हैं तो होमवर्क है।

शांति ने अपने जीवन में शायद ही कभी होमवर्क किया था। और जो किया था वो भी बेहद मामूली। स्कूल के संगठित समय की नकेल से बच्चे निकल भी नहीं पाते कि वो नकेल उनका पीछा करते हुए उनके घर में उनके कमरों में पहुँचकर उनका इंतज़ार करने लगती है। कंधो पर स्कूलबैग का बोझ और सर पर होमवर्क का बोझ लेकर बच्चे घर आते हैं और एक सांस लेकर होमवर्क में लग जाते हैं। और होमवर्क से जो समय असंगठित बच जाय उसके लिए एसाइनमेंट हैं। किसी विज्ञान या सामाजिक विज्ञान के विषय पर शोध करने के लिए एसाइनमेंट है। प्रकृति के सरंक्षण की जागरूकता बढ़ाने के लिए भी एसाइनमेंट हैं। जो भी चीज़ बच्चे के ज़ेहन में असर करने का ताब रखती हो, उसके लिए स्कूलवालों के पास एक एसाइनमेंट है- फ़िल्मों और खेलों के लिए भी!  हर चीज़, हर शै एक प्रोजेक्ट, एक एसाइनमेंट बन चुकी है। बच्चे की स्वतंत्र, स्वाभाविक प्रतिभा को सरल विकास के लिए कोई जगह नहीं है। हर बच्चा एक अलग फूल होता है। और ज़रा सोचिये कि   अगर हर फूल को गोभी के फूल में बदलने की कोशिश की जाने लगे तो क्या होगा? 

आज अचरज और पाखी के पास खाली समय नहीं है, छुट्टियों में भी नहीं। छुट्टियों में भी उनके पास होमवर्क है, एसाइनमेंट हैं, और प्रोजेक्ट्स हैं, और यदि उन से समय बचे तो इन्टरनेट और टीवी और प्लेस्टेशन पर समय को तोड़ने की अनेक विधाएं हैं। ऐसा कोई खाली समय नहीं जिसमें बैठकर वो प्रकृति को चुपचाप निहार सके, उसके और अपने सम्बन्ध की गहराई को समझ सके। और ये लगातार की व्यस्तता उसे किसी ऐसे पल का विलास नहीं देती जिसमें वो अपने भीतर बैठे सत्य से सामना कर सके। वो जो देखता है, सुनता है, गुनता है वो सब बाहर से आ रहा है। उसमें उसका अपना क्या है? और जो उसका अपना है, उस अन्दर की आवाज़ या उस मौन को सुनने का वक़्त कहाँ है उसके पास?  

*** 

२९ अप्रैल को दैनिक भास्कर में छपी

मंगलवार, 8 मई 2012

बाबा


एक दिन अचानक पहली मंज़िल वाली निर्मला आई। खुशी चेहरे से टपकी पड़ रही थी। सुबह-सुबह किसी चमकते हुए फूल की तरह की कोई सूरत देखने को मिल जाए तो बात ही क्या! शांति को लगा कि ज़रूर इसकी लॉटरी लग गई होगी। पर उसने बताया कि बाबा ने याद किया है.. वो जा रही है। इतना कहकर निर्मला ने एक चाभी उसके हाथों में सरका दी। और कहा कि पांच दिन में लौट आएगी.. पौधों को पानी देती रहना। अच्छे पड़ोसी एक-दूसरे के काम आते हैं। शांति अच्छी पड़ोसन थी। हँसते हुए ज़िम्मेदारी ले ली। पांच दिन बिला नागा पानी देती रही। पांचो दिन की सुबह जब वो पानी देने के लिए निर्मला के घर में प्रवेश करती तो घुसते ही उसकी नज़र सिंहासन पर बैठे, गेरुआ पहने बाबा की करुणामय मूर्ति पर पड़ती। यही वो बाबा थे जिन्होने अपने दरबार में     हाज़िरी देने के लिए निर्मला को सपरिवार बुलाया था।

