रविवार, 27 फ़रवरी 2011

ईश्वर की राह



सासू माँ की तबियत कई दिनों से ख़राब है। रात में उनकी सांस उखड़ने लगती है। उनकी तीमारदारी करते हुए शांति को कभी एक, तो कभी दो-तीन भी बज गया। मगर अलसुबह पौने छै बजे दूधवाले की घंटी से शांति का दिन उगता रहा। वो जो नींद शांति की आँखों में आने से रह गई वो धीरे-धीरे उसकी त्वचा के नीचे जमा होने लगी। जब सरला दो दिन देर से आने के बाद तीसरे दिन आई ही नहीं तो घर में झाड़ू-पोंछा नहीं हुआ। और बरतन घिसते हुए शांति की त्वचा में चिंगारियों के छोटे-छोटे विस्फोट होने लगे। शायद किसी नए पाए प्रेम के नशे से अलसाई सरला जब चौथे रोज़ शांति के द्वार पर प्रगट हुई तो वो सारी नींद छोटे-छोटे विस्फोटों से अचानक एक महाविस्फोट में बदली और ग़ुस्सा बनकर सरला पर फट पड़ी। काजल पुती आँखों से निकले आँसू गालो से गले तक अपने गुनाहों के सुबूत छोड़ते हुए गए। उन्हे देख शांति का दिल तो पसीजा। लेकिन उसकी ख़बर विस्फोट की उस गर्मी में कहीं भटक गई, और शांति तक बाद में पहुँची।

