गुरुवार, 22 जुलाई 2010

शेल्डन पौलक का सुनहरा आम


पिछले दिनों एक प्राच्यविद, जो भारत सरकार से इसी वर्ष पद्‌मश्री भी पा चुके हैं, शेल्डेन पौलक का एक लेख पढ़ा- डीप ओरियण्टलिज़्म: नोट्स औन संस्कृत एण्ड पावर बियौण्ड राज। विषय में प्रवेश करने में काफ़ी मशक़्क़त और परिश्रम हुआ लेकिन किया गया। पौलक साहब की ज़मीन सही है कि पूर्व औपनिवेशिक भारत में एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग का शोषण चल रहा था और उस में सत्ता और वर्चस्व का पाठ भी है। पौलक साहब पहले तो सिद्ध करते हैं कि नाज़ियों के सत्ता में आने के बाद से भारतीय प्राच्यविद्या में अचानक जो तेज़ी आई उसका मक़सद आर्य संस्कृति की प्राचीन उपलब्धियों के ज़रिये यहूदियों और शामी जातियों के बनिस्बत जर्मनों की जातीय श्रेष्ठता को सिद्ध करना था। तो इस तरह से यहूदियों का दमन नाज़ियों ने आर्यश्रेष्ठता के सिद्धान्त पर किया।

यहाँ तक बात तार्किक है। फिर पौलक साहब उसे प्राचीन व मध्यकालीन भारत में ले जाते हैं जहाँ वे आर्य सत्ता में प्रजातीय तत्व की घोषणा कर के नाज़ियों और ब्राह्मणों को एक पायदान पर खड़ा कर देते हैं। यह तो हद ही हो गई। क्या ब्राह्मणों ने अछूतों के लिए कोई गैस चैम्बर्स बनाए थे? किसी जाति के प्रति पूर्वग्रह होना और उस जाति का क़त्लेआम करना दो बहुत अलग-अलग बाते हैं। यू ए ई में आज भी एक हिन्दू मज़दूर के मरने पर उसे ७००० दीनार का मुआवज़ा मिलता है, ईसाई के मरने पर पचास हज़ार और मुसलमान के मरने पर १ लाख का। यह क्या पूर्वग्रह नहीं है? अलग-अलग वर्गों के लिए हर समाज में क़ानूनो में पक्षपात होता ही आया है, कुछ में खुले तौर पर कुछ में छिपाकर। आगे पौलक साहब सती प्रथा के अनुमोदन के शास्त्रीय साक्ष्य लाकर यह सिद्ध करते हैं कि अंग्रेज़ो द्वारा भारत के औपनिवेशीकरण के पहले ही ब्राह्मणों ने अन्य जातियो का औपनिवेशीकरण किया हुआ था।

प्राचीन भारतीय समाज में ब्राह्मणों के नैतिक और बौद्धिक वर्चस्व से किसी को इंकार नहीं है मगर उसे औपनिवेशीकरण कहना यह मानना होगा कि सभी जातियां अलग-अलग प्रजाति की थीं और ब्राह्मण उन पर अपनी नैतिकता थोप रहे थे। प्रजाति वाली बात की चर्चा आगे करेंगे लेकिन नैतिकता के समबन्ध में अगर सचमुच ऐसा है तो वैदिक ब्राह्मण गणेशभक्त और देवीभक्त कैसे हो गए? किस के प्रभाव में हो गए? क्या किसी ने उनका औपनिवेशीकरण किया? सती का अनुमोदन अगर ब्राह्मण ग्रंथों में मिलता है तो क्या कबीर भी ब्राह्मण उपनिवेशवाद का शिकार हैं? देखिये कबीर जैसे मुहँफट और रैडिकल समाजसुधारक संत क्या कहते हैं..:

१) सती को कौन सिखावता है,
संग स्वामी के तन जारना जी।
प्रेम को कौन सिखावता है,
त्याग माँहि भोग का पावना जी॥

२) जैसे सती चढ़ि सत-ऊपर, पिया की राह मन भाई।
पावक देख डरे वह नाहीं, हाँसत बैठे सदा माई।

