शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

छुपन -छुपाई



शाम के समय दफ़्तर सिर्फ़ सन्नाटे से गूँज रहा था। शांति को दीवार की ओर मुँह करके सौ तक गिनती गिननी थी पर उसने नहीं गिनी थी। फिर भी अचरज छुप गया था। शांति को उसे खोजना था पर शांति का मन खेल में नहीं था। दफ़्तर ख़त्म हो गया था पर शांति का काम ख़त्म नहीं हुआ था। छूटे हुए कामों ने उसके मन को उलझा रखा था। अचरज ऐसी किसी उलझन में नहीं था। वह शुद्ध प्रतीक्षा कर रहा था ख़ुद को खोज लिए जाने की। यह जैसे शिकारी और शिकार का एक खेल था। शांति को शिकारी होना था और अचरज शिकार की भूमिका में था। वो जो महसूस कर रहा था वो शायद एक आदिम रोमांच था जिसने उसके शरीर की सारी इंद्रियों को अपने चरम सामर्थ्य तक खींच डाला था। आँखों और कान निहायत चौकन्ने, हाथ-पैर किसी भी पल हरकत में आ जाने के लिए तत्पर और दिल पूरे शरीर में ख़ून को तेज़ी से फेंकने के लिए धौंकनी सा धौंक रहा था। एक-एक पल के प्रति सचेत था वो। जब बहुत लम्बे-लम्बे ढेर सारे पल यूँ ही बीत गए तो उसने बहुत हौले से झांक कर देखा उस दिशा में जिधर से शांति को आना था। शांति वहीं अपनी मेज़ के पीछे अपने लैपटॉप में सर सटाए बैठी थी।
ममा, मैं छुप गया हूँ.. आओ! अचरज वापस अपने छुपने की जगह जाकर उत्तेजना में उतराने लगा।

अचरज स्कूल से सीधे शांति के दफ़्तर आ गया था क्योंकि घर पर न तो सासू माँ थीं और न ही पाखी। और दफ़्तर अचरज के लिए एक अनोखा संसार था। उसका विस्तार, उसकी ऊँची छत, छोटे-छोटे चौकोर हिस्सों में विभाजित लम्बे काउन्टर, और हर कुछ का सलेटी-नीली रंगत में रंगा होना भी अचरज के लिए एक भूलभुलैया सा है। चमचमाती रौशनी से जगमगाने के बावजूद वो सारा कुछ अचरज के लिए एक रहस्य के खोल से ढका हुआ है। उस रहस्य का अनजानापन अचरज के लिए भय और उत्तेजना का आधार है।

इसी भय और उत्तेजना की राह से गुज़रकर उसने सबसे पहले घर के अनजानेपन का अनुसंधान किया था। फिर घर से निकलकर जिस-जिस इमारत में रहे उन इमारतों का अनुसंधान किया था। और फिर स्कूल में भर्ती हो जाने के बाद स्कूल में सहज रूप से न दिखने वाले कोनों और अँतरों में छुपे हुए आयामों का भी अपने साथियों के साथ अन्वेषण किया था- बिना यह जाने कि स्कूल में दाख़िला लेने वाली हर पीढ़ी उन्ही कोनों का बार-बार अन्वेषण करती है और उसके रोमांच से गुज़रती है।

अचरज की आशा थी कि उसके शिकार का चरम किसी दबोच लिए जाने वाली चेष्टा या फिर चौंका देने वाले सुर से होगा। पर शांति ने जो किया वो बिलकुल भी उस स्वभाव का नहीं था। अपनी उलझनों को लपेटती हुई सी शांति आई और सिर्फ़ यह कहकर उसके बग़ल से गुज़र गई – चलो! न कोई हमला, न कोई चीख, न जक़ड़ने की जल्दी और न बच निकलने की हड़बड़ी - शिकार के किसी तत्व का कुछ भी नहीं मज़ा नहीं मिला अचरज को। वो मायूस हो गया। अपनी जगह से हिला भी नहीं। शांति खीजकर उलटे पाँव लौटी और लगभग उसे घसीटते हुए सी अपने साथ नीचे ले गई।

पर ममा, तुमने प्रौमिस किया था..
हाँ किया था.. पर अभी टाईम नहीं है बेटा.. घर भी तो जाना है..
प्लीज़ ममा.. चलो खेलो न.. प्लीज़ ममी प्लीज़..
अचरज अपने बालहठ में उतरकर पैर पटकने लगा। हारकर शांति ने समझौते की राह लेनी चाही- अच्छा ठीक है.. घर चलकर खेलेंगे..
घर पर तो मैं रोज़ खेलता हूँ.. यहाँ खेलते हैं न ममा.. कितनी बड़ी जगह है.. यहाँ कितना मज़ा आएगा..

