नाना
की तेरहीं मंगल की थी। बड़े
मामाजी के तीनों बेटे बाहर
रहते हैं और ख़ुद उनको गठिया
की पुरानी शिकायत है। तो अनेक
आशीर्वाद के साथ सामान की एक
लिस्ट मामाजी ने शांति को सौंप
दी थी। शांति ने सोचा कि बजाय
इतवार ख़राब करने के शनिवार
को ही सारा काम निबटा लिया
जाय। उस दिन दफ़्तर की आधी
छुट्टी होती है-
दोपहर
के बाद सारी ख़रीदारी कर लेगी।
उस दिन शांति सुबह नौ बजे घर
से निकली। आम तौर पर शनिवार
के दिन शांति टिफिन लेके नही
जाती है। पर उस दिन शांति टिफिन
लेकर गई। जैसा कि उसने सोचा
था एक बजे तक उसने काम किया और
फिर फाइलें समेट दीं,
दराज़ों
में ताला लगा दिया और लैपटॉप
शटडाउन कर के खाना खा लिया।
तब तक दफ़्तर लगभग सन्नाटा
हो गया था। चलने से पहले शांति
ने सोचा न जाने बाज़ार में
कितना समय लगे-
बाथरूम
हो लूँ। बाथरूम पहुँचने से
पहले ही उसे भाड़-भूड़
की आवाजें सुनाई पड़ने लगी
थीं। पर बाथरूम में घुसने पर
ही समझ आया कि वहाँ मरम्मत चल
रही है। बगल में ही जैन्ट्स
टॉयलेट था और पूरी तरह सुनसान
था पर शुचिता के मद्देनज़र
उसका इस्तेमाल पूरी तरह वर्जित
था, लिहाज़ा
शरीर के आवेग को दबा दिया।
अगर
अपने लिए ख़रीदारी करना होती
तो शायद शांति सस्ते के बजाय
सहूलियत का चुनाव करती और कहीं
आस-पास
से ही सारी ख़रीदारी निपटा
लेती। मगर बड़े मामा जी का
पूरा ज़ोर सस्ते पर था इसीलिए
तो वो अपने क़स्बे के जाने-पहचाने
व्यापारियों को छोड़कर शांति
की कर्तव्यपरायणता का सहारा
ले रहे थे। सस्ता सामान लेने
के लिए शांति भीड़ भरे रास्तों
से होते हुए शहर की पुरानी
गलियों में आबाद थोक के बाज़ार
जा पहुँची। गाड़ी,
मोटर,
स्कूटर,
साइकिल,
रिक्षा,
गाय,
कुत्ते,
ठेले,
सब
एक रफ़्तार से और एक अधिकार
से अपने आगे बढ़ने का रस्ता
ढूँढ रहे थे। उन सब मे शायद
सबसे सफल चूहे थे जो निर्द्वन्द्व
और निरपेक्ष भाव से बड़ी
रफ़्तार से गलियों में विचरण
कर रहे थे। शहर के नागरिक सड़क
पर ही चाट और मिठाइयों का स्वाद
ले रहे थे और सड़क पर ही दोने,
पत्तल,
और
कुल्हड़ फेंक रहे थे। और कुछ
लोग वहीं सड़क पर खड़े होकर
अपनी शंकाओ का समाधान कर रहे
थे। और उनमें से एक नागरिक तो
इतना ढीठ निकला कि जिस जगह
शांति अपने स्कूटर पर बैठे-बैठे
ट्रैफ़िक के आगे सरकने का
इंतज़ार कर रही थी,
ठीक
उसी के सामने पैंट खोलकर पेशाब
करने लगा।
शांति
ने यकायक चीख पड़ी-
'क्या
कर रहे हो..
'
'क्या
कर रहे हैं..?'
'अब
बताना पड़ेगा कि क्या कर रहे
हो..
हद
है बेशर्मी की..'
'न
करें?'
'हे
भगवान..
तो
और क्या कह रहे हैं...
?'