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पटेल चौक की रेडलाईट पर शांति खड़ी है। सबसे आगे। उसके रुकने के तीन सेकेण्ड बाद एक बाईकर पीछे से आया और उसके आगे खड़ा हो गया और उसके दो सेकेण्ड बाद दूसरा। बीस सेकेण्ड में पांच बाईकर उसके आगे खड़े हो गए। और सड़क का वह हिस्सा जिस पर से आड़ी तरफ़ के ट्रैफ़िक को जाना था वो आधा घेर लिया गया। इस बदतमीज़ी को ट्रैफ़िक पुलिस वाला देखकर भी अनदेखा करता रहा। शांति के भीतर एक दूसरा विस्फोट सुगबुगाने लगा। उसने स्कूटर बंद करके स्टैंड पर किया और सबसे आगे वाले बाईकर के सामने पहुँचने तक विस्फोट को किसी तरह सम्हाला, फिर फट जाने दिया। शांति के हस्तक्षेप से बेवजह हार्न मारने वालों को हार्न पर से हाथ न हटाने की वजह मिल गई। बत्ती हरी हो जाने से बदतमीज़ बाईकर्स शांति के हाथ तमाचा खाने से तो बच गए लेकिन ऐसे किसी तमाचे के भय से परिचित ज़रूर हो गए। बीचबचाव करने आए ट्रैफ़िक पुलिसवाले को अपने आक्रोश का स्वाद चखा देने के बाद शांति जब दफ़्तर पहुँची तो बीस मिनट लेट थी। रोज़ लेट आने वाले खण्डेलवाल साहब ने घड़ी की तरफ़ इशारा किया तो तीसरा विस्फोट हुआ। उस विस्फोट के बाद पूरे दिन किसी को गुटके वे अवशेष दिखाई नहीं दिये जो खण्डेलवाल साहब के दांतो में सदा शोभायमान रहते हैं।
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दोपहर बाद जब सूरज ढलने लगा और विस्फोटो की आग ठण्डी पड़ गई तो शांति के मन की राख में से कुछ चेहरे झांकने लगे। पहला चेहरा सरला का था। उसके गालों पर पड़ी सलेटी रेखा में शांति को अब अपना गुनाह दिखने लगा। औफ़िस जल्दी पहुँचने की हड़बड़ी में बाईकर्स के हेलमेट के पीछे उसे अजय का चेहरा नज़र आने लगा। खण्डेलवाल के रंगे हुए चियारे दांतो में उसे एक निर्मलता झलकने लगी। और अपने आक्रोश में एक शैतानी छाया नज़र आने लगी। और दूसरों पर मारी उसकी ख़राशें उसे ख़ुद को चुभने लगीं। अपना ख़ुद का बरताव उसके नेक पहलू को खोटा लगने लगा। बचपन से ही शांति इतनी बेहतर होने की कल्पना करती आई है जितना नेक होना ईश्वर हो जाना होता होगा। आज फिर उसने सोचा कि अगर उसकी जगह ईश्वर होता तो क्या वह भी ऐसे ही पेश आता जैसे वह पेश आई है? और उसका अफ़सोस गहरा गया। उसने सोचा कि अब वो कितनी भी मुश्किल हालात में क्यों न हो, ईश्वर की तरह व्यवहार करेगी।
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पटेल चौक के पहले मदर मेरी हस्पताल के सामने फिर से जाम लगा हुआ है। ट्रैफ़िक कछुए की रफ़्तार से रेंग रहा है। धूल, धुँए और शोर के मिले-जुले असर में शांति ने महसूस किया कि हेलमेट के अन्दर पसीने की कुछ बूँदें छलछलाने लगी हैं। और अभी फ़रवरी गया भी नहीं है। इसके पहले कि शांति इस चिंता को अपने ज़ेहन में और पकाती पीछे से एक बाईकर ने हौर्न बजाना शुरु किया। पहले दो बार, दो-दो सेकेण्ड का अन्तराल देकर। फिर बिना रुके लगातार। शांति के कान में झुनझुनी होने लगी। शांति ने हस्पताल के सामने लगे नो-हौर्न के बोर्ड को देखा और अपनी स्वाभाविक प्रतिक्रिया को व्यक्त करने के लिए हेलमेट उतारा। तभी उसे अपने संकल्प की याद आई और उसने सोचा कि इस मौक़े पर ईश्वर क्या करता। शांति ने पीछे मुड़कर बाईकर की अधीर चेष्टाओं पर निगाह डाली और जितनी उदारता से मुस्करा सकती थी, मुसकराई।
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अजय टीवी पर मैच देख रहा है- म्यूट। क्योंकि अचरज वहीं बैठकर अपने गणित के इम्तिहान की तैयारी कर रहा है। शांति ने पूरा खाना अकेले ही टेबिल पर लगाया। अजय ने कई बार उसकी तरफ़ देखा और एक बार भी मदद की बात नहीं चलाई। जितनी बार उनकी आँखें मिली, शांति ने ईश्वर को याद किया और ईश्वर की तरह मुस्कराई। गणित के अमूर्तन में डूबे अचरज ने इस दौरान गिन कर पाँच बार अपनी नाक में उंगली घुसाई और हर बार नाक से निकली अवांछित वस्तु को सोफ़े के ग़िलाफ़ पर उंगली से छुड़ाई। शांति ने उसे डाँट ही दिया होता मगर उसे ईश्वर की याद आई और वो फिर से मुसकराई।
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बिस्तर की शरण में आए शांति को पन्द्रह मिनट हो गए हैं। नींद से बोझिल आँखों में सपने आने ही लगे हैं जब रसोई की दिशा से एक खटका हुआ। सासू माँ? क्या फिर उन्ह अस्थमा का दौरा पड़ा है? इस आशंका और नींद के बीच संघर्ष को ईश्वर के हस्तक्षेप ने पूरी तरह से इकतरफ़ा बना दिया था। रज़ाई पैरों से फेंक शांति ने चप्पल भी ठीक से नहीं पहनी और रसोई की ओर दौड़ गई। पूरा घर अंधेरे में डूबा था और रसोई की लाईट भी बंद थी। मगर फ़्रिज के भीतर से निकलती रौशनी में सासू माँ का झुका हुआ शरीर पहचाना जा रहा था। शांति ने देखा कि सासू माँ ने फ़्रिज में से खीर का कटोरा निकाला और चम्मच से आचमन करने लगीं। इस दृश्य को देख शांति के दिल में कई तरह के भावों की ज्वालाएं प्रज्वलित हो उठीं। फिर ईश्वर का विचार आकर के उन ज्वालाओं के शमन की वक़ालत करने लगा। शांति ने मुस्कराने की कोशिश की। पर नहीं मुसकरा सकी। खीर, वो भी ठंडी, सासू माँ के लिए ज़हर है। इस आत्महत्या पर शांति का ईश्वर कैसे मुसकराये, इस की परिकल्पना उसके ज़ेहन के बाहर है। जब तक सासू माँ तीसरी चम्मच खीर को उदरस्थ करती शांति ने तय किया कि उसकी ईश्वर की कल्पना को परिष्कार की ज़रूरत है। उसी पल शांति ने अपने ईश्वर में दुर्गा की छवि को घुलते देखा। उसके बाद किसी तरह के संशय की गुंज़ाईश नहीं रही। सासू माँ छै साल की बच्ची की तरह डाँट खाती रहीं और पछताती रहीं।
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उस रात शांति को ऐसी मीठी नींद आई कि त्वचा के नीचे उसकी कोई खुरचन न जमने पाई।
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आज के दैनिक भास्कर में प्रकाशित

