मंगलवार, 11 नवंबर 2008

बनी-बनाई कविता

उदय प्रकाश ने चमत्कारिक कहानियाँ लिखी हैं.. और हिन्दी साहित्य की दुनिया में उनका नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। मैं खुद उनकी कहानी-कला का प्रशंसक रहा हूँ, हूँ। मगर उदय जी कवि भी हैं और मैंने अपने छात्र जीवन में उदय प्रकाश की कविताओं को पढ़ा और महसूस करने की भी कोशिश की थी।

उनकी एक कविता-एक शहर को छोड़ते हुए आठ कविताएं- एक अन्तराल तक मेरे मानस पर क़ायम रही थी। उस कविता में वैयक्तिक प्रेम और सामाजिक स्वीकृति के बीच के तनाव के ताने-बाने को उन्होने अपनी भाषाई चमत्कार से अच्छे से गढ़ा था। पर उनकी कई अन्य कविताओं में मुझे कभी कोई खास तत्व नहीं नज़र आया। मुझे उन में अनुभूति से अधिक अतिश्योक्ति और एक नाटकीयता ही समझ आई।

आज अचानक अफ़लातून भाई के ब्लॉग पर उदय जी की एक कविता दिखी। जो अफ़लातून भाई ने छापी तो जनवरी २००७ में थी मगर मैं आज ही देख सका। समाजवादी जनपरिषद पर एक नया लेख पढ़ते हुए संयोगवश साइडबार में मैंने उदय जी का नाम देखा .. जिज्ञासा हुई.. क्लिक किया तो पहले कमेंट पढ़ने को मिले।

सभी पाठक कविता से अभिभूत थे.. उदय जी का भी कमेंट था. वे इस इतने आत्मीय और प्रेरणास्पद स्वीकार से गदगद थे। प्रतिक्रियाओं को पढ़ने के बाद कविता पढ़ी..। वैसे तो मैं कविताएं अब नहीं पढ़ता हूँ लेकिन युवावस्था में उदय जी के लिए जो श्रद्धाभाव बना था उसके दबाव में एक बहुत लम्बे समय के बाद कोई कविता पढ़ी.. कविता शुरु होती है ऐसे..

एक भाषा हुआ करती है
जिसमें जितनी बार मैं लिखना चाहता हूँ ‘आँसू’ से मिलता-जुलता कोई शब्द
हर बार बहने लगती है रक्त की धार

पहली ही पंक्ति ग़ालिब के मिसरे- 'जब आँख ही से न टपका तो लहू क्या है'- का कठिन रूपान्तर है.. ऐतराज़ रूपान्तर से नहीं है.. अगर कोई छवि, रूपक आप के भाव के सादृश्य हो तो पाठक गप्प से निगल लेने को तैयार रहता है मगर मुझ से गप्प हुआ नहीं क्योंकि यहाँ कोशिश वही चमत्कार खड़ा करने की है। खैर.. आगे पढ़ा..


वह भाषा जिसमें लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल हो जाता है
आत्मघात करती हैं प्रतिभाएँ

तो क्या जो पागल नहीं हुए वे ईमानदार नहीं है..? जिस जमात में स्वयं उदय प्रकाश भी शामिल हैं? और यहाँ पर यह भी याद कर लिया जाय कि ये वही उदय प्रकाश हैं जिन्होने प्रेम और क्रांति के जज़्बों के बीच झूलने वाले और अपनी इसी ईमानदारी के चलते विक्षिप्त हो जाने वाले कवि गोरख पाण्डेय का विद्रूप करते हुए एक कहानी भी रची थी-राम सजीवन की प्रेम कथा। जिसमें गोरख जी कभी कभी सहानूभूति के पात्र मगर अधिकतर हास्यास्पद चित्रित किए गए थे।

ईश्वर ‘ कहते आने लगती है अकसर बारूद की गंध..

इस तरह की पंक्तियाँ बेहद असरदार हैं और उदय जी की उसी चमत्कारिक भाषा का प्रदर्शन है..जो उनकी पहचान है। पाठक इनको पढ़ कर कवि की प्रतिभा के आगे ढेर हो सकता है.. हो जाता है.. मगर क्या यही कविता है? ज़रा इन जुमलों पर भी गौर किया जाय..