शांति ने उनकी तस्वीरें पहले भी देख रखी थीं। आजकल उनके भक्तों की गिनती बढ़ती ही जा रही है। उनके नाम के नए-नए मन्दिर बन रहे हैं। प्राचीन मन्दिरों में उनकी नई मूर्ति की प्राण- प्रतिष्ठा हो रही है। बसों पर, कारों पर, टैक्सी और ऑटो रिक्शा के पीछे उनका नाम और संदेश पढ़ा जा सकता है। कभी भी, कहीं भी, अनायास। कहीं उनके हाथ में ओम लिखा हुआ है। कहीं माथे पर बिंदी है, कहीं तिलक और कहीं तो उनके माथे पर शैव त्रिपुण्ड रचा हुआ है। कहीं उनकी हाथों से ज्योति पुंज फूटा पड़ रहा है। कहीं बाबा के सर के पीछे एक रौशनी का चक्र है। कहीं वो रेशमी वस्त्र धारण किए डमरू बजाते नाच रहे हैं। कहीं सोने के मुकुट सर पर सजाए हैं तो कहीं सिंहासन पर विराजे हैं। आसमानी, गुलाबी, बैंगनी, पीले, भगवा, हर रंग में, हर चोले में दिखाई पड़ते हैं बाबा।

छठे रोज़ जब निर्मला लौटी तो चाभी लेने के पहले उसने शांति के हाथ में एक प्लास्टिक की थैली थमा दी- बाबा का प्रसाद है! उस प्रसाद में थोड़ी लैया, थोड़ा रामदाना, कुछ सूखे हुए फूल और बाबा की एक रंगीन तस्वीर थी। गेरुआ वस्त्र पहने बाबा अपनी पहचानी मुद्रा में पैर पर पैर रखे बैठे थे। हर दो तीन महीनें में शांति को बाबा की ऐसी तस्वीर का प्रसाद मिलता रहता है। सालों पहले जब पहली बार उसे ऐसी तस्वीर मिली थी तो उसने बाबा की तस्वीर को सर झुका कर, पैर छू कर, अपने घर के मन्दिर वाले कोने में दूसरी मूर्तियों और तस्वीरों के साथ ही सजा दिया था। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, और श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ती गई, शांति के घर में इतनी तस्वीरें जमा हो गईं कि उन्हे सम्हाल पाना शांति के लिए मुश्किल होने लगा। जब घर के मन्दिर वाले कोने में  में कोई कोना खाली नहीं बचा। तो बाबा घर के दूसरे कोनों में प्रगट होने लगे। कभी रसोई की कपबोर्ड के कांच पर, कभी ड्राइंग रूम के शोकेस में, कभी उसकी बेडसाइड टेबल पर,  कभी आईने पर, तो कभी बच्चों के पढ़ने की मेज़ पर। बाबा की व्यापकता इतनी बढ़ी कि एक रोज़ बाबा की तस्वीर पैर के नीचे आते-आते बची। उस दिन शांति ने सारी तस्वीरें इकट्ठा की और एक बंडल बना के मन्दिर वाले कोने में बनी दराज़ के अन्दर अटा दीं। श्रद्धा के लिए एक तस्वीर ही काफ़ी थी। तो जब निर्मला के प्रसाद में एक बार फिर बाबा प्रगट हुए तो शांति ने तस्वीर को खेद सहित लौटाना चाहा। तो निर्मला ने उसका हाथ लगभग धकेलते हुए उसे समझाया- प्रसाद है, लौटाया नहीं जाता। शांति से कैसे बताती कि मन्दिर वाली दराज़ प्रसाद से गले-गले तक भर चुकी है, उसमें और जगह नहीं है। लिहाज़ा बाबा की एक और तस्वीर उनकी तस्वीरों की गड्डी में बंध गई।