13 टिप्‍पणियां:

Arvind Mishra ने कहा…

चलिए शान्ति को आखिरकार शान्ति तो मिली -यह ज्यादा जरुरी था !
बढियां कहानी

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

सुबह ही यह कहानी पढ़ी है। सुंदर है, संदेश भी। कुछ सीखने को भी मिला।

दीपक बाबा ने कहा…

ठंढी खीर के सामान - खुश नुमा माहोल में खत्म हुई बेहतरीन कहानी.

अनूप शुक्ल ने कहा…

सही है। सुन्दर कहानी।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

जिनकी चिन्ता में घुलता जाता है शरीर, उनका ही बचपना देख मन प्रसन्न हो जाता है।

Vishwa ने कहा…

बहुत बढ़िया चित्रण है आज के समय का . सचमुच गुस्से पर काबू पाने के लिये सिर्फ़ इश्वर को ही याद करना पड़ता है.

Ashish Pandey "Raj" ने कहा…

एक दिनचर्या जिसकी प्रारम्भ शीघ्रता के कारण होने वाली झुंझलाहट से और दिवसावसान पे उन्ही लोगों के प्रति उदारता का भाव|
सुन्दर चित्रण

ghughutibasuti ने कहा…

पुरुषों से हटकर, ईश्वर का जो भी विलोम होता है वह बनकर टिपियाती हूँ।
१. जिसकी माँ है वह खर्राटें मारता क्यों सोता रहता है, क्या माँ की सेवा करना उसका कर्त्तव्य नहीं है? या फिर केवल सास की सेवा करने से ही स्वर्ग के द्वार खुलते हैं?
२. ऐसा क्यों होता है कि समाज यह मानकर चलता है कि स्त्रियों को कम आराम, कम नींद की आवश्यकता होती है? कि स्त्रियाँ तब भी पूरा घर अकेले सँभालें जब वे भी बाहर काम करती हैं? क्या इसलिए कि वह अबला है और पुरुष सबल? यह कैसा बल है जिसे अधिक आराम, सुविधाएँ चाहिएँ?
३. क्या आराम की सुविधा पाने के लिए पुत्र जन्मकर एक अदद बहू की सास बनना अनिवार्य है? यदि यह ईश्वरीय नियम है तो हर स्त्री की सबसे पहली संतान पुत्र क्यों नहीं होती? क्यों स्त्री भ्रूण हत्या पर निषेध है?
४.क्या मैच देखना एक पुरुष गुण है?
५. स्थिति को पलटकर देखिए। पति के स्थान पर पत्नी और पत्नी के स्थान पर पति को देखिए। हो सके तो माँ भी पति की बजाए पत्नी की हो। क्या फिर भी पुरुष वे ही टिप्पणियाँ देंगे जो अभी देकर गए हैं?
और भी बहुत कुछ है, जिस विस्फोट की बात आप कर रहे हैं वह केवल शान्ति का नहीं है, अनगिनित अशान्त शान्तियों का कभी होगा, वे जो आज समझती भी नहीं कि वे क्यों अशान्त हैं या वे जो जानती भी नहीं कि अशान्त होने का भी उन्हें अधिकार है और उनका भी जो उबल रही हैं और विस्फोट के कगार पर हैं। आशा है कि विस्फोट शीघ्र होगा और पुरुष इस विस्फोट से साबुत बाहर निकल पाएँगे किन्तु समाज व्यवस्था कतई नहीं।
कहने को और भी बहुत कुछ है। हाँ, एक बात और, यह मैं सभी भाभियों(मेरी समेत) की तरफ से भी कह रही हूँ।
घुघूती बासूती

रंजना ने कहा…

बहुत बहुत बहुत ही अपनी सी लगी कहानी...

एकदम दिल को छू गयी...पर एक सार्थक सन्देश भी दे गयी...

राह दिखाती अद्वतीय कथा....

बहुत बहुत आभार...

Smart Indian ने कहा…

हे ईश्वर! जय दुर्गे! ॐ शांतिः!
सुन्दर कहानी!

Dr Varsha Singh ने कहा…

कहानी काफ़ी रोचक है....

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

दिलचस्प कहानी ....सुन्दर चित्रण...बधाई।

Rajesh L. Joshi ने कहा…

सुंदर
"आपका भला हो"

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