३)अब तो जरै-मरै बनि आवै, लीन्हे हाथ सिधौंरा।

और ऐसा नहीं था कि हर विधवा धकेल कर सती कर दी जाती थी। अगर ऐसा होता तो विधवा होती ही कैसे समाज में? माद्री सती होती हैं कुन्ती नहीं होती। और दशरथ की तीनों रानियां सती नहीं होतीं। (लेकिन इसे सती का अनुमोदन न समझा जाय) अब जैन धर्म में लोग अन्न-जल त्याग कर प्राण दे देते हैं, इसे क्या आत्महत्या को बढ़ावा देने वाली रीति न समझा जाय? असल में ये दोनों ही उस समाज के उच्च नैतिक मूल्य थे। जैसे देश के लिए जान दे देना आज तक एक उच्च नैतिक मूल्य माना जाता है। क्या अमरीका या कोई अन्य प्रगतिशील देश इस ‘मानवीय हिंसा’ का विरोध करता है जिस में एक मासूम का ब्रेनवाश करके मौत के घाट धकेल दिया जाता है? लेकिन प्रगतिशील व्यक्ति करते हैं यह विरोध; गिने-चुने नोआम चौम्स्की जैसे या अरुंधति रौय जैसे लोग, जिन्हे समाज हाशिये पर बनाए रखता है। समाज की यथास्थिति को बनाए रखने में जो भी बातें सहयोग करती हैं वे उच्च नैतिक मूल्य बन जाती हैं।

पुराना ब्राह्मण धर्म ऐसे ही उच्च नैतिक मूल्यों पर आधारित था जो धीरे-धीरे पतित होता गया। निश्शंक रूप से यह मान लेना कि ब्राह्मण कोई अलग प्रजाति हैं/थे, बड़ी गहरी भूल होगी। भारतीय समाज की सभी जातियां एक ही प्रजातीय समूह का अभिन्न अंग रही हैं, इस बात को अम्बेडकर ने भी अपनी किताब 'अछूत कौन थे' में सिद्ध किया है। और हाल की नई जेनेटिक शोधों से भी यह तथ्य सामने आ रहा है कि उच्च जातियों और निम्न जातियों में फ़र्क उतना ही है जितनी उत्तर की उच्च जातियों और दक्षिण की उच्च जातियों में। बल्कि एक प्रदेश की ऊँची और नीची जातियां अधिक क़रीब हैं।

आर्य का बड़ा ही संकीर्ण अर्थ किया है पौलक साहब ने। ये प्राच्यविद ही थे जिन्होने आर्य शब्द का अर्थ प्रजातीय अर्थ में लिया। भारतीय परमपरा में कभी भी आर्य का अर्थ किसी प्रजाति से नहीं रहा। जैसे हम हिन्दू कभी नहीं थे, हम ब्राह्मण थे, ठाकुर थे, बनिया, शूद्र, चमार आदि थे, हिन्दू नहीं थे। हमें हिन्दू बनाया मुसलमानों ने। इस भूभाग में रहने वाले सभी ग़ैर-मुस्लिमों को हिन्दू कहा गया। ऐसे ही आर्य के साथ हुआ। हमारी परम्परा में आर्य का अर्थ श्रेष्ठ है। इस के लिए कुछ शब्दों की विवेचना देखिये-

अनाड़ी जिसका अर्थ है अकुशल या नोवाइस, अनार्य का बिगड़ा हुआ रूप है।
मराठी में माँ को कहते हैं आई, पहाड़ी में इजा- दोनों आर्या का बिगड़ा हुआ रूप है।
अवध में दादी को कहते हैं आजी.. आर्या का बिगड़ा हुआ रूप है।
किसी को बुलाना हो तो कहते हैं .. अरे सुनो!.. अरे, आर्य का बिगड़ा हुआ रूप है।

विदेशी या दूसरी प्रजाति के लिए हमारे यहाँ शब्द म्लेच्छ है, अनार्य नहीं। अनार्य डाकू, लुटेरों , चोर बदमाशों को कहा जाता रहा है। जिन लोगों से हमारा विरोध होता है हम उन्हे सहज ही चोर, हरामी, बदमाश आदि अपशब्द कहते हैं। अछूतों या कहीं-कहीं शूद्रों को अनार्य कहना उसी सन्दर्भ में देखना चाहिये। पौलक साहब सरलीकरण का शिकार हुए हैं। उन्होने जो कुछ लिखा है वो शुद्ध प्राच्यविद्या की परम्परा में ही है। या हमें उस में भी किसी वर्चस्व की बू की तलाश करनी चाहिये?

