बुधवार, 30 जुलाई 2008

क्यों नहीं फट रहे बम?

आतंकवाद की गुत्थी सुलझने के बजाय उलझती ही जा रही है। सूरत शहर में अब तक २० बम बरामद हो चुके हैं। समझ में नहीं आ रहा है कि इसे सूरत की पुलिस की सफलता मान कर खुश हुआ जाय या ये सोचकर असफलता मान कर दुखी हो लिया जाय कि पेड़ पर और होर्डिंग पर आतंकवादी बम रखते रहे और किसी को पता तक नहीं चला। सब से रहस्यमय पहलू तो बमों के न फटने का है।

अब तो खुद सरकार की ओर ये विचार आ रहा है कि ये सारे बम पुलिस एजेन्सीज़ का ध्यान बँटाने के लिए लगाए गए थे। दिमाग की सोच को अवरुद्ध कर देने वाली बात ये है कि आतंकवादियों ने ध्यान हटाने के लिए कारगर बम क्यों नहीं लगाए? बम के धमाके होते, और लोग मरते, और आतंक फैलता.. तो क्या आतंकवादियों का मक़्सद और बेहतर तरीक़े से पूरा नहीं होता?

अब या तो आतंकवादी की यह बेहद घटिया असफलता है जिसके लिए उनके आक़ा उनकी बुरी तरह से खबर ले रहे होंगे.. “मरदूदों! बेंगलूरू और अहमदाबाद में सिर्फ़ एक-एक बम ही समय से नहीं फटा.. तो फिर सूरत में क्या अफ़ीम की पिनक में बम फ़िट किए थे.. जो एक भी नहीं फटा?” ये बात ज़रा हजम नहीं होती.. अरे कम से कम एक तो फटता! एक भी नहीं फटा..! हद है!!

(वैसे एक विचार दिमाग़ में ये भी है कि कहीं ये बम सरकार ने ही तो नहीं..? अपनी मुस्तैदी दिखाने के लिए और ध्यान बँटाने के लिए। आखिरकार एक असफलता से ध्यान बँटाने का सबसे अच्छा तरीक़ा, एक सफलता ही होता है। )

या फिर ये आतंकवादियों की जानी-बूझी नीति के तहत किया है। ये सोच कर.. “कि लो बेटा.. देखो.. अगर हम चाहें तो किसी भी शहर में (मोदी के गुजरात में भी) एक शहर में बीस-बीस बम फ़िट कर दें और सैकड़ो को हलाक कर दें। लेकिन अभी नहीं करते अभी सिर्फ़ नमूना दिखा रहे हैं.. अभी भी वक़्त है सम्हल जाओ!” अगर ये बात है तो ज़रा सोचिये हम कितनी बड़ी मुसीबत में है.. पूरी तरह से आतंकवादियों के रहमोकरम पर।

समाज के एक विशेष वर्ग की नज़र से देखा जाय जो हर मुसलमान को देशद्रोही और आतंकवादी नहीं तो कम से कम उनका मददगार तो समझता ही है, तो ये सूरते हाल भयानक है। क्योंकि उनके हिसाब आतंकवादियों का बेहद विकसित और विराट नेटवर्क है, और यदि सचमुच है तो हमें हर रोज़ एक बड़ी घटना के लिए तैयार रहना चाहिये। क्योंकि जिस हिसाब से सूरत में बम मिले हैं उस हिसाब से देश के चप्पे-चप्पे में फैले आतंकवादी हर छोटे-बड़े क़स्बे में रोज़ाना धमाके कर सकते हैं।

अगर ये धमाके नहीं हो रहे तो इसके दो वजहें हो सकती हैं। पहली तो ये कि हमारी पुलिस बहुत ही मुस्तैद और चुस्त है। सारे सम्भावित आतंकवादियों को सलाखों के भीतर किया हुआ है और उनकी आगामी गतिविधि को पहले से भाँप लेने का तंत्र तैयार किया हुआ है। ये निहायत हवाई बात है। अगर ऐसा होता तो क्या सूरत के ये सूरते हाल हो सकते थे?

और वो अपराधियों को पकड़ने में कितनी बुद्धि से काम लेती है इसका अंदाज़ा आप इस बात से लगाइये कि अहमदाबाद के विस्फोट के सिलसिले में पुलिस ने हलीम नाम के जिस शख्स को पकड़ा है उस पर आरोप है कि २००२ के दंगे में अनाथ हो गए बच्चों को रिलीफ़ कैम्प के बहाने ब्रेनवाश करके जेहादी बनाने का। बताया गया है कि ये हलीम तब से फ़रार था। और ये हलीम यदि सचमुच आतंकवादियों से मिला है तो इतने दिन फ़रार रहने के बाद ठीक धमाके वाले दिन शहर में लौट आया कि लो भाई पकड़ लो मुझे? हद है! और अठारह बम अहमदाबाद में फोड़ने में सफल होने वाले आतंकवादी कितने भी मूर्ख हों पर इतने तो नहीं होंगे कि सीधे उन्ही लोगों से सम्पर्क बनायें जिन को पुलिस पहले से तड़े हुए है। तो इतना तो तय है इन सम्भावित धमाकों के न होने की वजह पुलिस की होशियारी नहीं है।

