शांति जब दरवाज़ा खोलकर अन्दर घुसी तो उसकी उम्मीद थी कि दोनों बच्चे सो चुके होंगे। बहुत हौले से अजय और शांति घर में दाख़िल हुए। अजय ने अपने कपड़े उतार कर किनारे कर दिए और नहाने चला गया। उसी दौरान दोनों बच्चे कमरे में आ गए। हलकी आहटों से बचपन की गाढ़ी नींद नहीं खुला करती। शांति समझ गई वो पहले से जगे हुए थे और शायद उनका इंतज़ार कर रहे थे। एक रोज़ पहले शांति के नाना का देहांत हो गया। और वो अजय के साथ दफ़्तर से सीधे अपने ननिहाल चली गई थी। शांति ने बच्चों को बता दिया था और बीच-बीच में उनकी ख़बर भी लेती रही थी। बच्चे शांति के नाना से एक बार मिले थे। उनसे भावना का कोई जुड़ाव नहीं था पर उनके बारे में जानने को उत्सुक ज़रूर थे। शायद ये समझना चाह रहें हों कि जिस झुर्रीदार चेहरे और जर्जर काया को उन्होने देखा था- क्या था उसमें ऐसा कि उनके माँ-बाप दोनों भागे-भागे चले गए। शुरुआत अचरज ने की-
नाना
मर गए..?
हाँ
बेटा..
कितने
साल के थे नाना..
?
बानबे
साल के..
बानबे..
?
बानबे
मतलब नाइन्टी टू..
क्या
हुआ था उनको..
?
बीमारी
तो कोई नहीं थी..
बस बूढ़े
हो गए थे..
क्या
सचमुच उन्हे कोई बीमारी नहीं
थी, अब
पाखी ने पूछा।
न..
दवा खाकर
ठीक होने वाली कोई बीमारी नहीं
थी..
तो
फिर मर क्यों गए..
? अचरज ने
पूछा।
यह
मुश्किल सवाल था। क्यों मर
जाते हैं लोग?
नाना बहुत
मेहनती थे। अस्सी साल की उमर
तक अपने सारे काम अपने आप करते
थे। अपने कपड़े भी आप धोते थे।
घूरकर देख देते थे तो सामने
वाला घबराकर भाग खड़ा होता
था। कड़कती आवाज़ में किसी
को डाँट देते थे तो उसका पेशाब
निकल जाता था। चलते थे तो ऐसा
लगता था कि सरपट दौड़ रहे हों।
उन्होने न तो कभी अंग्रेजी
दवा खाई और न कभी हस्पताल का
मुँह देखा। हमेशा हाज़मा
दुरुस्त रहा। रोज़ नियम से
दो घंटे पूजा करते थे और पूजा
करके ही खाते थे। दिन में एक
ही बार टट्टी जाते और अगर कभी
संयोग से दूसरी बार गए भी तो
चाहे पूस की आधी रात हो और आसमान
से बरफ बरस रही हो-
नहाते ज़रूर
थे। पर पचासी आते-आते
नाना की देह ने जवाब देना शुरु
कर दिया। आवाज़ में थरथराहट
आ गई। हाथ की पकड़ ढीली पड़
गई। पैर डगमगाने लगे। एक हाथ
से दूर के आदमी को पहचानने में
धोखा खाने लगे। फिर भी दिल,
कलेजे और
गुर्दे पर कोई असर न हुआ। सब
कुछ खा कर पचाते रहे। फिर भी
मर गए। क्यों मर गए -ये
तो शांति को भी ठीक-ठीक
नहीं मालूम।
शांति
के पैर को थपथपाकर अचरज ने फिर
से पूछा-
ममा बताओ
न क्यों मर गए नाना..
?
मुर्दे
सवाल नहीं करते। जीवित लोग
ही सवाल करते हैं। चूंकि जीवित
लोगों के लिए जीवन सहज अवस्था
है और मर जाना उस सहजता से
विक्षेप -
एक अपवाद।
इसीलिए हम कभी सवाल नहीं करते
कि हम क्यों जी रहे हैं। ये
सवाल भले कर लें कि बच्चे कहाँ
से आते हैं पर ये सवाल नहीं
करते कि बच्चे क्यों पैदा होते
जा रहे हैं। और हर पैदा होने
वाला बच्चा कभी न कभी ये सवाल
पूछ ही लेता है जो अचरज शांति
से पूछ रहा था-
वो क्यों
मर गए।
वो
मर गए क्योंकि एक दिन सबको
मरना होता है-
शांति ने
एक आर्यसत्य दोहराया।
वो
कह सकती थी कि मरने के एक-दो
महीने पहले से नाना को खाने
में बहुत तकलीफ़ होने लगी थी।
कुछ भी उनके गले से उतरता नहीं
था। रोटी,
बिस्कुट,
फल,
हर चीज़
वो मुँह में डालकर चूसकर उगल
देते थे। उनके गले की नली सूख
गई थी। उन्हे हस्पताल ले जाकर
भर्ती करने की कोशिश की गई-
वो नहीं
माने। गले में प्लास्टिक की
नली डालकर खाना खाने को भी वे
राजी नहीं हुए। धीरे-धीरे
उनका सारा बदन सिकुड़ता चला
गया। हड्डियो से जो मांस झूलता
रहता था- वो
सब सूख गया। नाना के नाम पर
मुरझाई हुई खाल में लिपटा हुआ
एक कंकाल भर रह गया। अगर वो
अचरज को ये सब बताती तो शायद
वो कहता कि नाना भूख से मर गए
थे। पर कहा ये भी जा सकता था
कि उन्होने किसी तपस्वी की
तरह अनशन करके अपने शरीर को
छोड़ दिया था।
मरने
के बाद लोग स्वर्ग में जाते
हैं न? अचरज
ने पूछा।
सब
लोग नहीं..