और सच मानिये पौलक साहब के इस लेख में बहुत सारे बड़े-बड़े शब्दों और लफ़्फ़ाज़ियों का बोझा अधिक है तत्व की बात बेहद कम। जो है वो भी अनर्थ पर आधारित है। पौलक साहब बहुत पढ़े-लिखे हैं, और संस्कृत साहित्य पर उनकी एक मोटी किताब भी छपी है। मैंने वह किताब नहीं पढ़ी है मगर किसी भी किताब के कोई ७०० पन्ने भर उनकी सिद्धतर्क होने का प्रमाण नहीं है। आम कितना भी नामी, कितना भी बड़ा और कितना भी पीला-सुनहरा क्यों न हो, अगर मीठा न हुआ तो सब व्यर्थ है। पौलक साहब, अफ़सोस, अपने तर्क और विश्लेषण में फ़ीके और बेस्वाद हैं।

उनके इस पूरे लेख के मूल में यह बात कहीं छिपी हुई है कि आर्य अलग प्रजाति थे, वे बाहर से आए और उन्होने इस देश का उपनिवेश बना लिया। हाल के शोधों से पता चल रहा है कि यहाँ रहने वाले लोग इस भूभाग में पिछले पचास हज़ार से अधिक वर्षो से रह रहे हैं। हिन्दू उच्च जातियों के बीच ऐसे कोई लोग नहीं मिलते जो सिन्धु घाटी सभ्यता के विलीन होने के बाद, यानी पिछले ३५०० वर्ष में, इस भूमि में आकर निवास कर रहे हों। मनुष्य भ्रमणशील है और किसी ज़मीन में जड़ जमा के पैदा नहीं हुआ है। लेकिन यहाँ पैदा होने और कहीं बाहर से आने की बात के प्रचार में एक राजनीति विकसित हुई है- और लोग अपनी-अपनी निहित स्वार्थों की रक्षा कर रहे हैं। सभी बाहर से आए हैं मगर पचास हज़ार साल एक लम्बी अवधि होती है उस में दो-चार हज़ार साल आगे पीछे आने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। लेकिन इस अवधि में कब कैसे जातियाँ जन्मना रूढ़ हो गईं, कब अछूत मनुष्य होते हुए भी समाज के हाशिये पर धकेल दिए गए, ये सब रहस्य के घेरे में है।

बहुत पुरानी बात नहीं है जब ब्राह्मण सिर्फ़ इस बात के लिए गरियाये जा रहे थे कि वे अपना पानी अलग रखते हैं; आज हर आदमी अपना पानी अलग रख रहा है। ब्राह्मण मेहतरों को न छूते थे तो अपनी स्त्रियों को मासिक धर्म और प्रसूति के दौरान भी नहीं छूते थे, मुखाग्नि देने वाले को तेरह दिन तक कोई नहीं छूता था। उनकी जीवनपद्धति में एक विज्ञान था और उनकी छूत-छात के पीछे एक आधार भी ज़रूर था। लेकिन इस इस आधार से किए जाने वाले उनके अत्याचार वैज्ञानिक नहीं थे और न ही उनकी अन्य रूढ़ियां वैज्ञानिक थीं। मगर दूसरी तरफ़ ब्राह्मणों को एक सुर से गरियाना भी बेहद एकांगी है।

ठीक है ब्राह्मण अपने को सबसे ऊपर बताते हैं लेकिन आत्मश्रेष्ठता का बोध होना किसी भी मनुष्य में स्वाभाविक है। यहूदी और मुसलमान भी अपने को मनुष्यों का सरताज मानते हैं, ईसाई मानते हैं कि बपतिस्मा नहीं हुआ तो सीधे नरक में गए। फिर अगर ब्राह्मण अपने लिखे ग्रंथों में अपने को सर्वश्रेष्ठ लगातार बताते रहते हैं तो कोई हैरानी नहीं। हैरानी की बात ये है कि वही ब्राह्मण राम, कृष्ण आदि क्षत्रिय राजाओं को नरश्रेष्ठ नहीं सीधे ईश्वर का अवतार बताते हैं? क्या ये उनकी हीन स्थिति की ओर इशारा नहीं करता? वैदिक ब्राह्मणों की सन्तति कृष्ण के हाथों वैदिक धर्म के सर्वोच्च देवता इन्द्र की फ़ज़ीहत का गुणगान मुक्तकण्ठ से कैसे करते हैं? ब्राह्मण तो ब्राह्मण ही रहे लेकिन पाण्डव सीधे-सीधे दैविक देवताओं की सन्तान हो गए? क्या किसी को इसमें जनमेजय या उसके किसी वंशज द्वारा ब्राह्मणों को दिये हुए एक एसाइनमेण्ट की धुंधली तस्वीर नहीं झलकती?

