सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

ये साली..



ओय लकी ओय और देव डी से दिल्ली का जो पुनरन्वेषण हुआ है सुधीर मिश्रा की फ़िल्म भी उसी आधार पर बहुत कस कर अपने आप को टिकाए हुए है। स्थानीयता में धंसे हुए लोकेशन्स, चरित्र और संवाद ही फ़िल्म का बलवान पहलू है। इरफ़ान, सौरभ शुक्ला, यशपाल, सुशान्त, अरुणोदय, प्रशान्त, विपिन सब ने अपना किरदार बख़ूबी निभाया है। चित्रांगदा के बारे में क्या कहा जाय? इतने सारे प्रतिभावान अभिनेताओं के बीच उन्होने इतना तो सीख लिया होता कि अगर सीन में गिटार बजाना हो तो कम से कम कुछ कौर्ड्स की ग्रिप ही सीख लें!


सुधीर मिश्रा ने प्रेम की मजबूरियों को दिखाने के लिए की है सारी मशक्कत। सीन छोटे-छोटे और तीखे हैं। संवाद चुलबुले हैं। सीधे आख्यान को तोड़कर वे काल में आगे-पीछे भी सैर कराते हैं दर्शक को। भरपूर कोशिश की है उन्होने कि एक रफ़्तार बनी रहे फ़िल्म में। एक हद तक बनी भी रहती है। लेकिन एक घण्टे के बाद मुझे बेचैनी होने लगी। कहानी में कोई ग्राफ़ ही नहीं है। सब कुछ एक ही ऊँचाई पर बना रहता है शुरु से लेकर आख़िर तक। अंत तो इतना अधिक खिंचा हुआ और बोझिल है कि कई लोग उठ कर चले गए। शायद एक दर्जन क्लाइमेक्सेज़ और आधा दरजन एपीलौग्स हैं। और उसके बाद फ़िल्म आईरौनिक टेल से सुखान्त हो जाती है। आम तौर फ़िल्मी अश्लीलताओं को लेकर मैं काफ़ी सहिष्णु हूँ, पर इस फ़िल्म का आख़िरी दृश्य मेरे लिए असह हो गया।

पूरी फ़िल्म में कोई दृश्य, कोई चरित्र, कोई बात ऐसी नहीं जो मेरे दिल में गहरे उतर सकी। प्रेम की तथाकथित मजबूरियों की कहानी में एक बार भी प्रेम की भावना पर्दे से उतरकर मेरे दिल की दिशा में नहीं आई। चित्रांगदा तो काठ हैं मगर इरफ़ान तो क़ाबिल एक्टर हैं। मगर नहीं, कोई एहसास, कोई सुरसुरी, कोई भावना, कोई जज़्बात, दुनिया की किसी भी भाषा में अनूदित होकर कोई फ़ीलिंग.. नहीं, कुछ नहीं। अगर थोड़ी बहुत कोमलता नज़र आती है तो अरुणोदय और अदिति (शायद यही नाम है) की प्रेमप्रकरण में। बस! अफ़सोस है, सुधीर मिश्रा के पके हुए बालों को देखकर मैं उनसे उतनी ही पकी हुई फ़िल्म की उम्मीद कर रहा था! मेरे अफ़सोस पर एक मित्र का कहना है कि अफ़सोस काहे का.. पकाया न उन्होने! :)


9 टिप्‍पणियां:

ZEAL ने कहा…

हाँ , कहीं न कहीं कुछ कमी रह गयी है इस फिल्म में।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

तब क्या न देखी जाये?

shikha varshney ने कहा…

matlab dekhne ka koi matlab nahi...

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

फिर ऐसे ही है?

मनीषा पांडे ने कहा…

अभय फिल्‍म मैंने देखी नहीं, इसलिए नो कमेंट। आपने ठीक ही लिखा होगा। लेकिन ये बताइए कि आपने धोबी घाट के बारे में कुछ क्‍यों नहीं लिखा। फिल्‍म आपने देखी नहीं या लिखने लायक नीं समझा। मैं उस फिल्‍म पर आपकी राय जानना चाहती हूं।

अभय तिवारी ने कहा…

प्रवीण@ और क्या हटाइये.. पैस काट रहे हों तो बात अलग है..:)
शिखा@ न..
मंजुल@ ऐवें
मनीषा@ देखी। अंग्रेज़ी में एक लफ़्ज़ है- इनसिपिड!

