कल शाम को एन डी टी वी पर चुनाव के नतीजे का विश्लेषण करने बैठे बुद्धिजीवियों और राजनेताओं के एक समूह में इन्डियन एक्सप्रेस के सम्पादक ने एक बड़ी दिलचस्प बात बेपरदा कर दी। आप सब जानते ही हैं कि कांग्रेस पार्टी को लगभग बहुमत मिल गया है और ये तय हो चुका है उनके और अगली सरकार के बीच अब कोई रोड़ा नहीं है।
इसी बात पर हो रही चहचहाटों के बीच प्रणय रॉय ने ने कांग्रेस के पृथ्वीराज चौहान को घेरते हुए कहा कि अब आप के ऊपर वाम दलों का दबाव नहीं है और इसलिए अब गहरे आर्थिक सुधार करने से पीछे हटने के लिए आप के पास कोई बहाना नहीं होगा।
पृथ्वीराज चौहान कुछ इस की पुड़िया बनाते उसके पहले ही शेखर गुप्ता ने अति उत्साह में उवाचा कि कांग्रेस के अन्दर तमाम सारे क्लॉज़ेट सोशलिस्ट (छिपे हुए समाजवादी) हैं जो गहरे आर्थिक सुधारों में रुकावट बन जाते हैं। उल्लेखनीय है कि इसके थोड़ा पहले स्वयं राहुल गांधी ग़रीबों के हितों की बात करते टी वी पर दिखाई दिए थे। परोक्ष रूप से यह आरोप उन पर भी था (हालांकि मैं इस आरोप से सहमत नहीं हूँ)।
प्रच्छन्न समाजवादी होने की इस टिप्प्पणी पर जे डी यू के एन के सिंह ने एक बेबाक बात कही- अगर कांग्रेस के भीतर क्लॉज़ेट सोशलिस्ट की बात सही है तो इस का सीधा अर्थ यह होगा कि आर्थिक सुधारों का एजेण्डा कांग्रेस का अपना एजेण्डा नहीं बल्कि ऊपर से थोपा गया एजेण्डा है। शेखर गुप्ता इस के जवाब में चुप्पी साध गए। मगर क्या ये बात सच नहीं है?
आखिर किस का एजेण्डा है ये आर्थिक सुधार का एजेण्डा? कांग्रेस का तो नहीं है। क्योंकि कांग्रेस पार्टी तो पिछले चुनाव में कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ के नारे पर सबसे बड़ी पाटी के रूप में उभर के आई थी। NREGA जैसी योजनाओं को लागू करने के अलावा कांग्रेस ने ग़रीब आदमी के लिए क्या किया? किसानों के कर्ज़े माफ़ कर दिए? इस तरह के क़दम, मार के आँसू पोंछने जैसी बातें हैं।
मज़े की बात यह है कि NREGA तथा अन्य जनहित की योजनाओं को लागू करने के लिए वाम दलों ने ही उन पर दबाव बनाया था। आज हालत ये है कि वाम दल हार गए और कांग्रेस विजयी हुई है।
मैं नहीं जानता कि प्रगति और आर्थिक खुशहाली के लिए कौन सा रास्ता सही रास्ता है। सम्भव है कि आर्थिक सुधारों का रास्ता ही दी गई परिस्थितियों में सबसे कम बुरा हो। मगर मुश्किल ये है कि कांग्रेस ने उसे लागू करने के लिए जनादेश नहीं लिया है।
जनादेश किस बात का मिला है यह कितने लोग ठीक-ठीक कह सकते हैं? कितने लोगों ने कांग्रेस, भाजपा और अन्य दलों का घोषणापत्र पढ़ा है? तो आखिर किस आधार पर लोग एक दल को चुनते हैं और दूसरे दल को नकार देते हैं? सड़क बन गई हो, नाली साफ़ करा दी गई हो, बिजली जाना कम हो गया हो, इन आधारों पर नितिश और मोदी जैसे नेता क़द्दावर साबित हो रहे हैं। जान माल की सुरक्षा का वादा करके लालू और मुलायम अभी तक मुसलमानों से जनादेश उगाहते रहे हैं। दलितों की इज़्ज़त अफ़्ज़ाई के सवाल पर मायावती दलित वोट पर पालथी मार के जमी हुई हैं।
इन सब आधारभूत और बेहद मौलिक सवालों में अटकी हमारी जनता से ये उम्मीद करना शायद ज़्यादती है कि वह आर्थिक सुधारों पर जनादेश दे? मेरे जैसे पढ़े-लिखे होने का भ्रम रखने वाले लोग तक पूरी शिद्दत से इस विषय पर अपनी राय ज़ाहिर नहीं कर सकते अर्ध-शिक्षित आम जनता की बात बहुत दूर की है।
फिर आर्थिक सुधार किस के अनुमोदन से लागू किए जा रहे हैं? किसी ने आप से पूछा? १९९१ में नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की टीम ने तात्कालिक आर्थिक संकट से निबटने एक रास्ता अपनी ज़िम्मेदारी पर तय किया। जिसका दबाव वर्ल्ड बैंक और आई एम एफ़ काफ़ी पहले से भारत सरकार पर बनाए हुए था। मगर हमारी समाजवादी विरासत हमें उस रास्ते पर जाने से बराबर रोके हुए थी। संयोग से वह फ़ैसला सफल साबित हुआ और भारत आर्थिक प्रगति की राह पर चल निकला।
यहाँ पर यह उल्लेख करना ग़ैर-वाजिब नहीं होगा कि मनमोहन सिंह स्वयं भारत सरकार की नौकरी करने के पहले वर्ल्ड बैंक की नौकरी बजा चुके हैं।
मैं जानता हूँ और मानता हूँ कि आप हर बात पर बहुमत की राय लेकर चलेंगे तो कुँएं में गिर जाएंगे। तमाम अहम फ़ैसले आप को विशेषज्ञों के विवेक पर छोड़ने ही होंगे। लेकिन जो विशेषज्ञ ये फ़ैसला ले रहे हैं वे आप के ही हित को ध्यान में रखकर ये फ़ैसले कर रहे हैं इस बात की क्या गारण्टी है? वे अम्बानी, कोक, वालमार्ट, और मोनसैन्टो के हितों को सर्वोपरि नहीं रख रहे ये आप कैसे जानते हैं?
