शनिवार, 10 सितंबर 2011

एक चुटकी नमक



समय से दफ़्तर पहुँचने के इरादे में शांति की सुबहें काफ़ी हड़बड़ी से गुज़रती हैं। हड़बड़ी की उस अपवित्र नदी में रोज़-रोज़ उतरने से बचने का नया तरीक़ा शांति ने यह निकाला कि पूरे घर की घड़ियाँ दस मिनट आगे कर दीं। अपने आप को बुद्धू बनाने की इस मासूम कोशिश में शांति लगभग कामयाब हो ही गई थी। सब कुछ जानते हुए भी उस ने सुबह के सारे काम दस मिनट पहले कर लिए और दस मिनट पहले दरवाज़े के बाहर भी हो गई। वो बिना किसी हड़बड़ी के दफ़्तर पहुँच ही गई होती मगर एक आवाज़ ने उसे रोक लिया।

हलो जी.. मैं मीना हूँ..’ शांति ने देखा कि एक छरहरी और सलोनी महिला सामने के फ़्लैट में से उस की ओर मुख़ातिब है। जिस तरह के मुख़्तसर अंदाज़ से जिस संवाद की शुरुआत हुई, उसी तरह पर क़ायम नहीं रहा। मीना ने अगले आठ मिनटों को अपने परिचय के नाम किया। शांति अपने तेज-तरार्र छवि के बावजूद किसी दोस्ताना अजनबी से बदतमीज़ी करने का साहस नहीं रखती थी। अपना परिचय हो जाने के बाद मीना ने उसे नई दोस्ती की शुरुआत माना और दोस्ती में शक्कर जैसी मामूली चीज़ को आड़े नहीं आने देने का ऐलान भी कर दिया- आपके पास थोड़ी सी शक्कर होगी क्या..? भला भारत का ऐसा कौन सा बदनसीब घर होगा जिसके अन्दर थोड़ी सी शक्कर रखने की भी गरिमा न हो। मदद शब्द के आगे बेबस होकर तत्पर हो जाने वाली शांति को शक्कर ला कर देने में पूरे डेढ़ मिनट लगे। और अगले साढ़े चार मिनट मीना ने शांति का धन्यवाद करने में लगाए जिसके आदान-प्रदान से दो पड़ोसियों की दोस्ती की बड़ी मीठी शुरुआत हुई थी। अपनी मीठी पड़ोसन से मुक्ति पाने के क्षण में शांति अपनी घड़ी के अनुसार पूरे चौदह मिनट लेट हो चुकी थी और उसके भीतर रोज़ से कहीं ज़्यादा हड़बड़ी मची हुई थी। हालांकि ये ख़याल उसे दफ़्तर जाकर ही आया कि उसने घड़ी दस मिनट आगे कर दी थी।

उस दिन जब शांति लौटकर आई तो मीना उसे बाहर ही मिल गई। इस बार उसने अपने बारे में कम बात की। सात मिनट उसने दूसरे पड़ोसियों के जीवन के कुछ ऐसे पहलुओं को अपने बयान से रौशन किया जिनके विषय में शांति को कई साल के परिचय के बाद भी कुछ हवा नहीं थी। शांति ने माना कि उसकी नौकरी ही इस ग़फ़लत के लिए ज़िम्मेदार थी। और इस क्षेत्र में अपनी प्रतिभाहीनता की बात को पूरे तौर पर छिपा ले गई। अगले तीन मिनट मीना ने शांति की नौकरी की बारीक़ियों को समझने में समर्पित किए। और शांति ने बिना ये ख़याल किए कि मीना उन सूचनाओं को एक ख़ुराक़ की तरह ग्रहण कर रही है। और मुलाक़ात शेष होने ठीक पहले मीना ने एक आलू माँगकर पड़ोसी धर्म की नींव को और पुख़्ता किया।

फिर तो रोज़ सुबह-शाम, दफ़्तर आते-जाते यही क्रम हो गया। शांति इस बात का फ़ैसला कर ही नहीं पाती थी कि चीज़े माँगने के लिए मीना बातों की भूमिका बनाती है या फिर बतरस की तलब में चीज़े माँगने का बहाना करती है। क्योंकि न तो कभी उसकी बाते शेष होतीं और न ही छोटी-मोटी चीज़ों की माँग। उसके घर में कभी धनिया नहीं होता, कभी अदरक, कभी मिरचा, तो कभी दही। एक दो शांति ने यह भी सोचा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि वो कुछ खरीदती ही नहीं, सिर्फ़ माँगकर ही काम चलाती है- शांति को क्या पता.. और किसके घर से वो क्या-क्या माँगती है। लेकिन फिर शांति को अपनी ही सोच पर कोफ़्त हुई।

