यहाँ तक बात तार्किक है। फिर पौलक साहब उसे प्राचीन व मध्यकालीन भारत में ले जाते हैं जहाँ वे आर्य सत्ता में प्रजातीय तत्व की घोषणा कर के नाज़ियों और ब्राह्मणों को एक पायदान पर खड़ा कर देते हैं। यह तो हद ही हो गई। क्या ब्राह्मणों ने अछूतों के लिए कोई गैस चैम्बर्स बनाए थे? किसी जाति के प्रति पूर्वग्रह होना और उस जाति का क़त्लेआम करना दो बहुत अलग-अलग बाते हैं। यू ए ई में आज भी एक हिन्दू मज़दूर के मरने पर उसे ७००० दीनार का मुआवज़ा मिलता है, ईसाई के मरने पर पचास हज़ार और मुसलमान के मरने पर १ लाख का। यह क्या पूर्वग्रह नहीं है? अलग-अलग वर्गों के लिए हर समाज में क़ानूनो में पक्षपात होता ही आया है, कुछ में खुले तौर पर कुछ में छिपाकर। आगे पौलक साहब सती प्रथा के अनुमोदन के शास्त्रीय साक्ष्य लाकर यह सिद्ध करते हैं कि अंग्रेज़ो द्वारा भारत के औपनिवेशीकरण के पहले ही ब्राह्मणों ने अन्य जातियो का औपनिवेशीकरण किया हुआ था।
प्राचीन भारतीय समाज में ब्राह्मणों के नैतिक और बौद्धिक वर्चस्व से किसी को इंकार नहीं है मगर उसे औपनिवेशीकरण कहना यह मानना होगा कि सभी जातियां अलग-अलग प्रजाति की थीं और ब्राह्मण उन पर अपनी नैतिकता थोप रहे थे। प्रजाति वाली बात की चर्चा आगे करेंगे लेकिन नैतिकता के समबन्ध में अगर सचमुच ऐसा है तो वैदिक ब्राह्मण गणेशभक्त और देवीभक्त कैसे हो गए? किस के प्रभाव में हो गए? क्या किसी ने उनका औपनिवेशीकरण किया? सती का अनुमोदन अगर ब्राह्मण ग्रंथों में मिलता है तो क्या कबीर भी ब्राह्मण उपनिवेशवाद का शिकार हैं? देखिये कबीर जैसे मुहँफट और रैडिकल समाजसुधारक संत क्या कहते हैं..:
१) सती को कौन सिखावता है,
संग स्वामी के तन जारना जी।
प्रेम को कौन सिखावता है,
त्याग माँहि भोग का पावना जी॥
२) जैसे सती चढ़ि सत-ऊपर, पिया की राह मन भाई।
पावक देख डरे वह नाहीं, हाँसत बैठे सदा माई।
३)अब तो जरै-मरै बनि आवै, लीन्हे हाथ सिधौंरा।