ब्राह्मणों की सत्ता पर पकड़ सिर्फ़ वैदिक काल तक ही थी जब वे प्राकृतिक शक्तियों को शांत कर सकने की शक्ति वाले मंत्रो के रक्षक रूप में थे। बाद के काल में ब्राह्मणो और क्षत्रियों में संघर्ष के प्रमाण मिलते हैं परशुराम की कथा में और वशिष्ठ-विश्वामित्र प्रतिस्पर्धा में। बुद्ध के अते-आते प्रकृति पर नियंत्रण में वैदिक मंत्रो की शक्ति की पोल खुल गई और धर्म के नई परिभाषाएं होने लगीं। वेद और वैदिक धर्म तभी अप्रसांगिक हो गया था लेकिन ब्राह्मणों ने उसे नहीं छोड़ा। नए धर्म के दलाल बने और उसे पुरानी परम्परा का ही नया संस्करण सिद्ध करने का घालमेल करते रहे। उसके बाद एक समय ऐसा भी आया जब बौद्ध धर्म द्वारा ब्राह्मण धर्म पर बढ़ते आक्रमण से बचाव के लिए ब्राह्मणों ने ख़ुद ही तलवार उठा ली, जबकि उनका क्षत्रियों से समझौता था कि वे दोनों अपना-अपना क्षेत्र सम्हालेंगे। पुष्यमित्र, सातवाहन आदि ब्राह्मण राजा इस भूभाग पर लगभग डेढ़ सौ साल तक क़ाबिज़ रहे। लेकिन शीघ्र ही वे वापस धर्म के दलाल वाली स्थिति में लौट आए।

इस बार पुराणलेखन के ज़रिये स्थानीय देवी-देवताओं को वैदिक और उत्तर वैदिक देवताओं के समीकरण में बैठाते रहे और अपनी शास्त्रीय परम्परा को सींचते रहे। और अपने अस्तित्व के अहमियत को सिद्ध करते रहे। मुसलमानों के आने के बाद उनकी स्थिति कमज़ोर हुई लेकिन अकबर बादशाह ने उन्हे ज़मीन बाँटकर वापस सत्ता के क़रीब खींच लिया। बावजूद इसके कि तुलसीदास बार-बार 'बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार' जैसे पद दोहराते हैं और समाज में भूसुर की स्थिति मज़बूत करने में ज़ोर लगाते हैं, (शायद इसीलिए कि उनके स्थिति कमज़ोर पड़ चुकी थी) समाज में बाभनों का दबदबा पाँय़लागी से इतना अधिक कभी नहीं हुआ कि वे निश्चिन्त होकर अय्याशियां कर सकें। आजकल जो ब्राह्मणों की महिमामण्डित तस्वीर बनाई जाती है जैसे वे भारतीय समाज के हर रोग, हर बीमारी के लिए ज़िम्मेदार हैं, वो बेहद अतिरंजित है। मुश्किल ये है कि ब्राह्मण सबूत के साथ पकड़े गए हैं। उन्होने अपनी हर प्रतिगामी चिंतन को लिख रखा है। लेकिन इस के चलते ब्राह्मणों को सर्वशक्तिशाली घोषित कर के सारा अपराध ब्राह्मणों का ही मान लेना ठीक नहीं है।

ब्राह्मण और पुरानी वर्णाश्रम व्यवस्था की बहुत ही मोटी और सरलीकृत समझ लोकप्रिय हो चली है। ऐसा सोचना कि कोई भी सामाजिक संरचना शुद्ध निहित स्वार्थों के मूल से उपजती है मनुष्य स्वभाव के प्रति बड़े निराशाजनक चिन्तन का सूचक है। जब मुहम्मद साहब ने कहा कि अरब में केवल मुसलमान ही रहेंगे तो इस बात में उनके मन में यहूदियों के प्रति विद्वेष के बजाय अरबों और मुसलमानों के प्रति एक शांति की कामना ही अधिक बलवती रही होगी। हर धर्म समाज का एक चर नहीं बल्कि स्थिर स्वरूप प्रस्तुत करता है और उसे लागू करने की कोशिश करता है। सारी नैतिकता एक स्थिर समाज के सापेक्ष होती है। इस्लाम हो या ब्राह्मण धर्म हो, सभी ने एक स्थिर समाज के नज़रिये से एक नैतिकता पेश की है।