तो फिर आतंकवादी क्यों रोज़ाना हर छोटे-बड़े क़स्बे में धमाके क्यों नहीं कर रहे? क्योंकि अधिकतर पर्यवेक्षकों की बात मानी जाय तो इनका नेटवर्क बहुत्त विकसित और विराट है? तो क्या ये हम पर रहम खा कर ऐसा नहीं कर रहे? जो आतंकवादी अस्पतालों में बम विस्फोट कर चुके हैं उनके भीतर किसी भी मानवता की कल्पना बेमानी है।

तो फिर सच बात ये है कि देश का आम मुसलमान भले ही जींस के बदले अभी भी पैजामा पहनता हो, टीवी से क़तराता हो, मुख्यधारा से कटा-कटा रहता हो, और अपनी एक अलग पहचान में क़ैद रहना चाहता हो.. उस सब के बावजूद वो मासूम है। और उस पर निराधार आक्षेप लगाने वाले लोग उसे मुख्यधारा में आने में मदद करने के बजाय उसे वापस अपनी असुरक्षा के घेरे में धकेल रहे हैं।

रही बात बम फोड़ने वालों के वे आतंकवादी निश्चित ही गिने-चुने मुट्ठी भर विदेशी घुसपैठिये हैं या रोगी मानसिकता के गिने-चुने शुद्ध अपराधी हैं.. जिनका मजहब क्या है उस से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। याद रहे इस देश की दो सबसे बड़ी आतंकवादी दुर्घटनाएं जिसमें देश के दो प्रधानमंत्री शहीद हुए, किसी मुसलमान आतंकवादी ने अंजाम नहीं दी थी।

लेकिन अफ़सोस की बात ये है कि हमारी पुलिस और हमारा भ्रष्ट तंत्र इन अपराधियों को पकड़ने में बुरी तरह असमर्थ है । और वो अपनी असमर्थता पर पर्दा डालने की कोशिश मासूम मुसलमानों को पकड कर करती है। जिन्हे मेरी इस बात पर अतिरंजना नज़र आ रही हो वो ज़रा आरुषि केस को याद कर लें। और ये भी याद रखें कि जिन नौकरों को अभी अपराधी की तरह प्रदर्शित किया जा रहा है उनके खिलाफ़ भी अभी भी कोई पुख्ता सबूत नहीं है।

सोमवार, 28 जुलाई 2008

आतंकवाद: कुछ विचार

१) एशिया में इस्लामी तालीम का सबसे बड़ा केन्द्र दारुल उलूम देवबन्द दहशतगर्दी को इन्सानियत के खिलाफ़ ‘क़ाबिले नफ़रत जुर्म’ क़रार दे चुका है और कह चुका है कि इस्लाम इंसाफ़ की जंग में भी बेगुनाहों, इबादतगाहों और तालीमी मरकज़ को निशाना बनाने से मना करता है। पिछले साल दिए गए इस फ़त्वे के मुताबिक़ चन्द अत्याचारी लोग मुसलमानों और इस्लाम को बदनाम कर रहे है।

इस्लाम के इतिहास में और शेष दुनिया के इतिहास में हिंसा की क्या भूमिका रही है.. यह सब एक स्वतंत्र चिंता और अध्ययन का मसला है। अभी इतना समझा जाय कि इस्लामी दीन के आलिमो फ़ाज़िल आतंकवाद को ग़ैर-मज़हबी घोषित करके ऐसे सभी लोगों को अपने समाज की मुख्यधारा से काट कर फेंक चुके हैं जो अपने दिमाग़ की हिंसक बीमारियों की अभिव्यक्ति इस्लाम के नाम पर कर रहे हैं।

और इसलिए हर आतंकवादी हमले के होते ही इस्लाम-विरोध की माला जपने वाले अपने उन तमाम भाई-बहनों से मेरा विनम्र निवेदन है कि कृपया बाज़ आयें। क्योंकि न तो आप इस्लाम को जानते हैं न स्वयं अपने धर्म को। आप मात्र अपने पूर्वग्रहों को जानते हैं। उन के अँधेरे में खड़े होकर बौखलाये नहीं..एक दुर्घटना हुई है। कुछ घर हमेशा के लिए तबाह हो गए हैं। मनुष्य के अमूल्य जीवन के साथ खिलवाड़ हुआ है। ये एक दूसरे पर उंगलियाँ उठाने का अवसर नहीं है। कोशिश करें कि संयत रहें और अपने बने-बनाए नज़रिये से ऊपर उठकर एक इंसान की तरह सोचें।