शांति ने बाबा को पहली बार बड़े परदे पर देखा था। फ़िल्मों का एक बड़ा हसीन हीरो हुआ करता था जिसके इश्क़ में कई पीढ़ियों की लड़कियां आँसू बहाती रही थी। वो हीरो किसी वीराने में एक दरगाहनुमा मन्दिर में बाबा के बुत के आगे झूम-झूम कर क़व्वाली गा रहा था। उसके इस भक्ति का  बाबा पर इस क़दर असर हुआ कि बाबा की आँखों से एक ज्योति निकली और उसकी बिछड़ी हुई अंधी माँ की नैनों की रौशनी बन गई।  न जाने हीरो का प्रताप था या बाबा का- फ़िल्म ज़बरदस्त हिट हुई। और बाबा का नाम सब तरफ़ गूँजने लगा। ये वही दौर था जब जय सन्तोषी माँ फ़िल्म ने मुनाफ़े के सारे रेकार्ड तोड़ डाले थे। शांति को अपने बचपन में कुँवारी कन्या की हैसियत से हर शुक्रवार किसी ने किसी आंटी के घर से न्योता मिलता रहता। शानदार दावत होती, मान-सम्मान के साथ पैर छुए जाते, और गुड़-चने के प्रसाद के साथ कुछ रुपये भी मिलते। न जाने क्या हुआ- सन्तोषी माता की भक्ति का बाज़ार ही गिर गया। शायद अर्थवयवस्था के विकास और उपभोक्तावाद की आंधी में लोगों के जीवन से सन्तोष भाव ही बिला गया। जब भी शांति अपने कुँआरी कन्या वाले एडवेंचर पाखी को सुनाती, पाखी ईर्ष्या से जलभुन जाती-  किसी उद्यापन के लिए उसे कभी कोई बुलावा नहीं आया। किसी ने उसके पैर नहीं छुए। शांति कभी-कभी हैरान भी होती है कि सन्तोषी माता तो बिसरा दी गईं मगर बाबा की भक्ति का जादू सर चढ़ कर बोल रहा है।

ऐसे ही एक रोज़ इन्टरनेट पर शांति का सामना बाबा की एक वास्तविक तस्वीर से हो गया, जिसे उनके जीवित रहते ही किसी ने कैमरे में क़ैद कर लिया था। बाबा की बाक़ी तस्वीरों से एकदम अलग तस्वीर। नगे पैर खड़े बाबा ने बेरंग सा ढीला-ढाला कुर्ता पहना हुआ है। कुर्ते के नीचे न तो पाजामा है और न धोती। सर और कंधो पर एक लम्बी सी चादर पड़ी हुई है। एक कंधे पर एक झोला जैसा कुछ है, जिसे दूसरे हाथ से बाबा सम्हाल रहे हैं। झोले वाले ही हाथ में एक छोटा सा डब्बा है। न जाने क्यों शांति को लगा कि बाबा का डब्बा खाली है। जिस हलके अन्दाज़ में बाबा अपनी दो उंगलियों से डब्बे को साधे हुए दिख रहे हैं- मुश्किल है कि उसमें कुछ भी रहा होगा। नज़र झोले पर गई तो लगा कि झोला भी खाली है। भरे हुए झोले की लटकन अलग होती है। ये खाली झोला ही होता है जो बार-बार कंधे से उतर जाता है। सुना भी है कि बाबा भीख माँगकर खाते थे और मस्जिद में सोते थे। ऐसे निस्पृह बाबा लगभग चकित और जिज्ञासु भाव के कैमरे की ओर, और एक तरह से हर देखने वाले की ओर ताक रहे हैं- जैसे उसकी मंशा समझने की कोशिश कर रहे हों।

इन्टरनेट की इस तस्वीर में न रंगीन चोले थे, न मुकुट था, और न ही सिंहासन। तो फिर मन्दिर वाली दराज़ में गट्ठर में बंधी उन ढेर सारी तस्वीरों में क्यों है? शांति सोच में पड़ गई-  हाथ में खाली डब्बा लेकर नंगे पैर खड़े होने वाले आदमी को धकेलकर सोने के सिहांसन पर बिठा, उसके सर पर सोने का ताज रखने में क्या राज हो सकता है?  बाबा की दो शब्दों की शिक्षा तो बड़ी प्रसिद्ध है- श्रद्धा और सबुरी। कहीं ऐसा तो नहीं कि भक्त बाबा के रंग में रंगने के बदले, बाबा ही भक्तों के रंग में रंगे गए?

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22 अप्रैल को दैनिक भास्कर में छपी
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