वर्णाश्रम व्यवस्था का उद्देश्य भी समाज के सभी वर्गों के बीच एक संतुलन बनाए रखना रहा होगा। उसमें प्रगतिशीलता को स्थान नहीं है। प्रगतिशीलता चर है.. उसमें सामाजिक बदलाव है.. बदलाव के साथ नैतिकता भी बदल जाती है। और धर्म नैतिकता के अलावा और है ही क्या? इसीलिए धर्म और प्रगतिशीलता आपस में विरोधी हैं। प्रगतिशीलता से टकरा कर ब्राह्मण धर्म अपने मूल स्वरूप में समाप्त हो चुका है। ईसाईयत भी योरोप के पुनर्जागरण के साथ बेमतलब हो गई। इस्लाम को भी प्रगतिशीलता धीरे-धीरे ध्वस्त कर रही है। अप्रासंगिक हो चुका इस्लाम अपनी पूरी ताक़त से लड़ रहा है। लेकिन उसका भी बचना मुश्किल है। यह परिवर्तन अवश्यम्भावी है।

सच पूछें तो इस्लाम का अवसान औद्योगीकरण के साथ ही हो गया था लेकिन उसके अनुयायी एक खोखले सामाजिक ढाँचे को ढोए जा रहे हैं। कुछ तो समय में वापस जाने के लिए युद्धरत भी हैं। वो तो होने से रहा मगर हाँ यह ज़रूर हो सकता है 'डूबते को तिनके का सहारा' रूपी एक आस्थाई धर्म के रूप में इस्लाम आने वाली कई सदियों तक बना रहे। जैसे ब्राह्मण धर्म के छिन्न-भिन्न अवशेष अभी भी मिलते हैं। लेकिन इन धर्मों के अवसान का अर्थ यह नहीं है कि हम इस्लाम और ब्राह्मण धर्म का अध्ययन करते हुए हम उसमें प्रतिगामीपन के चरम की तलाश करते हुए अपनी कल्पनाएं उसमें आरोपित करने लगें और यथार्थ को पकड़ने के बदले मिथ गढ़ने लगें और मिथ्या का चर्वन करने लगें।



6 टिप्‍पणियां:

Smart Indian ने कहा…

विचारणीय आलेख. पोलेक साहब सरीखे विद्वानों को पध सकें, इत्ना सौभाग्य, धन, समय कभी मिला नहीं. आपकी समीक्षा के बहाने उनका परिचय भी मिल गया। भारत के हिन्दू, मुसल्मानों और ईसाइयोन में व्याप्त जातियाँ और ज़ातों का उस वर्ण व्यवस्था से कोई लेना-देना नहीं है जो पूर्ण्तया कर्म पर आधारित थी। जाति का अभिमान भी ब्राहमणों से अधिक नहीं तो उनके समान तो भारत की अनेकों जातियों में पाया जाता है और वे जन्माभिमानी जातियां केवल हिन्दू नहीं हैं।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बहुत दिनों बाद इस विषय पर इतना सारगर्भित लेख पढ़ा। निष्कर्ष पहले से तैयार रखे गये हैं और उनके साथ इतिहास के तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया। उन्मुक्तवादी को किसी भी बन्धन में बँधना नहीं भाता क्योंकि उसके लिये उत्तरदायित्व सम्हालना होगा, उनके लिये सब नकार देने की स्थिति सर्वोत्तम है। ऐसा करने से सब नैतिक अनैतिक करने की छूट मिल जाती है। ऐसी चार्वाकीय मानसिकता कोई नयी बात नहीं, बहुतों में होती है, पर उन्हें बुद्धिजीवी भी कहना पड़े यह दिन भगवान मुझे न दिखाये।

चंद्रभूषण ने कहा…

विचारोत्तेजक लेख। एक कोई सीधी-सच्ची बात है जो धड़धड़ाती हुई निकल गई है। बहुत सारे छोर हैं, जिन पर धीरे-धीरे, व्यवस्थित काम करने की जरूरत है। सभ्यता-संस्कृति के मामले में मूर्ख अंग्रेजों के लिखे हुए पोथों का महिमामंडन कभी तो खत्म होगा। कभी तो दुराग्रहों के पार जाकर सच्चाई को पकड़ने की कोशिश शुरू होगी।

सोनू ने कहा…

GENETICS AND THE ARYAN DEBATE का लिंक ग़लत आ गया, सुधार लें।

(इस टिप्पणी को प्रकाशित मत करें।)

Sanjeet Tripathi ने कहा…

kafi kya, bahut kuchh sikhne samajhne mila aapke is post se, aisa likha gaya hai ki ise kai baar padhne ke baad hi mujhe jaise mudhmati ke bheje me samajh me aayegi ye saari baat.....

Abhishek Ojha ने कहा…

कई नयी बातें जानने को मिली. एक और अच्चा लेख.

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