सबसे असभ्य और सबसे दर्दनाक

सबसे ज्यादा लोकप्रिय


सबसे बदहाल और सबसे असाक्षर

सबसे गरीब और सबसे खूंख्वार

सबसे काहिल और सबसे थके - लुटे

सबसे उत्पीड़ित और विकल

ये जुमले अतिश्योक्ति के एक ऐसे संसार की ओर इशारा करते हैं जिसमें अपना दुख ही सबसे बड़ा है.. और दुख देने वाला सबसे खतरनाक। ऐसी मोटी समझ से किसी महीन अनुभूति की अपेक्षा की जा सकती है क्या? मगर हम करते हैं.. क्योंकि उदय जी हिन्दी साहित्य के आकाश के प्रतिभावान सितारे हैं।

भाषा जिसमें सिर्फ कूल्हे मटकाने और स्त्रियों को
अपनी छाती हिलाने की छूट है
जिसमें दंडनीय है विज्ञान और अर्थशास्त्र और शासन से संबंधित विमर्श
प्रतिबंधित है जिसमें ज्ञान और सूचना की प्रणालियाँ
वर्जित है विचार

उदय जी के दिमाग में एक कल्पित तानाशाह है और है एक कल्पित विद्रोही। उस के अन्तरविरोध की तनी हुई रस्सी पर ही उदय जी अपनी सीली हुई कविता की भाषा सुखा रहे हैं। मेरा कहना है कि भई रस्सी है कि नहीं है.. है तो किस हाल में है.. ज़रा बीच-बीच में जाँच लिया जाय। कम से कम इस तरह की पंक्ति लिखने के पहले तो ज़रूर ही..

वह भाषा जिसमें सिर्फ कूल्हे मटकाने और स्त्रियों को
अपनी छाती हिलाने की छूट है
जिसकी लिपियाँ स्वीकार करने से इनकार करता है इस दुनिया का
समूचा सूचना संजाल

हो सकता है कि ये वाक्य उन्होने नेट पर लिपियों के इस स्वातंत्र्य के पहले लिखें हों.. तो भी ये वाक्य कवि की 'दृष्टा' और 'जहाँ न रवि पहुँचे' वाली उक्तियों को पछाड़ कर उदय जी की वास्तविकता के आकलन क्षमता के प्रति कोई अनुकूल मत नहीं बनाती।

बहुत काल से हम हिन्दी वाले सत्ता की मुखालफ़त करते हुए अपने समाज की सारी कमियों का ठीकरा सत्ता पर फोड़ते जाते हैं। हम विज्ञान और संज्ञान में पिछड़े हैं क्योंकि हमारे भीतर न तो वैज्ञानिक सोच है और न ही औरतों की छातियों और कूल्हों को देखने से फ़ुरसत। इसका दोष सत्ता को देने से क्या सबब?

ये बात ही हास्यास्पद है कि सत्ता लोगों को औरतों के कूल्हे देखने के लिए मजबूर कर रही है। हिन्दी की तमाम छोटी-छोटी पत्रिकाओं में असहमति के आलेख छापे जाते हैं.. लेकिन लोग उन्हे न खरीद के ‘आज तक’ पर ‘सैफ़ ने करीना की चुम्मी क्यों ली’ देखना ही पसन्द करते हैं। क्या इसमें लोगों का कोई क़सूर नहीं? आगे लिखते हैं..

अपनी देह और आत्मा के घावों को और तो और अपने बच्चों और
पत्नी तक से छुपाता
राजधानी में कोई कवि जिस भाषा के अंधकार में
दिन भर के अपमान और थोड़े से अचार के साथ
खाता है पिछले रोज की बची हुई रोटियाँ

इन वाक्यों में ईमानदारी भी है और अनुभूति भी.. पर इस पर वे ज़्यादा देर टिकते नहीं, वे वापस अपनी हिन्दी कवियों की चिर-परिचित नाटकीयता के रथ पर सवार हो कर किसी दायोनीसियस को फटकारने लगते हैं..