२) समीर भाई ने लिखा है कि वे एक टिप्पणी का १२१ बार प्रयोग कर चुके हैं- 'दुर्भाग्यपूर्ण, अफसोसजनक एवं निन्दनीय!!!' उनकी इस बात में बड़ी विडम्बना है। क्योंकि देश के तमाम नेता, चाहे कांग्रेस के हो या भाजपा के या अन्य किसी भी दल के.. इसी टिप्पणी का इस्तेमाल कर रहे हैं। और न जाने कब से कर रहे हैं। और आगे भी करते रहेंगे। क्योंकि इसके अलावा उनके पास करने को कुछ नहीं है। क्यों? क्योंकि शांति बनाए रखने के लिए सभी का सहयोग चाहिये होता है और शांति भंग करने के लिए एक सिरफिरा ही काफ़ी है।

३) ऐसा मालूम होता है कि भाई शिवकुमार बुद्धिजीवियों से (मुझ से?) खफ़ा हैं।आखिर वो चाहते क्या हैं ? क्या किया जाय..? गाली दी जाय कि सारे मुसलमान आतंकवादी होते हैं..? “सब को मार दो.. तभी आतंकवाद खत्म होगा!”.. ऐसा बोल जाय? यदि सब लोग मिल कर समवेत स्वर में ऐसा बोलें तो क्या इस से आतंकवाद की समस्या सुलझ जाएगी? या इस विचार के कार्यान्वन से सुलझ जाएगी? मोदी जी ने इसी फ़ॉर्मूले के तहत गुजरात की मुस्लिम आबादी का दमन किया था। क्या हुआ?

साथ में ये भी कहा जा रहा है कि भारत चूँकि सॉफ़्ट स्टेट है इसलिए उसे आतंकवाद का दंश झेलना पड़ रहा है। ऐसा सोचने वाले महानुभावों का मत होता है कि आतंकवाद से निबटने के लिए अमरीका और इस्रायल की नीति का अनुसरण करना चाहिये। क्या ऐसे लोग जानते नहीं कि इस्रायल की तथाकथित ‘आतंकवाद’ की नीति बुरी तरह से असफल है?

पहले तो ये कि एक स्वतंत्र देश फिलीस्तीन में क़ब्ज़ा करने वाले विदेशी इस्रायलियों के विरुद्ध संघर्ष करने वालों को आप आतंकवादी कैसे कह सकते हैं? सच तो ये है कि इस्रायल अपने चरित्र में एक मध्ययुगीन आततायी देश है। जो निरन्तर युद्धरत रह कर फिलीस्तीनियों को कुचलने में अपनी पूरी ऊर्जा से संलग्न है मगर फिर भी असफल है। और उसके संदर्भ में एक शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की बात वैसे ही है जैसे एक महामूढ़ से न्यूक्लीयर एनर्जी से सम्बन्धित वार्तालाप करना।

रही बात अमरीका की आतंकवाद के मोर्चे पर सफलता की.. तो अगर आप अमरीका के भीतर आतंकवादी हमलो में मारे लोगों की संख्या देखेंगे तो धोखा खा जायेंगे। इस सफलता को सही-सही समझने के लिए इराक़ और अफग़ानिस्तान में मरे हुए अमरीकियों की गिनती कीजिये। करी?

४) आतंकवाद की आप को अस्सी परिभाषा मिल जायेंगी। जो चाहता है अपनी तरह से व्याख्या कर लेता है। पर जो भी हो रहेगी तो शुद्ध हिंसा ही। आज अमरीका और योरोप जिस ‘सभ्यता’ की दुहाई देते नहीं थकते उसकी बुनियाद में घनघोर हिंसा दबी पड़ी है। खुद अमरीका को महाशक्तिमान की पदवी हिरोशिमा और नागासाकी के बमकाण्ड के बाद ही मिली। क्या उसे आतंकवाद माना जाएगा ? या बलशाली की हिंसा आतंक नहीं कहलाती?

५) आतंकवाद अपेक्षाकृत नया शब्द है मगर राज्यसत्ता के प्रति प्रतिरोध पुराना है। और इस संघर्ष में आम जनता अछूती नहीं बनी रहती थी। बालाजी राव पेशवा के समय जब मराठे बंगाल, बिहार और उड़ीसा से चौथ वसूली की प्रक्रिया में उतरते तो जिधर से गुज़रते अपने पीछे जलते हुए गाँवों की एक लड़ी बनाते हुए चलते। उनका संघर्ष अलीवर्दी खान से था और गाँव वाले बेक़सूर थे मगर फिर भी वे मरते और तबाह होते। क्योंकि ये मराठों के युद्ध का एक पैंतरा था।

६)मनुष्य अभी भी एक हिंसक प्राणी है और एक ऐसे समाज में रहता है जिस की बाग़डोर राज्यसत्ता के खून-सने हाथों में है। राज्य चाहता है कि हिंसा का आचरण सिर्फ़ उसके संस्थाओ तक सीमित रहे मगर हमेशा ऐसा होता नहीं। कभी सत्तर के दशक में बंगाल के नौजवान नक्सलबाड़ी का नाम लेकर विद्रोही हो जाते हैं। कभी अस्सी के दशक में पंजाब के सिख खालिस्तान के सपने से मतवाले हो जाते हैं और फिर कभी दुनिया भर में मुस्लिम नौजवानों में जेहाद का जुनून सवार हो जाता है। मगर सत्ता कोई भी हो बाग़ियों के साथ एक जैसे पेश आती है.. दमन।

