रविवार, 20 फ़रवरी 2011

कछुआ



बहुत दिनों की बदली के बाद दिन खुला है। गूलर के पत्तो पर चमकती धूप शांति का मन चमका रही है। अचरज ने ब्रश करते हुए बहुत सारा फेन और पानी इधर-उधर गिरा दिया है। पाखी ने अपने नाश्ते में से हमेशा की तरह ब्रैड के कठोर किनारे प्लेट में, और प्लेट टेबिल पर ही छोड़ दी है। ये चमकते मन की ही माया थी कि दोनों फटकार से बच गए। बच्चों को स्कूल भेजकर और अजय की पतलून में इस्त्री करने के बाद शांति ने बचे हुए पाँच मिनट बालकनी में चाय पीते हुए बिताए। मुंडेर पर रखे अपने फ़ेवरिट पीले कप से चाय सुड़कते हुए और अपने गीले बालों से पानी झटकते हुए उसने पाया कि ज़िन्दगी कितनी ख़ूबसूरत है। इस निष्कर्ष के साथ उसे फ़ैज़ की नज़्में याद आईं और फिर ये याद आया कि साल भर से अंकिता की किताब उसके पास है। दिन की चमक वाक़ई गहरी है।
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घड़ी में एक बज के दस मिनट हो रहा है। दफ़्तर में लोग टिफ़िन से निकल रही परांठो की बासी बू में सांस लेकर सुखी हो रहे हैं। शांति दफ़्तर में नहीं है। अंकिता की गली में लाइन से कुसुम के चार पेड़ लगे हैं। नए पत्तो की आमद से पूरा पेड़ लाल हो रहा है। फ़रवरी की धूप में कुसुम की इस लालिमा को देखने में बहुत सुख पा रही है शांति। पेड़ की डाल पर गिलहरियां लपक-झपक कर रही हैं। उन्हे देखने में भी सुख है। दो मकान छोड़कर एक पंजाबी औरत ठेले वाले से अमरूद खरीद रही है। अमरूद की तेज़ गंध शांति को नहला रही है। शांति को उसमें भी सुख है। हलकी-हलकी हवा में कबूतरों के पंख सूखी पत्तियों के साथ सड़क की सतह से ऊपर उड़ रहे हैं। उन्हे देखना भी सुख है। शांति ने पाया कि उस पल में खड़े रहना, एक ठण्डी गहरी साँस लेना, गेट खोलकर सीढ़ी चढ़ना; सब सुख है। जीवित रहना ही सुख है। शांति उस सुख को पकड़ कर वहीं खड़ी रहना चाहती है मगर समय उसके साथ नहीं है। घड़ी की सुई सरक कर आगे चली गई है।
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अंकिता काम नहीं करती है। घर पर रहती है। शांति ने फ़ोन करके उसे आने की ख़बर दे दी थी। शांति को अपनी बाहों में भींच कर अपने दिल की तसल्ली की और फिर उसके हाथों से टिफ़िन छीन लिया। दोपहर में अकेले अपने लिए वो कुछ ख़ास नहीं बनाती। लेकिन आज शांति के लिए उसने निमोना बना लिया था। शांति मज़े से निमोना चावल का सुख ले रही है और अंकिता को किसी और के हाथ के परांठे स्वाद लग रहे हैं। शांति एक साल बाद अंकिता से मिल रही है। कहने-सुनने को बहुत कुछ है। नाटकीय कुछ भी नहीं घटा है फिर भी मन को क्या-क्या चुभता रहता है। अंकिता के पास अधिक कांटे निकले। शांति ने चाहा कि अपने सुख का स्वाद उसे भी चखाए पर अंकिता तक पहुँचने से पहले ही वो कहीं गिर गया। शांति ने देखा कि घर में बहुत कुछ बदला हुआ है। कहीं पर कोई क्रिस्टल रखा है। कहीं विन्ड चाइम, तो कहीं चाइनीज़ ड्रैगन। अंकिता ने बताया कि ये सब दुख भगाने के उपाय हैं। फिर शांति ने मुड़कर देखा। खिड़की के पास एक कोने में एक छोटे फ़िश टैंक में एक कछुआ भी है।
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फ़िश टैंक की लम्बाई होगी डेढ़ फ़ुट और चौड़ाई एक फ़ुट से कम ही होगी। पानी से आधे भरे टैंक में कछुआ दस इंच लम्बा और पांच-छै इंच चौड़ा है। अंकिता ने बताया कि जब वो कछुआ लाई थी तो वह काफ़ी छोटा था और तब टैंक उसके लिए ठीक बैठता था। कछुआ अपनी क़ैद में इस क़दर बेचैन है कि वह लगातार इधर से उधर मचल रहा है। वह एक किनारे से शुरु करता दो-चार इंच आगे बढ़ता और उसकी हद आ जाती। वो पलटी मारता, लेकिन ठीक से पलटी भी नहीं मार पाता। किसी तरह मुँह घुमा कर दूसरी तरफ़ करता, आगे बढ़ता और दो-चार इंच में फिर उसकी हद आ जाती। फिर किसी तरह पलटता और फिर वही क्रम। अपनी ही मल-मूत्र से भरे उस पात्र में इसी क्रिया को कछुआ बार-बार, बार-बार दोहरा रहा है। उसे देख शांति का कलेजा फटने लगा। उसने कहा कि कछुआ मर जाएगा, अगर उसे रहने के बड़ा टैंक नहीं मिलेगा। अंकिता का कहना है कि कमरे के उस कोने में ही टैंक रखा जा सकता है। और उस कोने में बस उतने ही बड़े टैंक को रखने की जगह है।