योगेन्द्र सिंह शेखावत ने कहा…

मैंने नेट से डाल कर देखी तो थी, लेकिन शुरू में ही थोडा 'पक' गया | हालाँकि पूरी तो अभी नहीं देखी है, और कारण प्रिंट भी हो सकता है | इरफ़ान को जरूर देखना चाहूँगा | लेकिन 'तेरा क्या होगा जोनी' जैसा कुछ आभास लगा | परन्तु मुझे ये लगता है, 'हजारों ख्वाहिशें ऐसी' फिल्म में सुधीर मिश्रा की जो उर्जा दिखती है वैसी उर्जा उनकी बाद में आई किसी फिल्म में नहीं दिखी |

कभी-कभी ऐसा होता है हमारा नया और शुरुआती प्रयास झक्कास होता है, पर बाद के कामों में उर्जा घटती जाती है और ऐसा ये नियम हर क्षेत्र में लागू होता है | जैसे 'कंपनी' के बाद से 'रक्त चरित्र' तक रामू की हर फिल्म उसी लाइन वाली रही तो अब उनकी फ़िल्में पकाती है मुझे | अनुराग की 'उड़ान' में मुझे इतना मज़ा नहीं आया जितना उनकी पहले आई फिल्मों में आया, मतलब 'नो स्मोकिंग' में जॉन अब्राहम जैसे एक्टर के बावजूद 'उड़ान' में वो बात नहीं दिखती | हालाँकि वह 'उड़ान' अच्छी है परन्तु मुझे 'नो स्मोकिंग' से थोड़ी कमतर ही लगती है | हालांकि मुझे अनुराग की प्रतिभा पर अभी भी रत्ती भर शक नहीं है और वो कुछ और नया लायेंगे ये उम्मीद है | अभी दिवाकर बनर्जी की भी तीनों फ़िल्में बहुत अच्छी लगीं हैं पर मुझे अभी से डर लगने लग गया है कि कहीं 'शंघाई' पकाने वाला काम न करे क्योंकि महानगरीय जीवन को आधार बनाकर अभी पिछले दिनों बहुत फ़िल्में आ चुकी हैं और कईओं का हश्र बहुत बुरा हुआ है | कारण यह भी है कि आजकल हर कोई बहुत जल्दी 'पक' जाता है बोर हो जाता है, तो अभी कम बजट और अच्छी स्क्रिप्ट और अच्छे कलाकारों (७०-८० के दशक के सामानांतर सिनेमा के जैसे) वाली फ़िल्में तो आई हैं लेकिन पता नहीं अब इनकी भी बाढ़ आने पर पक न जाऊं | कारण ये भी है कि एक फिल्म चलने पर पैसा कमाने वालों की नज़रें गिद्ध की तरह उन 'थीम' पर लग जाती है और वे उन पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने और कम काम करके ज्यादा पैसा बनाने के चक्कर में मौलिक काम करने वालों के मार्केट का भी बंटाधार कर देते हैं, अब क्या करूँ ऐसे गोबर-गणेश पूंजीवादियों का | क्योंकि इन लोगों को हर मलाई वाली चीज़ के साथ विज्ञापन का चूरन बुरका देने की गन्दी आदत भी है |

Smart Indian ने कहा…

फिल्म अभी देखी नहीं है परंतु आपसे असहमत होने की कोई वजह नहीं दिख रही है। "जाने भी दो..." से लेकर "हज़ारों ख्वाहिशें..." तक सुधीर मिश्र का फैन रहा हूँ। "सिकन्दर" देखी तो पाया कि वे कुछ जगह "इस रात की ..." को दोहराने लगे हैं। कई पात्रों से अभिनय भी नहीं करा सके थे। फिल्म जगह-जगह पर नकली लगी।

धोबीघाट के बारे में बिल्कुल सही शब्द चुना है।

रवि रतलामी ने कहा…

आप तो फिर भी, फिल्मकार हैं. एक आम दर्शक की हैसियत से मैं इस फिल्म को पहले 15 मिनट भी नहीं झेल पाया!

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