७)ये सच है कि ये ‘इस्लामिक’ आतंकवादियों का ये जुनून बीस सालों से जारी है। और ये कब तक जारी रहेगा ये न आप जानते हैं न हम। भारत में होने वाले आतंकवाद के तार पाकिस्तान, अफ़्ग़ानिस्तान से लेकर इंगलैण्ड और अमरीका तक फैले हुए हैं। यह एक अंतराष्ट्रीय परिघटना है और इस आग में अमरीका और इस्रायल निरन्तर घी (पेट्रोल) डाल रहे हैं।

८) आखिर में एक क्रूर सवाल। इस दुखद घटना में मरने वालों की संख्या कितनी है? पचास निर्दोष लोग मारे गए और सैकड़ों घायल हैं। आप जानते हैं सिगरेट और गुटका रोज़ाना कितने लोगों की जान ले रहा है? बाज़ार में जेनेटिकली मॉडिफ़ाइड बीजो के आने के बाद से कितने किसानों ने आत्महत्या की इसका आँकड़ा तो आप के पास ज़रूर होगा। आप को क्या लगता है गर्भ में मार दी जाने वाली लड़कियों की संख्या ज़्यादा है या बम फटने से मरने वालों की?

९)मेरा आशय आतंकवाद का बचाव नहीं है लेकिन आप का ध्यान उस साज़िश की तरफ़ खींचना है जिसके तहत तमाम ज़्यादा ज़रूरी मुद्दों से आप की चिंता को हटा कर इस कम ज़रूरी मुद्दे की तरफ़ केन्द्रित कर देना चाहते हैं। क्यों? क्योंकि यह मुद्दा हमें बाँटता है और हमारे बँटने से हमारे भीतर एक शत्रुभाव पैदा होता है जिसका लाभ उठाकर ये मतलबपरस्त राजनैतिक दल हमें अपने पीछे आसानी से गोलबन्द कर लेते हैं और अपना मतलब साधते हैं। वे सभी लोग जो राजठाकरे की विभाजक राजनीति की असलियत पहचानते हैं और खूब समझ लेते हैं मराठे-भैया के द्वन्द्व में कितना सत्व है। अफ़सोस की बात है कि वो लोग भी हिन्दू-मुस्लिम मामले में गच्चा खा जाते हैं।

मंगलवार, 22 जुलाई 2008

हिन्दू और हिंसा

संत श्री आसाराम बापू की ग्रह-दशा ठीक नहीं चल रही है। कल के दिन जबकि पूरा देश संसद के मैच में फंसा हुआ था, ग़ुस्साए लोगों की भीड़ ने उनके अहमदाबाद आश्रम में घुसकर तोड़-फोड़ कर डाली। उसके कुछ रो़ज़ पहले उनके चेलों ने मीडिया के लोगों पर एक अप्रत्याशित हमला कर के पूरे देश को चौंका डाला। कहा ये भी जा रहा है कि उस हमले का आदेश स्वयं संत श्री आसाराम जी ने दिया था। हैरत की बात है कि कोई हिंदू संत ऐसा हिंसात्मक क़दम उठाने के बारे में सोच भी कैसे सका? वो भी गाँधी के गुजरात से?

पर मित्रों इसमें कोई हैरत की बात नहीं। मगर अफ़सोस की बात ये है कि हम पहले तो पढ़ते नहीं, पढ़ते हैं तो और बहुत कुछ पढ़ते है पर इतिहास नहीं पढ़ते और यदि इतिहास भी पढ़ते हैं तो ऐसा इतिहास पढ़ते हैं जो तथ्यों और साक्ष्यों पर नहीं बल्कि क्लेशों, कुण्ठाओं और कोरी कल्पनाओं पर आधारित है।

हमारे भारत देश में साधु और शस्त्र का बड़ा लम्बा नाता रहा है। वैदिक काल में ऋचाएं रचने वाले ऋषिगण सरस्वती के किनारे लेटकर गाय चराते हुए सिर्फ़ ऊषा और पूषा की ही वन्दना नहीं करते थे। बड़ी मात्रा में वैदिक सूक्त इन्द्र के हिंसा-स्तवन में रचे गए हैं। बाद के दौर में हमारे ब्राह्मण-पूर्वज हाथ में परशु लेकर बलिवेदी पर पशुओं का रक्तपात करते रहे हैं। परशु की चर्चा आते ही परशुराम को कौन भूल सकता है जो इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रिय-शून्य कर गए थे।