सुनो दायोनीसियस , कान खोल कर सुनो
यह सच है कि तुम विजेता हो फिलहाल,एक अपराजेय हत्यारे
तुम फिलहाल मालिक हो कटी हुई जीभों,गूँगे गुलामों और दोगले एजेंटों के
विराट संग्रहालय के ,

एक दायोनीसियस प्राचीन काल में यूनान का तानाशाह था। जो खा-खा कर इतना मोटा हो गया था कि बाद में उसे खाना खिलाने के लिए अप्राकृतिक तरीक़े इस्लेमाल किए गए.. आखिरकार वो अपने ही मोटापे में घुट कर मर गया। एक दूसरा दायोसीनियस अशोक के दरबार में यूनानी राजदूत था जिसने बहुत शक्ति और सम्पदा जुटा ली थी। तमाम और दायोनीसियस भी हैं.. ऐसी ही एक मिलते जुलते नाम का मिथकीय चरित्र दायनाइसस (बैकस) भी है जो मद, मदिरा और मस्ती का ग्रीक देवता है। उदय जी किस दायोनीसियस की बात कर रहे हैं? क्या इशारा है ये? किन बाहर से आए लोगों ने भाषा की दुर्गत कर दी है?

हिन्दी भाषा की दुर्गति और इस दायोनीसियस का क्या गूढ़ सम्बन्ध है यह मुझे समझ में नहीं आया। हो सकता है सामान्य समझ के परे होना ही दायोनीसियस जैसे नाम की विशेषता हो। आप को नहीं पता-उदय जी को पता है- वे आप से विद्वान हैं-सीधा निष्कर्ष निकलता है। तमाम विषेषणों से दायोसीनियस का चेहरा भली भाँति लाल कर चुकने के बाद उदय जी आशा के लाल सूरज पर ला कर कविता का अंत कर देते हैं।

लेकिन देखो
हर पाँचवे सेकंड पर इसी पृथ्वी पर जन्म लेता है एक और बच्चा
और इसी भाषा में भरता है किलकारी

और
कहता है - ‘ माँ ! ‘

नया बच्चा पैदा हो रहा है.. और मातृभाषा में बोल रहा है.. उद्धार की उम्मीद बनी हुई है। ये कविता का वैसे ही अंत है जैसे सत्तर और अस्सी के दशक में एक चेज़ के साथ फ़िल्म का क्लाईमेक्स होता था या तमाम प्रेम कथाओं का अंत हॉलीवुड की प्रेरणा से, आजकल एअरपोर्ट पर होने लगा है।

कविता, कहानी, तमाम कला और कलाकारों को तय करने का मेरा पैमाना उसकी सच्चाई ही रहा है.. बहुत साथियों को उदय जी की कविता सच का आईना लग सकती है मुझे वह अपनी तमाम भाषाई चमचमाहटों के बावजूद अतिश्योक्ति, और थके हुए-घिसे हुए शिल्प का एक प्रपंच लगती है।

एक पहले से तय ढांचा, पहले से तय मुहावरे, पहले से तय निशानों पर वार, पहले से तय बातों के प्रति उत्साह.. लगता नहीं कि कुछ नया लिखा जा रहा है.. नया रचा जा रहा है.. कम से कम मुझे तो नहीं लगता कि कुछ भी नया पढ़ रहा हूँ। ऐसा लगता है कि बने-बनाए खांचों में फ़िट हुआ जा रहा है। विद्रोह का भी एक बना-बनाया स्पेस है हिन्दी और हिन्दी कविता में। जिसे ओढ़कर आप बड़े कवि बन सकते हैं और पुरुस्कार, सम्मान आदि पा सकते हैं।

11 टिप्‍पणियां:

ओमप्रकाश अगरवाला ने कहा…

आदमी मरने के बाद
कुछ नहीं बोलता
आदमी मरने के बाद
कुछ नहीं सोचता.

