एक लम्बे समय तक ब्लॉग से दूर रहने के बाद लौटना हो रहा है। मेरी पिछली पोस्ट अगस्त में लिखी गई थी। इन चालीस दिन के के दौरान मैं छुट्टी पर रहा। जो लोग मेरे जीवन को जानते हैं वे कह सकते हैं कि मैं छुट्टियों की गतिविधियों से छुट्टी पर चला गया। और उनका ये कहना ग़लत नहीं होगा।
कभी-कभी मन में एक अपराध-भावना जागती है कि जब कि शेष संसार धंधे पर लगा हुआ है, पैसे कमाने की जुगत में दिन-रात एक कर के फ़ुरसत को तरस रहा है; उस लिहाज़ से मेरा ऐसा जीवन कितना उचित और नैतिक है? मगर विवेक निर्णय देता है कि मुक्ति सबसे मूल्यवान है और छुट्टी दरअसल मुक्ति का ही लोकप्रिय रूप है। सो सब सही है.. !
तो साहब.. लगभग महीने भर के लिए मुम्बई से निकला था, साथ में कुछ काम भी था। सोचा था कि लिखना ही तो है.. लैपटॉप साथ लिए था, जैसे यहाँ तैसे शेष जहाँ। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। एक वाक्य तक नहीं लिखा गया। दिल्ली के मुग़लिया इमारतों का दर्शन किया गया। ल्यूटन की बनाई नई दिल्ली को आह भर-भर के फेफड़ो में भरा गया और मेरे बड़े भाई संजय तिवारी (विस्फोट ब्लॉग वाले नहीं) के ज़रिये दो नए शग़ल में शिष्यत्व लिया गया।
भाईसाहब पुराने चिड़ीनिहार (बर्ड-वाचर) हैं, और जब से उन्हे रक्तचाप की शिकायत हुई और ऐलोपैथी के दवातंत्र ने अपने शिकंजे उन पर कसने शुरु किए, उन्होने दवाओं का जुआ शरीर से उतार फेंकने के लिए टहलने का एक भयानक कार्यक्रम अपना लिया जिसमें वो रोज़ाना आठ-दस किलोमीटर टहलने लगे। दवाएं फेंक दी, रक्तचाप क़ाबू में आ गया और उन्होने अपने निहारने के शौक़ में चिड़ियों के साथ-साथ पेड़ों को भी शामिल कर लिया।
भाईसाहब के साथ रोज़ाना दिल्ली के मुख्तलिफ़ बाग़-बगीचों में टहलते हुए मुझे भी इस गतिविधि में आनन्द मिलने लगा। और दिल्ली के बाद कानपुर और इलाहाबाद के भी बगीचों और गंगा किनारों के तमाम पेड़ों और चिड़ियों को पहचानने का ये उत्साह मुम्बई भी ले कर चला आया हूँ।
मुम्बई इस मामले में थोड़ा अभागा है। यहाँ पर अंग्रेज़ों ने कोई भी कम्पनी बाग़ नहीं बनाया। जी! ये लिखते हुए मुझे दुःख हो रहा है कि आज के हिन्दोस्तान में प्रकृति के नाम पर शहरों के भीतर जो कुछ भी है वो अंग्रेज़ो की विरासत है। चाहे वो ल्यूटन की बनाई दिल्ली के बाग़-बगीचे और सड़को के किनारे लगाए गए पेड़ों की व्यवस्था हो या कानपुर और इलाहाबाद जैसे शहरों के कम्पनी बाग़- उन्ही की सोच का नतीजा हैं।
हम हिन्दुस्तानियों ने उनके जाने के साठ साल के बाद कुछ भी नहीं बनाया- शहरों में एक क़ायदे का बाग़ नहीं और जो कुदरती जंगल हैं उन्हे लगातार नष्ट करते आ रहे हैं। मुम्बई के फेफड़े कहे जाने वाले संजय गाँधी नेशनल पार्क और आरे कॉलोनी को भी चारों तरफ़ से कुतरा जा रहा है। आने वाले दिनों की स्थिति, अगर सम्हला न गई तो, भयानक होगी।
खैर! इस बीच किताबें तो खरीदता भी रहा और पढ़ता ही रहा। मगर दो किताबें जो सबसे अधिक पलटी गईं वे रहीं- डॉ सालिम अली की ‘द बुक ऑफ़ इंडियन बर्ड्स’ और प्रदीप क्रिशन की ‘ट्रीज़ ऑफ़ डेल्ही’। सालिम अली की प्रतिभा से तो सभी परिचित हैं मगर फ़िल्म डाइरेक्टर प्रदीप क्रिशन की किताब बेहद शानदार है। किताब का शीर्षक दिल्ली के पेड़ो तक अपने को सीमित करने का आभास ज़रूर देता है, मगर इसके अन्दर भारत के मुख्य पेड़ो के बारे में जानकारी बेहद क़रीने से दी गई है।
मज़े की बात यह है कि प्रदीप क्रिशन कोई वनस्पति-विज्ञान के विशेषज्ञ न थे मगर उन्होने अपने से ही अध्ययन करके स्वयं को इतना शिक्षित कर लिया कि समाज को एक कमाल की किताब का योगदान कर सके। इस प्रयास में उन्हे सात-आठ साल लगे, घूम-घूम कर के पेड़-दर्शन किए और जम कर आनन्द लिया होगा इस में मुझे कोई शक़ नहीं है। एक पेड़ को पहचानना, प्रकृति के साथ आप के एक खूबसूरत रिश्ते की शुरुआत बन सकता है और गहरे निर्मल-आनन्द का स्रोत भी।
किताब में २५२ पेड़ों का विवरण दिया है मैंने अस्सी के आसपास पहचान लिए हैं, जिसे लेकर मैं खूब प्रसन्न हूँ। इस किताब को शुरु करने के पहले शायद में आठ-दस को पहचानता रहा होऊँगा। चिड़ियों को भी पहचान रहा हूँ पर उस गति से नहीं; चिड़िया पेड़ की तरह एक जगह स्थिर तो रहती नहीं ना।
किताब में २५२ पेड़ों का विवरण दिया है मैंने अस्सी के आसपास पहचान लिए हैं, जिसे लेकर मैं खूब प्रसन्न हूँ। इस किताब को शुरु करने के पहले शायद में आठ-दस को पहचानता रहा होऊँगा। चिड़ियों को भी पहचान रहा हूँ पर उस गति से नहीं; चिड़िया पेड़ की तरह एक जगह स्थिर तो रहती नहीं ना।
कमाल की बात ये है कि उसी पुराने दृश्य में अब नई दिलचस्प चीज़ें दिखने लगी हैं।
20 टिप्पणियां:
bahut sundar aur utprerak shauk laga hai aap ko...badhayi!!!parinam kendrit gatividhiyon ke is daur mein aise shauk baghawat hain.