तर्क ये दिया जाता है कि साधु अक्सर ब्राह्मण होता है और ब्राह्मण चूंकि पठन-पाठन का काम करता है इसलिए उसका सम्बन्ध शस्त्र से नहीं शास्त्र से रहता है। और अपनी रक्षा का भार भी उसने क्षत्रिय पर छोड़ रखा है। पर ये बात भी एक खोखले सूक्त से ज़्यादा कुछ नहीं है। बौद्ध धर्म के उत्थान के बाद पुष्यमित्र शुंग के काल में पूरे भारत वर्ष में ब्राह्मण धर्म की हिंसात्मक पुनर्स्थापना हुई। पुष्यमित्र स्वयं ब्राह्मण था, और उसके अलावा पूर्व में खारवेल और दक्षिण में सातवाहन भी ब्राह्मण थे जो तलवार हाथ में लेकर ही सत्ता पर क़ाबिज़ हुए थे।(१) तो पहली बात तो ये कि ब्राह्मण अक्सर साधु नहीं होता और साधु अक्सर ब्राह्मण नहीं होता।

प्राचीन काल से ही पहले हमारे यहाँ वैष्णव और शैव एक दूसरे के खिलाफ़ बराबर पाला बाँधते आए हैं। शंकराचार्य ने, न सिर्फ़ वैदिक धर्म और बौद्ध धर्म को एकसार करने की कोशिश की बल्कि वैष्णव, शैव और शाक्त धर्म को भी एक करने के लिए किसी देवी-देवता को न छोड़ा.. सब की स्तुति कर डाली। एक तरफ़ उन्होने अद्वैत वेदान्त जैसा दर्शन प्रतिपादित किया और दूसरी तरफ़ सौन्दर्यलहरी जैसा शुद्ध तंत्र का ग्रंथ भी रचा।

लेकिन उन की इन तमाम कोशिशों के बावजूद शैव और वैष्णव का भेद समाज में व्यापक तौर पर व्याप्त रहा। और इसीलिए तुलसीदास को भी वाल्मीकि रामायण से अलग जाकर अपने रामचरितमानस में राम और शिव का एक पारस्परिक श्रद्धा का सम्बन्ध बनाना पड़ा। शिव जहाँ राम के भक्त है वहीं राम लंका पर आक्रमण करने के पहले सागरतट पर शिवलिंग बनाकर उसकी अर्चना करते हैं।

ये सब इशारे हैं समाज में व्याप्त उस वैष्णव-शैव संघर्ष की तरफ़ जो बहुधा शांतिपूर्ण नहीं हो्ते थे। कमलहासन की अभी हाल की फ़िल्म दशावतारम में ऐसे ही एक वैष्णव-शैव संघर्ष का उल्लेख है। मध्यकाल में भारत में आने वाले अनेक योरोपीय यायावरों ने इन साधुओं के प्रति अपने अचरज को कलमबद्ध किया है।

मिसाल के तौर पर इटैलियन घुमन्तु लुदोविको दि वरथेमा ने १५०३ और १५०८ के बीच कभी अपनी भारत यात्रा के दौरान सूरत के एक इयोघी/ जिओघी (योगी/जोगी) का उल्लेख किया है जो गुजरात के सुल्तान महमूद के साथ निरन्तर युद्ध में लिप्त था। ये जियोघी हर कुछ साल पर पूरे भारत के दौरे पर निकलता, अपने तीन-चार हज़ार की चेलों की पलटन और ‘बीबी-बच्चों’ समेत। (२)

इस साधु की युद्धनीति में कोई मित्र हिन्दू-मुस्लिम कोण से नज़र न डाले तो बेहतर होगा क्योंकि इन्ही वरथेमा साहब को मलाबार में एक अन्य योगी-राजा के दर्शन हुए। कालीकट में दो इटैलियन सौदागर का स्थानीय मुस्लिम सौदागरों से कोई आर्थिक विवाद हो गया था। जिसके नतीजे में कालीकट के काज़ी ने बजाय खुद कोई सैनिक कार्रवाई करने के एक योगी-राजा से सम्पर्क किया जो कालीकट में अपने तीन हज़ार चेलों के साथ डेरा डाले हुए थे। शीघ्र ही दो सौ योगियों की एक सेना ने एक संक्षिप्त युद्ध के बाद इन इटैलियन सौदागरों का प्राणान्त कर दिया। (३)

वरथेमा ने जो वर्णन किया है उस से लगता है कि ये योगी शैव थे। मगर वैष्णव नितान्त अहिंसक थे ऐसा समझ लेना फिर एक भूल होगी। जयपुर के बालानन्द मठ के पास १६९२-९३ में जारी औरंगज़ेब का एक फ़रमान है जिसके तहत इन वैष्णव रामानन्दियों को अपने पैदल और घुड़सवार सेना और आगे चलने वाले नगाड़ों समेत पूरी सल्तनत में कहीं भी आने-जाने की इजाज़त दी गई है। (४) इस एक फ़रमान से हमें कितनी सारी सूचनाएं मिलती हैं और हमारे कितने भ्रमों पर से धुँआ छँट जाता है.. ज़रा सोचिये।

अबुल फ़ज़्ल के अकबरनामा में १५६७ में थानेसर में हुए एक छोटे से युद्ध का उल्लेख है जो दो शैव सम्प्रदायों के बीच में आपस में लड़ा गया.. मुद्दा सिर्फ़ ये था कि एक खास घाट पर कौन नहायेगा?(५) इस झगड़े का ज़िक्र उस वक़्त के तमाम दूसरे ऐतिहासिक ग्रंथों में भी मिलता है। उस युद्ध के बाद से नागा सन्यासी बराबर मुग़ल सेना के लिए काम करते रहे।