‘तो आज़ाद कर दो उसे.. देखती नहीं कैसे घुट रहा है वो?”
‘वो मैं नहीं कर सकती”
‘क्यों?’
‘जब से ये कछुआ आया है.. मनोज का काम बहुत अच्छा चल रहा है..’
‘तू विश्वास करती है इन सब बातों पर..’
‘मैं तो कम करती हूँ.. मनोज ज़्यादा करते हैं। वो तो उसकी जगह तक नहीं बदलने देते..’

शांति ने उस मानवता का वास्ता दिया। मगर अंकिता ने कछुए को आज़ाद करने से साफ़ मना कर दिया। शांति ने अपने क्रोध को ज़ब्त किया, फ़ैज़ की किताब उसके हाथ में थमाई और लौट आई।
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दिन जितना चमकदार और सुखी था, रात उतनी सलोनी नहीं थी। शांति ने देखा कि वह एक कमरे में बंद है जिसकी दीवारें पास आती जा रही हैं इतनी कि वह हिल-डुल तक नहीं सकती। उस छोटे होते कमरे में एक घड़ी है जिसकी सुईयां एक ही जगह अटकी हुई हैं। और दरवाज़े के ठीक सामने एक फ़िश टैंक रखा है जिसमें एक कछुआ है। जो लगातार बड़ा होता जा रहा है। शांति यह देखकर डर गई कि कछुए का मुँह फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की शक्ल का है। फ़ैज़ साहब ने टैंक के अन्दर ही से ग़ुस्से में कह रहे हैं, ‘हमारा कुल्लियात तुमने अंकिता को लौटाया क्यों.. उस टैंक में हमारे सारे सुखन सड़ जाएंगे..’
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अजय ने जब किचेन से लाकर पानी का गिलास थमाया तब तक शांति के माथे से पसीना की बूंदे सूखी नहीं थी।
‘तुमने ऐसा क्या देख लिया सपने में?’ अजय ने पूछा।
‘नरक देखा मैंने..’
कुछ देर तक अपनी सांसो पर काबू पाने के बाद शांति ने अजय से पूछा, ‘कछुआ रखना तो क़ानूनन अपराध है ना?
‘है तो!’
‘मेरी एक सहेली ये अपराध कर रही है.. पता करो, इस अपराध की रपट कहाँ करनी होगी?’
***


(आज के भास्कर में छपी है)

8 टिप्‍पणियां:

ZEAL ने कहा…

निमोना -चावल खाने का मन हो गया । यहाँ हरी मटर नहीं मिलती ।

आशुतोष कुमार ने कहा…

लीजिये , खुली वाह / दाद . फाइनली .

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

कछुआ -कहानी मन को उद्वेलित कर गई .बहुत सहज और स्वाभाविक चित्रण किन्तु बहुत गहरा प्रभाव छोड़ती है . बधाई स्वीकार करें !

पारुल "पुखराज" ने कहा…

बहुत बढ़िया…

रंजना ने कहा…

ओह...

अंतिम वाक्य ने मुझे भी सम्हाल लिया,नहीं तो दिल बैठा जा रहा था....

मर्म को छूती बेजोड़ कहानी रची है आपने...

बहुत बहुत बेजोड़...

yash ने कहा…

कछुआ

योगेन्द्र सिंह शेखावत ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
योगेन्द्र सिंह शेखावत ने कहा…

इस से याद आया, कुछ साल पहले भास्कर में ही प्रथम पृष्ठ अच्छी खासी खबर छपी थी |
राजस्थान के २-३ मंत्रियों (पर्यावरण व अन्य ) ने अपने घर जयपुर के चिड़ियाघर से कछुए गायब करवाकर अपने घरों में रख रखे थे, अपने अंधविश्वासों को ख़ुशी देने के लिए और अपनी समृद्धि बढ़ाने (शायद कुछ ज्यादा ही कम समृद्धि थी) के लिए | फिर एक दिन एक मंत्री के घर के दरवाजे से किसी तरह एक कछुआ बहार आ गया और एक रिपोर्टर ने इसका फोटो लेकर पूरे मामले का खुलासा कर दिया |
तो कछुआ रखना तो वैसे गैर कानूनी है न ? पर शायद सिर्फ आम आदमी के लिए, मंत्रीजी को इन सबके विशेषाधिकार है | शायद 'मनोज' की यहाँ-वहां अप्रोच है |

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