किताब में २५२ पेड़ों का विवरण दिया है मैंने अस्सी के आसपास पहचान लिए हैं, जिसे लेकर मैं खूब प्रसन्न हूँ।
" great achievement, to holidays bekar nahee rhee na, kuch to knowledge bdaee aapne ha ha , any way just joking... welcome back"
regards
navabganj jaana thaa aapko...is samay to vahan jheel per bahut pakshii aatey hain duur duur se
आपका स्वागत है । आपने सैर की भारत के कुछ प्रमुख शहरों और जानकारी दी । अच्छा लगा ।
जे बात । मुंबई में पंछी निहार सोसाइटी है । मुंबई नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी से जुडिये । आइजेक किहिमकर वहां के मुखिया हैं । वहां एक नरेश चतुर्वेदी जी हैं । पंछियों और वनस्पितियों के विशेषज्ञ । कभी इन सबसे संपर्क रहा है हमारा । BNHS की वेबसाईट ये रही और संपर्क सूत्र ये रहा । और ये पेज देखेंगे तो पायेंगे कि हम कुछ दुर्लभ पंछियों को गोद भी ले सकते हैं । और इस पन्ने के आखिर में जाकर देखिए । कच्छ के रन में दिसंबर में बर्ड वाचिंग कैंप है । जल्दी पंजीकरण कराईये । फिर मत कहिएगा चिडि़या चुग गईं खेत ।
हम चुगी हुई खेत में खड़े होकर सुन रहे हैं..
वापसी पर स्वागत है। अब नियमित दिखाई दिया करेंगे?
80 tress pehchaan liya? ye to wakai me great achievement hai. Lekin Delhi me Alag Alag prakar ke 252 tress hain ye baat aaj hi pata chali.
Swagat hai wapasi per, phir se to chutti per nahi ja rahe hain.
अनुमान तो था ही कि आप जब भी लौटेंगे कुछ खास लेकर आएंगे :) चुगी हुई खेत में गुरुदेव प्रमोद जी खड़े हो गए हैं..इसलिए हम खेत की मेड़ पर खड़े होकर सुन रहे हैं :)
सभी मित्रों को धन्यवाद!
पारुल, मेरा घर तो नवाबगंज में ही है..
युनुस, आप ने सही राह दिखाई है.. ज़रूर अमल करूँगा!
दिनेश भाई, उम्मीद है अब नियमित लिखूँगा।
तरुण, छुट्टी के बारे में क्या रवैया है वो तो लिख ही दिया..:)
चिड़ी निहार शब्द सुनकर अच्छा लगा !
आपके भाई साहब के शौक शानदार हैं । उन्होंने दवा भले ही छोड़ दी हो , लेकिन रक्तचाप बीच बीच में जानने का क्रम न छोड़ें ।
सप्रेम, अफ़लातून
अच्छा लगा आपके ब्लॉग में आने पर आज!
बड़ा रोचक रहा. प्रकृति से जुडी बातें मन लुभाती ही हैं. आपका ये नया शौक और फले फूले, ऐसी कामना है.
aapka ye naya shagal bahut rochak hai. isi bahane ek naye vishay par baat karne ka mouka milega.
नया शग़ल मुबारक हो। सालिम अली साहब की किताब तो हमारे पास है और वृक्षों पर प्रदीप क्रिशन वाली तो नहीं मगर नेशनल बुकट्रस्ट वालों की एक पुस्तक है। उसे पढ़कर भी लगता है कि कितना कुछ है जो हमें नहीं बताया गया , जिसे अब तक हम नहीं जानते।
फिलहाल तो रुक कर इन्हें देखने की फुर्सत भी नहीं । जब मिलेगी तब शायद किताबों के पन्नों में ही इन्हें निरख पाएंगे !!!
ये तो अच्छी रही। कानपुर में हम मिले नहीं दो शगल पाल लिये। शानदार।
आपको पहली बार पढा !! एक नया और रोचक पोस्ट लगा अजदक का रीकमंडेशन था और पढकर मजा ही आया !!
belated happy Birthday !!
गर्मी की छुट्टियों में हर साल कुल्लू जाते... मौसी के घर कुल्लू सभी बच्चों में उनके बगीचों के पेड़ पौधों और उन पर बैठे पक्षियों की पहचान की होड़ लगती थी...वही शौक अब अपने बच्चों में देखकर तसल्ली होती है..
आज ये वेबसाइट दिखी—
Flowers of India
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