अठारहवीं सदी का पूरा इतिहास हिम्मत बहादुर नाम के सेनानी के कारनामों से रंगा हुआ है। ये व्यक्ति जिसका असली नाम अनूपगिरि गोसाईं था.. १७५१ से १८०४ तक लड़ी गई लगभग सभी मुख्य लड़ाईयों में अनूपगिरि मौजूद था। यहाँ तक कि १७६१ के पानीपत के तीसरे युद्ध में जहाँ अहमद शाह अब्दाली ने भाऊ की सेना को रौंद डाला.. वहाँ पर भी अनूपगिरि के पाँच हज़ार लड़ाके अबदाली की तरफ़ से मराठों से लड़े(६) बावजूद इसके कि चार बरस पहले १७५७ में अब्दाली ने मथुरा में क़त्लेआम के साथ-साथ जम के बुतशिकनी की थी। और तब गोसाईंयों और अफ़्गानो के बीच युद्ध में दोनों तरफ़ से दो-दो हज़ार लाशें गिरी थीं। (७)

और सन्यासी विद्रोह को भी याद कर लिया जाय। उसी विद्रोह पर आधारित कर के ही तो बंकिम बाबू ने अपनी अमर कृति आनन्दमठ की रचना की। वही आनन्दमठ जिसके गीत वन्दे मातरम को लेकर आज भी मुसलमानों पर हमला जारी है। बंकिम बाबू के सन्यासी विद्रोह और १७७३ के बाद से तीस साल तक चले असली 'सन्यासी और फ़कीर विद्रोह' के बीच बड़े अंतर थे मगर इस पर कभी अलग से चर्चा करूँगा।

अभी तो बस इतना ही कि गाँधी की अहिंसा किसी भी कोण से 'हिन्दू' नहीं है वो जैन है.. 'हिन्दू' साधु का अहिंसा से दूर-दूर तक रिश्ता नहीं रहा, कभी नहीं। क्या आप किसी ऐसे 'हिन्दू' देवता को पहचानते हैं जो अस्त्र/शस्त्र धारण नहीं करते? सरस्वती जैसी एकाध देवी आप को मिल भी जायँ तो भी वे अपवाद ही रहेंगी।

(१) भगवत शरण उपाध्याय, खून के छींटे इतिहास के पन्ने पर, पृष्ठ ३७
(२) विलियम आर. पिंच, वॉरियर एसेटिक एंड इंडियन एम्पायर्स, पृष्ठ ६२
(३) विलियम आर. पिंच, वॉरियर एसेटिक एंड इंडियन एम्पायर्स, पृष्ठ ६३
(४) विलियम आर. पिंच, वॉरियर एसेटिक एंड इंडियन एम्पायर्स, पृष्ठ ७२
(५) विलियम आर. पिंच, वॉरियर एसेटिक एंड इंडियन एम्पायर्स, पृष्ठ २८-२९
(६) जदु नाथ सरकार, दि फ़ाल ऑफ़ मुग़ल एम्पायर वाल्यूम २, पृष्ठ ७१
(७) विलियम आर. पिंच, वॉरियर एसेटिक एंड इंडियन एम्पायर्स, पृष्ठ ११२

रविवार, 20 जुलाई 2008

न्यूकिलाई सौदे का राष्ट्रीय हित

सोनिया गाँधी, मनमोहन सिंह, राहुल बाबा, कांग्रेस पार्टी के तमाम दूसरे लग्घू-बग्घू आजकल अपने उच्चतम स्वर पर राष्ट्रीय-हित का गान गा-गा कर देश के सामने यह सिद्ध करने को उद्धत हैं कि इस न्यूकिलाई सौदे से बेहतर सौदा तो मुमकिन हो ही नहीं सकता।

इस कोरस-गान में पूर्व राष्ट्रपति डॉ० कलाम, न्यूकिलाई वैज्ञानिक डॉ० काकोदकर, पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्रा भी अपने-अपने स्वरों का योगदान कर चुके हैं। तमाम टीवी चैनल्स भी अपने-अपने ‘राष्ट्रीय’ हितों को ध्यान में रख कर कांग्रेस की राष्ट्रभक्ति और लेफ़्ट के राष्ट्रद्रोह को साबित करने में कोई क़सर नहीं छोड़ रहे जिनमें सबसे आगे हैं ‘सीएनएन’ आईबीएन के राजदीप सरदेसाई।

जोड़तोड़ हो रही है, तोड़फोड़ हो रही है, होड़महोड़ भी हो रही है, सारी बातें हो रही हैं मगर कहीं भी लेफ़्ट इस सौदे की मुखालफ़त क्यों कर रहा है इसकी चर्चा नहीं हो रही। आखिर क्या है ऐसा इस सौदे में जो देश के हित में नहीं है..? भाजपा भी चुप्पी साध कर इस मौके का पूरा-पूरा फ़ायदा उठाने में लगी है। असलियत तो ये है कि सौदे के बारे में उसके विचार कांग्रेस से कोई अलग नहीं है। और हम तमाशबीन की तरह इस लम्बे नाटक के सीधे प्रसारण का वैसे ही आनन्द ले रहे हैं जैसे ये एक और इंडिया-ऑस्ट्रेलिया क्रिकेट मैच हो।