शांति
की डाँट का
लगभग बुरा सा मानते हुए वो
नागरिक वहाँ से चलता बना। न
चाहते हुए भी इस प्रकरण से
शांति को अपनी शंका की याद हो
आई। पर न तो वो उनकी तरह सड़क
पर खड़े होकर फ़ारिग़ हो सकती
थी और न ही उसे आस-पास
किसी टॉयलैट के होने की कोई
उम्मीद थी। उसने अपने शारीरिक
आवेग से ध्यान हटाकर उस काम
पर केन्द्रित किया जिसके लिए
वो आई थी।
बाज़ार
भाव समझने के लिए दो-तीन
दुकानें देखना ज़रूरी था।
कपड़ों की अलग और बरतनों की
अलग। शांति ने सोचा था कि वो
अपने आवेग को दबाए-दबाए
सारे काम निबटाकर घर जाकर
फ़ारिग़ होएगी पर बरतनों की
बारी आई नहीं कपड़े ख़रीदते-ख़रीदते
ही वो बेचैन होने लगी। सब काम
ख़त्म करके घर पहुँचने में
उसे कम से कम दो घंटे और लगने
वाले थे। तब तक बरदाश्त करना
असम्भव हो जाएगा। इस सूरत में
उसके पास दो ही रास्ते थे-
या
तो सब ख़रीदारी छोड़छाड़ कर
घर को भागे या फिर आस-पास
ही कोई लेडीज़ टॉयलैट तलाशे।
लौटकर
घर जाने का विकल्प बेकार था
सो शांति उसी कचर-मचर
में थोड़ी देर भटकती रही और
उसकी उम्मीद के विपरीत एक सुलभ
शौचालय उसे मिल भी गया। शांति
ने सोचा कि चलो मुश्किल से
आज़ादी मिली। पर ऐसा होना न
था। अपने आवेग को मार्ग देने
की मानसिक तैयारी कि लेने के
बाद जब शांति ने सुलभ शौचालय
के महिलाओं वाले भाग में प्रवेश
किया तो वो एक व्यक्ति से
टकराते-टकराते
बची। यह व्यक्ति एक बाईस-तेईस
बरस का नवयुवक था। शांति एक
पल को अचकचा गई। वो उलटे पाँव
वापस लौट आई। उसे लगा कि ग़लती
से वो पुरुषों के भाग में चली
आई। पर बाहर आके उसने देखा कि
कोई ग़लती नहीं हुई थी-
वो
पुरुषों के भाग में नहीं घुसी
थी, बल्कि
वो नवयुवक ही था जो महिलाओं
के भाग में अनाधिकार रूप से
घुसा हुआ था।
तमतमाकर
शांति उसे हड़काना शुरु किया-
'दिखता
नहीं है..
अंधे
हो क्या..
बाहर
इतना बड़ा-बड़ा
लिखा है फिर भी यहाँ घुस आए..
पढ़ने
नहीं आता है या लफंगे हो..'
'क्या
बात हो गई बहन जी..'
शांति
ने सर घुमाकर देखा कि महिलाओं
वाले विभाग से दो-तीन
और नागरिक उसके आस--पास
इकट्ठे हो गए हैँ। इसके पहले
कि शांति कुछ और कहती वो नवयुवक
ही शांति की शिकायत करने लगा-
'पता
नहीं कोहे गरम हो रहीं भैया..
जैसे
ही हम पेसाब करके बाहर निकले..
लगी
हमको हड़काने.
.'
उस
नवयुवक और उस भीड़ के हाव-भाव
और तेवर से शांति को ये समझ आ
गया कि भले ही उसकी आपत्ति सभी
पैमानों पर जायज़ हो पर वो जिन
से मुख़ातिब थी उनकी चेतना
को किसी पैमानों की कोई हवा
नहीं थी। अगर शांति पर उसके
शारीरिक आवेग का दबाव न होता
तो वो उनकी क़ायदे से ख़बर
लेती। उसने सोचा कि पहले फ़ारिग़
हो लो फिर उनसे बात करती है।
पर अन्दर का जो दृश्य था वो और
भी बेढब था। शहर के नागरिक
महिलाओं के लिए बने उस मूत्रालय
में मल-मूत्र
करने और नहाने-धोने
से लेकर वो सारे काम किए जा
रहे थे जो एक टॉयलैट में किए
जा सकते हैं-
और
वो सब मर्दों द्वारा सम्पन्न
किए जा रहे थे। किसी महिला का
वहाँ कोई स्थान नहीं था। क्योंकि
शायद शहर के पुरुष यह उम्मीद
करते थे कि महिलाएं घर से निकले
ही ना और अगर निकले भी तो अपने
आवेगोँ को दबाकर रखें।
इस
अन्याय से उपजे अपने आक्रोश
का आवेग तो शांति ने उस समय
निकाल दिया। पर शहर में घर से
बाहर निकलने वाली हर औरत की
तरह शांति को भी अपने दूसरे
आवेग को उस रोज़ बहुत ज़ब्त
करना पड़ा और बहुत सहन करना
पड़ा। जबकि उसी शहर में रहने
वाला पुरुष अपने आवेगों के
लिए दो क़दम और दो मिनट का
अन्तराल भी सहन नहीं करता।
***
(इस इतवार दैनिक भास्कर में छपी)
4 टिप्पणियां:
अनुशासन भंग कर खींसे निपोरना यहाँ के युवकों की आदत बन गयी है।
बात दिखने में मामूली लगती है पर है नहीं..!
निश्चित रूप से इतनी असभ्यता शहरों में ही देखने को मिल सकती है, इसमें कोई शंका नहीं।
Aap bhi niymitata dawab mein aa hi gaye.
chalo jaan kar khushi huyee ki aap bhi ek insaan hi hain.
kitna सटीक रेखांकन किया है आपने....
एकदम सही....कितने लोग सोचते और संवेदनशील होते हैं इस विषय पर...
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