फिर एक सुबह मीना आ गई ‘शांति, बड़ी मुसीबत है.. मुझे तो ये फ़ोन ही समझ नहीं आता.. नम्बर किसी को कैसे भेजते हैं?’ बस हो गई पन्द्रह मिनट की छुट्टी। जब तक शांति उसे एक सरल और सुलभ तरीक़ा समझाती, मीना अपने प्रचार उपकरण में अटकी हुई सूचनाओं से अपने को ख़ाली करती रही। फ़ोन की समस्या सुलझी तो सीडी में उलझ गई। ‘देखो न, न जाने क्या हो गया है इस सीडी को.. ज़रा चेक तो करो मेरे यहाँ चल ही नहीं रही.. मेरी बड़ी फ़ेवरिट सीडी है, मेरे भगवान के भजन है इसमें.. सुनती रहती हूँ इसे..’ वैसे बड़ी भक्त क़िस्म की औरत है मीना। सवेरे शाम पूजा करती है। हफ़्ते में दो दिन उपवास रखती है और तीन दिन मन्दिर जाती है। और जब भी मन्दिर जाती है शांति को प्रसाद देना नहीं भूलती। अगर उस दिन शांति न मिले तो अगली बार मिलने पर सारे प्रसाद चुकता कर देती है।

एक दिन शांति नीबू लेने नुक्कड़ की दुकान तक जा रही थी कि दरवाज़ा खोलते ही मीना दिख गई। शांति को लगा कि ज़रूर कुछ माँगेगी और माँगा भी- ‘आपके पास बाम होगा क्या.. बड़ा सरदर्द हो रहा है दोपहर से..’ शांति के पास बाम नहीं था। वो चलने लगी।
किधर जा रही हो..’
नुक्कड़ तक.. नींबू लाने..’
नींबू..? तो उसके लिए नुक्कड़ तक क्यों जा रहे हो.. हम क्या मर गए हैं..’

मीना के स्वर में एक विचित्र तल्ख़ी थी। शांति को अचानक एहसास हुआ कि उसने अलिखित पड़ोसी धर्म के विरुद्ध आचरण किया। किसी तरह उसने बात को सम्हाला और मीना की आहत भावनाओं की रक्षा की। उस दिन के बाद से शांति किसी चीज़ की अचानक ज़रूरत खड़ी होने पर पहले मीना के बारे में सोचती, बाद में किसी और के बारे में। मगर परस्पर प्रेम के ये भले दिन ज़्यादा दिन नहीं टिके। मीना के मकान की लीज़ ख़त्म हो गई और वो दूसरे मुहल्ले में रहने चली गई। जब से वो गई है शांति को दफ़्तर से आते-जाते कोई नहीं टोकता, कोई नहीं रोकता। मुहल्ले में क्या हो रहा है शांति को पता चलना बंद हो गया। शांति का जीवन पुराने ढर्रे पर लौट गया।

एक शाम शांति ने देखा कि दाल में छौंक लगाने के लिए लहसुन नहीं है। बेख़याली में दरवाज़ा खोल कर मीना के दरवाज़े तक चली आई और उसकी फ़्लैट की घंटी पर उंगली रखकर अचानक याद आया कि मीना तो चली गई। वहाँ कोई और रहने आ गया है। मीना होती तो बेहिचक घंटी बजाकर दोस्ती कर लेती और लहसुन भी माँग लेती। पर शांति सकुचा गई और शांति को पहली बार मीना जैसा बिंदास न होने पर अफ़सोस हुआ।

क़रीब दो हफ़्ते बाद शांति दफ़्तर से लौटकर साँस ले ही रही थी कि घंटी बजी। देखा तो मीना थी। एक पल के लिए शांति भूल ही गई कि मीना अब उसकी पड़ोसी नहीं है। उसने सोचा कि मीना शक्कर या नमक या ऐसी ही कोई चीज़ माँगने आई है। जैसे ही उसकी नज़र मीना के कपड़ों और मेकप पर गई शांति अपने कालभँवर से उबर आई। मीना कुछ माँगने नहीं, ख़ास उससे मिलने आई है। और दो मिनट बाद जैसे ही मीना ने अपने नए मुहल्ले की सारी खट्टी-मीठी और नमकीन ख़बरें उसे बताना शुरू किया शांति की समझ आया कि वो नमक लेने नहीं, नमक देने आई थी। शांति अपने मुहल्ले की तमाम ख़बरों से अवश्य महरूम हो गई थी पर किसी और मुहल्ले की सारी ख़बरें उसे मिलने लगीं।

***


(28 अगस्त को दैनिक भास्कर में शाया हुई) 

3 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

मुहल्लेदारी में क्या कुछ मिलता है और क्या खो जाता है! सुंदर कहानी॥

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

घड़ी आगे कर के उसे याद रखना और भी आलसी बना देता है।

बेनामी ने कहा…
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
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