इस सब के बीच कल मेरी नज़र उर्दू अख़बार ‘इंक़िलाब’ के अंग्रेज़ी सेक्शन ‘क़ौम’ में शाया एक लेख पर पढ़ी जिसमें न्यूकिलाई सौदे के तमाम ऐसे बिन्दुओं को उजागर किया गया है जिनकी कोई चर्चा नहीं करता।

सबसे पहले समझिये हाइड एक्ट में क्या है..

१. हाइड एक्ट के मुताबिक हमारे परमाणु परीक्षण की सूरत में हमें न्यूकिलाई आपूर्ति बंद कर दी जाएगी।

२. हमें न्यूकिलाई ईधन की सिर्फ़ उतनी ही आपूर्ति की जाएगी जो हमें किसी भी तरह का रिज़र्व बनाने से बाधित रखे। ताकि आपूर्ति बंद होने की सूरत में हम कोई स्वतंत्र क़दम न उठा सकें।

३. हाइड एक्ट हम से एक ऐसी तारीख़ उगलवाना चाहता है जिसके बाद हम कभी परमाणु-परीक्षण न करने का वादा करें। यह भारत के आणविक हथियार कार्यक्रम को दफ़न करने के बराबर होगा। मैं स्वयं इस पक्ष में हूँ पर उस सूरत में नहीं जबकि अमरीका और चीन को सारे हथियार चमकाने और बाक़ी दुनिया को धमकाने की खुली छूट मिली हुई हो।

४. ये एक्ट भारत से अपेक्षा करता है कि तमाम न्यूकिलाई संधियों पर जो अमरीका की नीति है भारत उसका समर्थन करे जैसे फ़िसाइल मटीरियल कट-ऑफ़ ट्रीट्री; और विदेश नीति के मामले में अमरीकी नीति से चिपक कर चले। भारत ईरान पर प्रतिबंध लगाने के मामले में मामले में एक बार आई ए ई ए में पिछली बार अमरीका के साथ और ईरान के खिलाफ़ वोट दे चुका है जबकि ऐसा करने से भारत-ईरान गैस पाइप लाइन बुरी तरह खतरे में पड़ सकती है।

अब देखिये १२३ समझौता क्या कहता है..

१. पहले तय हुआ था कि अमरीका भारत को न्यूकिलाई ईधन बनाने की प्रकिया के विषय में पूरी मदद करेगा मगर असली समझौते में से बेहद महत्वपूर्ण हिस्से ग़ायब हैं; यूरेनियम के एनरिचमेंट और हैवी वाटर के उत्पादन की प्रक्रिया में अमरीका तकनीकि सहयोग का ना कोई उल्लेख है न कोई वादा।

२. जबकि जापान और दक्षिण कोरिया के साथ अमरीका ने जो १२३ समझौता किया है उसके अन्तर्गत इन सभी बिन्दुओं पर तक्नीकि सहयोग शामिल है। इस लेख को पढ़ने के पहले मुझे पता था कि भारत एक अकेला ऐसा देश है जिसके साथ अमरीका ऐसा समझौता कर रहा है.. मगर ये सच नहीं है बल्कि इस सौदे को हमारे गले के नीचे धकेलने के लिए किया जा रहा एक प्रचार है।

३. हालांकि हमें रिप्रोसेसिंग प्लान्ट लगाने की इजाज़त दी जा रही है जिसकी अकेले की लागत लगभग दस हज़ार करोड़ रुपये होगी। मगर ऐसे किसी भी प्लान्ट को बनाने के पहले हमें इस प्लान्ट के सारे ब्लूप्रिन्ट्स यानी ड्राइंग, डेटा, समीकरण सभी कुछ आई ए ई ए के पास भेजना होगा एप्रूवल के लिए। आपके वैज्ञानिकों की बरसों की मेहनत से उपजे बेहद गोपनीय शोधकार्यों को इस तरह से राजनैतिक मंच पर रख के देने केलिए राजी हो जाना किस प्रकार की विदेश नीति की विजय ये मेरी समझ से परे है.. क्योंकि ये भी प्रचार का हिस्सा है कि ये सौदा हमारी विदेशनीति की सबसे बड़ी विजय है।

४. १२३ समझौता हमें बाध्य करता है कि हम अपने इस राष्टीय प्लान्ट को चलाने के नियम और तरीक़ों का पालन करेंगे। यू एस एटॉमिक इनर्जी एक्ट के सेक्शन १३१ के अन्तर्गत एक और समझौता करेंगे जो अमरीकी कांग्रेस द्वारा एप्रूव किया जाएगा। लेकिन इस एक और समझौते का ज़िक्र १२३ समझौते में कहीं नहीं है।