शांति ने उसे फिर से बहलाने की कोशिश की पर अचरज ने ठुनकना शुरू कर दिया। तब तक शांति उसका हाथ पकड़ कर खींचते हुए पार्किंग तक ले आई थी। शांति ने उसे झांसा दिया कि दफ़्तर में तो चौकीदार ने ताला मार दिया होगा- तो वहाँ लौटना तो मुमकिन नहीं और अपनी नेकनीयत दिखाने के लिए उसे पार्किंग में छुपन-छुपाई खेलने का प्रस्ताव दे डाला। अचरज ने नज़र उठाकर देखा- पार्किंग में अंधेरे और उजाले का एक अजब चितकबरा दृश्य फैला हुआ था। काफ़ी कुछ ख़ाली पार्किंग में कहीं-कहीं कारें और मोटरसाईकलें खड़ी हुई थीं। वो एक ऐसी जगह थी जो नन्हे अचरज के लिए बिलकुल अपरिचित और अनजान थी। उसे देखकर ही अचरज के दिल में अज्ञात के भय की एक लहर सी थरथराने लगी। उस भय की छायाओं को उसके चेहरे पर देख शांति को यह उम्मीद हुई थी कि वो ना कर देगा। पर अचरज ने हामी भर दी।

शांति के पास अपने ही प्रस्ताव से पलट जाने का विकल्प नहीं बचा। अचरज एक बार शिकार बन चुका था- अब शांति की शिकार बनने की बारी थी। शांति ने सोचा- वो ऐसी जगह छुपेगी जहाँ से उसे खोजने में अचरज को ज़रा भी मशक़्क़त न करनी पड़े। अचरज उसके स्कूटर के पास वाली दीवार में मुँह गड़ाकर गिनती गिनने लगा और शांति उससे एक खम्बा छोड़कर दूसरे खम्बे के पीछे छुपकर खड़ी हो गई। लेकिन शांति उस पल में मौजूद ही नहीं थी। वह दो घंटे पहले के पल में पैदा हुई किसी दफ़्तरी चिंता में बार-बार गोते खा रही थी।

वहीं खड़े-खड़े जब कुछ मिनट गुज़र गए और अचरज नहीं आया तो अचानक शांति को फ़िक़्र हुई। उसने मुड़कर देखा -अचरज नहीं दिखा। खेल के नियम के अनुसार उसे हर सूरत में अपने आपको छुपाए रखना चाहिए पर वो खेल भूल गई और खम्बे की आड़ छोड़कर वो अचरज को देखने के लिए पार्किंग के बीचोबीच आ खड़ी हुई। फिर भी अचरज उसे कहीं नहीं दिखाई दिया। शांति ने आवाज़ दी- अचरज!! कोई जवाब नहीं आया। दो-तीन बार और पुकारा- कोई जवाब नहीं। फिर तो बुरी तरह घबरा गई शांति। हड़बड़ाए क़दमों से पहले पार्किंग के एक कोने तक दौड़ गई और फिर दूसरे कोने तक। अचरज कहीं भी नहीं मिला। तरह-तरह के डर उसके मन में उमड़ने लगे। हथेलियों से पसीना छूटने लगा, मुँह सूख गया, सांसे उखड़ने लगीं। क्या करे - कुछ समझ नहीं पा रही थी। दिमाग़ हज़ार दिशाओं में एक साथ दौड़ने लगा। उसे ऐसा लगने लगा जैसे कि पैरों में जान ही न हो- सारी शक्ति निचुड़ के कहीं बह गई हो। लगा कि चक्कर खाके गिर पड़ेगी। तो खम्बे के सहारे जैसे ही अपनी देह को टिकाया एक तीखी आवाज़ ने उसे बुरी तरह चौंका दिया। एक पल वो आवाज़ भय की एक लहर बनकर उसके ह्रदय को चीरती चली गई और कहीं गहरे जाकर चुभ सी गई। वो अचरज था जो खम्बे के पीछे से आकर शिकार कर लेने का विजयघोष कर रहा था। अचरज की उत्तेजना में एक शिकारी की सफलता की ख़ुशी थी। पर शांति ख़ुश नहीं हुई, वो झुंझला गई और चिड़चिड़ाने लगी और किसी तरह से अचरज को झापड़ मारने से ख़ुद को रोका। खो जाने और मिल जाने का जो आदिम खेल अचरज खेलना चाह रहा था उसका कोई स्वाद था जो शांति बड़े होने की कसरत में कहीं भूल आई थी।
***


4 टिप्‍पणियां:

मीनाक्षी ने कहा…

कितने इत्मीनान से आप ज़िन्दगी की छोटी छोटी बारीकियों को लिख जाते हैं...

पद्म सिंह ने कहा…

ऐसी कहानी जो हर माँ बाप के जेहन मे अनचाहे घुमड़ती है... सोच कर सिहर जाते है मन

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बिछड़ने का क्षणिक विचार भी कितनी पीड़ा दे जाता है।

अनूप शुक्ल ने कहा…

बहुत बारीक संवेदना वाली कहानी!
ऐसा अक्सर होने लगा है अब तो! :(

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