कुछ नहीं बोलने
और कुछ नहीं सोचने
से, आदमी
मर जाता है.
मैं, उदय जी की उपरोक्त कविता को भी काफी पसंद करता हूँ. अभय जी आपने भी गागर में सागर भरा है. बधाई स्वीकार करें.
ओमप्रकाश
merikhabar.blogspot.com

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

अच्छा आलेख है लेकिन ब्लाग पर गरिष्ठ है। आप से कुछ और विषयों पर लिखे जाने की अपेक्षा है।

बेनामी ने कहा…

इसे कविता नहीं कह सकते हैं। ध्वनि-संयोजन नाम की कोई चीज़ नहीं है इसमें। ऐसा लगता है कि कोई मंच पर नौजवान ग्रैजुएट नेता अपने आप को संवेदनशील और ज़िम्मेदार घोषित करता हुआ, छाती पीटता हुआ, अनुपस्थित शत्रु को ललकारते हुए भाषण कर रहा है। मैं इन्हे अपना वोट देने को तैयार नहीं हूँ।
मुझे तो लगता है कि यह कविता उदय प्रकाश की आत्मा से स्फोटित नहीं हुई है। उनके किसी शत्रु सज्जन ने, किसी पराजीवी ने उनके मस्तिष्क में भेद कर के उनके मानस का अतिथि बनकर उन्हे बदनाम करने के लिए उनके मुँह से लिप सिंक कर दी है। या उनके हाथ पकड़ कर के ज़बरदस्ती लिखवाई है।
रोग उपचार के लिए मुझे लगता है कि उन्हे प्रतिदिन निराला को एक घण्टे पाठ करना चाहिये तभी वे इस भाषाई प्रेत से मुक्त हो सकेंगे।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

हर कवि अनेक मन:स्थितियोँ के अँतर्गत विश्लेषण करता है अपने अनुभवोँ का जो नव कविता या
साहित्य मेँ ढल कर सामने आता है - आपने उदय प्रकाश जी पर लिखा तो हमेँ भी उनसे अवगत होने का मौका मिला - उसका शुक्रिया अभय भाई
- लावण्या

बोधिसत्व ने कहा…

भाई अभय जी
उदय प्रकाश जी की यह कविता उनकी बड़ी कविताओं में से नहीं है। और हर कवि की हर कविता अच्छी हो यह कैसे हो सकता है। यह समस्या हिंदी के अधिकतर कवियों के साथ रही है ...तीन अच्छी कविता के बाद लगातार सामान्य कथनों वाली कविता लिख कर साहित्य में बने रहना। वैसे भी उदय जी इन दिनों कथा साहित्य के सृजन में लगे हैं... कविता उनके लिए भी बाएँ हाथ का खेल हो गई है... उनकी एक कविता दिदिया री मुझे आज भी याद है...अब यह कैसे हो सकता है कि हर कविता उतनी ही संवेदनात्मक गहराई लिए हो....तो उम्मीद रखें कि कल उदय जी अपनी नई ताजगी के साथ हाजिर हो...और अपने कवि और कविता से सब को चकित कर दें...

azdak ने कहा…

कविता? हिन्‍दी? हूं?

अजित वडनेरकर ने कहा…

अच्छा पोस्टमार्टम किया है...
शैली कुछ मज़ेदार हो सकती...
अनुभूतियां कविता हो सकती हैं मगर कविता का
संसार भी उसमें समा जाए ये ज़रूरी नहीं....खासकर
नई कविता....बौद्धिक कविता...
खैर...हम तो पारखी नहीं....क्यों लिखने बैठ गए...
क्षमा करे....

बेनामी ने कहा…

उदय प्रकाश की कविता अच्छी है.....आप नाहक उन्हें कम करके रख रहे हैं....

Ghost Buster ने कहा…

कमाल का लेख है, साहसिक और ईमानदार. हिन्दी ब्लॉग जगत को समृद्ध करने के काबिल. कृपया इस प्रकार के लेखों को हल्का करने (सस्ता बनाने) के अनुरोधों पर ध्यान न दें.

शिरीष कुमार मौर्य ने कहा…

बहुत तर्कपूर्ण लेख है अभय भाई!
बोधि भाई ने दूसरा पक्ष भी रखा है पर उन्हें जिस कविता की स्मृति है उसी विषय पर तो अशोक वाजपेयी की भी एक कविता है।
बीती का सहारा आज काम नहीं आ सकता। भाषा खेलने की चीज़ नहीं - ये हमें समझ लेना चाहिए।

आपका लिंक अपने ब्लाग पर लगा रहा हूं!

CHINMAY ने कहा…

abhaya ji aap uday prakash ki telefilms dekhiye, wo aur majedar hai. unme aapko unke ek aur pakshaa ka pata chlega. us par aapki aalochana sun kar aur maza aayega.

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