किसी अहम मौके पर जब विदर्भ के किसान और मोन्सैन्टो के हित टकरायेंगे तो ये विशेषज्ञ मोनसैन्टो का हित साध कर आत्महत्या करने वाले किसान को कुछ मुआवज़ा देने के बजाय सीधे किसान के हित में फ़ैसला करेंगे यह क्या आप पूरे विश्वास से कह सकते हैं?
दूसरी ओर आर्थिक सुधारों की यह समझ मानती है कि बाज़ार के मुक्त विकास से आम खुशहाली बढ़ेगी। अगर सचमुच ऐसा है तो पूरे विश्व में बाज़ार के मुक्त विकास के लम्बे दौर के बाद आज मन्दी और मायूसी क्यों है? क्यों आज मुक्त हस्त से कर्ज़ बाँटने वाले बैंक खुद कटोरा लेके खड़े हैं?
तो इन विशेषज्ञों की समझ और उनकी प्रतिबद्धता दोनों पर सवालिया निशान हैं। मगर हम और आप कुछ नहीं कर सकते क्योंकि ऐसे तमाम सवालों के आधार पर हम भारत देश के लोग किसी दल को जनादेश नहीं देते। मैंने स्वयं ने कांग्रेस पार्टी को वोट दिया है।
क्योंकि मैं न तो श्री अडवाणी को देश के प्रधानमंत्री के बतौर देखना चाहता था और न ही शिव सेना या महाराष्ट्र नवनिर्माण जैसी सेनाओं के हाथों आततायित होने का इच्छुक था। एक विकल्प मेरे पास समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार अबू आसिम आज़मी भी थे.. पर वे कैसे विकल्प हैं इस पर चर्चा न ही करें तो बेहतर है। तो मैंने कांग्रेस के गुरुदास कामत के नाम पर बटन दबा दिया दूसरे किसी विकल्प के अभाव में।
आप को यह सरकार मुबारक हो! इस उम्मीद के साथ कि कभी वो समय भी आएगा एम पी यानी जनता के प्रतिनिधि संसद में क़ानून बनाते समय अपनी उस जनता का हित-अहित भी सोचेंगे जिसने उन्हे चुन के आया है और उसके बाद कभी वो समय भी आएगा कि जब सरकार ऐसे अहम मामलों को लागू करने के पहले जनता से जनादेश लेगी।
10 टिप्पणियां:
समीक्षा जँची । अबू आजमी पर लोगों को बेहिचक बताना जरूरी है - बनारस में भी उसने अमर सिंह के साथ ’धन्धा’ फैलाया है ।
इस जनतंत्र का हाल यह हो रहा है कि इस में शासकशक्तियाँ (देशी-विदेशी बड़े उद्योगपति और भूस्वामी) ही हमारे सामने विकल्प रखते हैं। हमें उन में से ही किसी को चुनना पड़ता है। जनता कब संगठित हो कर अपने प्रतिनिधि इन के मुकाबले लाने में सक्षम हो सकेगी?
अडवानी को तो कोई भी प्रधानमंत्री के रूप में नहीं देखना चाहता था, यहां तक की भाजपा के कई दिग्गज नेता भी इसके विरोध थे। भाजपा को यही गलती तो भारी पड़ी है।
एक नजर इधर भी देखें
मनमोहन का अर्थशास्त्र आया काम-अडवानी का नहीं भाया नाम
भारत के अधिकांश मतदाता विकल्पहीनता का शिकार हैं. कम मतदान प्रतिशत शायद इसी का प्रमाण है.
जो भी विकल्प उभर कर आ रहे थे, उसमें शायद यही सबसे बेहतर और स्थाईत्व देने वाला था. काफी उम्मीदें हैं इस विकल्प से.