कुछ लोग
नरक में भी जाते हैं-
पाखी ने
उसकी बात को छाँटा।
तो
नाना जी स्वर्ग में गए कि नरक
में? अचरज
के प्रश्न हनुमान जी की पूँछ
की तरह थे।
शांति
के पास उसके सवाल का कोई भी
सच्चा और संतोषजनक जवाब नहीं
था। बहुत सारे संतोषजनक जवाब
थे पर वो सारे के सारे झूठे
थे। एक सच्चा जवाब था मगर
संतोषजनक न था-
मृत्यु के
क्षण के बाद अज्ञात का एक अनन्त
अंधेरा था। वो अंधेरा इस क़दर
बेचैन करने वाला था कि कोई उसे
स्वीकार करने को राजी नहीं
था। दुनिया की हर संस्कृति
ने इस सवाल से जूझने के बाद
उसके आगे घुटने टेक दिये हैं
और मृत्यु के बाद के अनन्त
अंधेरे पर अपनी कल्पना की
पच्चीकारी की है। स्वर्ग और
नरक के विचार में मृत्यु के
बाद जीवन की कल्पना छिपी है।
ऐसी ही दूसरी कल्पनाएं हर
संस्कृति ने मृत्यु पर आरोपित
की हैं। किसी में सालोंसाल
क़ब्र में दबे रहने के बाद एक
रोज़ सारे मुर्दों का उठाकर
हिसाब कर दिया जाता है और अनन्त
काल तक जन्नत या अनन्तकाल के
लिए दोज़ख़ में धकेल दिया जाता
है। तो किसी संस्कृति में देह
के मर जाने के बाद भी एक अंगूठे
के आकार का प्रेत बचा रहता है
जो खा-पी
कुछ भी नहीं सकता मगर भूख और
प्यास से पीड़ित रहता है और
यमदूतों के साथ यमलोक की यात्रा
करता है। अगर उसके प्रियजन
उसके लिए तर्पण और श्राद्ध न
करें तो इधर-उधर
भटकता फिरता है। कुछ मानते
हैं कि शरीर के साथ आत्मा नाम
का जो अज्ञेय तत्व होता है वो
रौशनी के एक मैदान में जाकर
अपनी थकान मिटाता है और फिर
एक नया शरीर धारण कर फिर से
जन्म लेता है।
नाना
जी कहीं नहीं गए..
वो हमारे
आस-पास
ही हैं.. हमें
देख रहे हैं और हमारी रक्षा
कर रहे हैं-
शांति ने
संतोषजनक झूठ का विकल्प चुना।
यह एक विचित्र झूठ था। इस झूठ
में किसी भी चेष्टा और प्रतिक्रिया
से हीन हो जाने पर जिसे मरा
मान लिया गया,
वही मरने
वाला मरकर इतना शक्तिशाली हो
जाता है कि अपने प्रियजनों
की हिफ़ाज़त करने लगता है।
अचरज के लिए यह थोड़ी मज़ेदार
बात थी और थोड़ी डरावनी। उसने
अगला सवाल नहीं पूछा और चुपचाप
कमरे के भीतर एक अदृश्य आदमी
की कल्पना से रोमांचित होने
लगा।
आदमी
के भीतर जीने की कितनी तगड़ी
वासना है कि मृत्यु की इतनी
विविध और विचित्र कल्पनाओं
में आदमी ने कहीं भी मृत्यु
के विचार को कोई मान नहीं दिया।
मरनेवाले को मरकर भी जीवन की
रक्षा करनी पड़ती है।
***
(इस इतवार दैनिक भास्कर में छपी)
7 टिप्पणियां:
जिज्ञासा बहुत कुछ करवाती है।
सही है।
जन्म मृत्यु जरा व्याधि, मौलिक प्रश्न हैं।
बहुत दिनों से मन जीवन मृत्यु में ही उलझा हुआ है.नर्क स्वर्ग तो खैर है नहीं.
घुघूती बासूती
सही...
सुन्दर विमर्श कथा माध्यम से...
ज़िन्दगी और मौत के बीच का फलसफ़ा जानने की जिज्ञासा तो होती है...
सादर आमंत्रण आपकी लेखनी को... ताकि लोग आपके माध्यम से लाभान्वित हो सकें.
हमसे प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से जुड़े लेखकों का संकलन छापने के लिए एक प्रकाशन गृह सहर्ष सहमत है.
स्वागत... खुशी होगी इसमें आपका सार्थक साथ पाकर.
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