मुबारकबाद की तो बनती ही है.
अच्छा विश्लेषण किया है.
मैंने भी कांग्रेस को मत दिया.....उस दल को जिसकी मौजूदा आर्थिक नीतियों के विरोध में रहा हूं। जाहिर है कि यह विकल्पहीनता की मजबूरी ही है। अब यदि कोई मेरे मत को आर्थिक सुधारों के लिए जनादेश में गिनती करता है तो यह गलत ही होगा। यदि मुझे निजीकरण और बाजारीकरण की पूंजीवादी नीतियों के पक्ष में जनादेश देना होता तो मैं भाजपा को वोट देता। मैंने कांग्रेस को इसलिए वोट दिया क्योंकि मुझे अभी भी आशा है कि नेहरू खानदान के वारिस शायद अभी भी पी चिदंबरम की नीति को राम-राम कर पुरानी समाजवादी जड़ों की ओर लौटें।
भारतीय जनमानस आशावादी होता है। एक आशा के सहारे ही तो भारतीय किसान अपनी तमाम उम्र आकाश निहारते काट देता है।
Achachha mulyankan kiya hai aapne.
-Zakir Ali ‘Rajnish’{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
कांग्रेस का यूपी मे प्रयोग सफल रहा, बिहार मे फेल। कमोवेश स्थिति ये थी कि यूपी मे हर पार्टी अपनी अपनी अंदरुनी कमजोरी से परेशान थी।ऊपर से वरुण गांधी ने बेवजह बयानबाजी करके मुस्लिम वोटो का ध्रुवीकरण कराया। तमिलनाडू मे डीमके ने लाज बचा ली, पश्चिम बंगाल मे तृणमूल कांग्रेस ने। अलबत्ता राजस्थान मे गहलोत का कमाल हुआ, वो भी बीजेपी की अंदरुनी गुटबाजी के कारण। मै तो अभी भी मानता हूँ, कि ये बीजेपी और एनडीए की हार है,। जाहिर है, उनकी हार मे कांग्रेस की जीत छिपी हुई है।
इस जनादेश की सबसे अच्छी बात, गुंडा माफिया को जनता द्वारा नकारना है। राजनीतिक पार्टियां इस सन्देश को ठीक से समझे। जनता सोचती समझती सबकुछ है, लेकिन पाँच साल मे एक फैसला करती है।
कांग्रेस और उनके सहयोगियों को जीत की ढेर सारी शुभकामनाएं, अब जनता जल्द से जल्द आर्थिक सुधार देखना चाहेगी, भले ही कुछ कड़े फैसले लेने पड़े।
आपने बहुत अच्छी समीक्षा की है । आपके ब्लॉग पर बहुत दिनो आना हुआ अच्छा लगा।
अभय, आपका ब्लौग बहुत सुन्दर और उपयोगी है. ऊपर हैडर में दिया गया बांसों का झुरमुट मन को भाता है. मैं आपकी लघु फिल्म देखना चाहूँगा. मैं फिल्मों का दीवाना हूँ और विश्व सिनेमा की बेहतरीन फिल्में देख चूका हूँ, बहुत सी देखना बाकी हैं. आप बहुत अच्छा लिखते हैं. मेरी शुभकामनायें.
आपके ब्लौग पर दिया गया हिंदी टूलकिट डाउनलोड करने का लिंक काम नहीं करता. इसे चैक कर लें.
अभय जी आपने बहुत अच्छा विश्लेषण किया है इसके लिए बधाई हो लेकिन कुछ और भी बाते है जिसकी तरफ आपको ले चलने की कोशिश करुगा. शहर में रहते हुए हम लोग बाकि हिंदुस्तान को भूल जाते है अभी पिचले दिनों मेरा गाँव की तरफ जाना हुआ था और लोगो से मेरा भी यही सवाल था कि वो अगली सर्कार के बारे में क्या सोचते है. और इन सवालो के जबाब कि कुछ बानगी दे रहा हूँ शायद आपके विश्लेषण में काम आये.
किसान पहले ४५० रुपया कुंतल गेहू बेचता था अब सरकार ने गेहू का सरकारी मूल्य १०८० रुपया है ६५ रुपया कुंतल गन्ना का भाव पहले था जो कि अब १७५ रुपया कुंतल है और इसी तरह बाकी चीजो के दाम में भी फरक पड़ा है. और इसके विपरीत अरुण जेतली टीवी पर बार बार कहते सुने गए कि महगाई बहुत बढ़ गई है और उनकी सरकार आई तो खाद्दनो का दाम काम करेगे. लोगो का कहना था कि बीजेपी सबसे पहले किसानो का गला दबाएगी. काग्रेस को वोट मिलने के पीछे कुछ कारण यह भी है और आप यह बिलकुल नहीं कह सकते है कि सरकार ने किसानो के लिए कुछ नहीं किया है गांवो कि तस्वीर बहुत कुछ बदली है लेकिन उन्हें आशा बहुत है मनमोहन सिंह सरकार से
एक टिप्पणी भेजें