५. और सबसे खास बात ये है कि इस १२३ समझौते में कोई आर्बिटरेशन क्लॉज़ नहीं है। इस क्लॉज़ का महत्व आप इस बात से समझिए कि जापान ने इस क्लॉज़ के लिए अमरीका के साथ खींचतान करते हुए दो साल ज़ाया किए। छोटे-मोटे मामूली समझौतों में भी विवाद होने की सूरत में एक आर्बिटरेशन क्लॉज़ होता है मगर इतना बड़ा इतना ऐतिहासिक समझौता इस विषय पर खामोश है। तो क्या इस मौन को जंगल के उस पुराने क़ानून के प्रति स्वीकृति समझा जाय कि जिसके तहत बलवान, कमज़ोर को दबाता आया है।


यहाँ दी गई जानकारी उर्दू अख़बार 'इंक़िलाब' के अंग्रेज़ी सेक्शन 'क़ौम' में शाया एक लेख, ‘जज द न्यूकिलयर डील ऑन फ़ैक्ट्स, नॉट कनविक्शन्स’ पर आधारित है। इस लेख के लेखक अशोक पार्थसारथी, इंदिरा गाँधी के वैज्ञानिक सलाहकार रह चुके हैं।

बुधवार, 16 जुलाई 2008

सोमनाथ की शुचिता

मुझे याद आता है कि कुछ महीनों पहले देश में राष्ट्रपति का चुनाव हुआ था और तब माकपा ने कांग्रेस की प्रत्याशी श्रीमती प्रतिभा पाटिल को अपना समर्थन दिया था। उनके विरुद्ध स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में उपराष्ट्रपति और भाजपा के पूर्व नेता श्री भैंरो सिंह शेखावत थे। भाजपा और उनके सभी सहयोगी दलों ने शेखावत जी को जिताने की कोशिश की थी। मगर शिवसेना ने मराठी होने के नाते प्रतिभा पाटिल का समर्थन किया था।

उस वक़्त किसी माकपाई ने ये नहीं कहा था कि चूँकि शिव सेना प्रतिभा जी का समर्थन कर रही है इसलिए हम उन्हे मत नहीं देंगे। बंगाल से भी ये आवाज़ नहीं उठी थी। सोमनाथ जी ने स्पीकर के बतौर तब क्या किया था ये तो मैं नहीं जानता लेकिन अभी वो, और माकपा के भीतर अन्य कुछ लोग कह रहे हैं कि साम्राज्यवाद और साम्प्रदायिकता के बीच साम्प्रदायिकता अधिक बड़ा खतरा है। और इसीलिए सोमनाथ बाबू लोकसभा के अध्यक्ष के पद से इस्तीफ़ा इसलिए नहीं दे रहे क्योंकि वे भाजपा के साथ वोट नहीं देना चाहते?

उनका भाजपा-विरोध समझ में आता है.. भाजपा इस देश में हुए बहुत सारे दंगो और साम्प्रदायिक भय के माहौल के लिए ज़िम्मेदार है। पर उनका कांग्रेस-प्रेम नहीं समझ आता.. कांग्रेस भी तो अनेको दंगो को प्रायोजित करने की और देश में साम्प्रदायिक ज़हर घोलने की भूमिका आज़ादी के बाद से लगातार निभाती आ रही है।

और फिर पश्चिम बंगाल में माकपाई और ग़ैर-माकपाई के बीच जो हाय-हत्या होती है वो किस मापदण्ड से साम्प्रदायिकता से कम है? यदि उनकी समझ से साम्प्रदायिकता का अर्थ सिर्फ़ हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य होता हो तो बात अलग है।

मैं यह नहीं कहता कि भाजपा बुरी नहीं है.. पर उसे इस तरह से अस्पृश्य बनाकर व परोक्ष रूप से बाक़ी सभी को पाक होने का प्रमाणपत्र दे देना सही नहीं हैं। ये शुचिता के वैसे ही मानदण्ड है जिन के अनुसार एक ब्राह्मण प्रतिदिन गुदा-प्रक्षालन कर के भी अशुद्ध नहीं होता था मगर एक दूसरा व्यक्ति सिर्फ़ एक जाति विशेष में जन्म लेकर जीवन भर के लिए अस्पृश्य बन जाता था।

निश्चित ही ऐसा करने के पीछे सोमनाथ बाबू अपने इस ब्राह्मणवादी पूर्वाग्रह के प्रति सचेत तो नहीं होंगे। उनके इस आग्रह के मूल में जो भी हो उनकी बात मुझे हजम नहीं हुई.. आप को हुई क्या?

मंगलवार, 8 जुलाई 2008

एकता की महाभारत

महाभारत की कहानी हर भारतीय के भीतर ऐसी रची-बसी है कि एक सहज उत्सुकता मेरे भीतर भी उमड़ रही थी कि मल्लिका-ए-सीरियल एकता कपूर इस महाकाव्य को क्या नया रंग प्रदान करती हैं। कल रात 'कहानी हमारे महाभारत की' का पहला एपीसोड प्रसारित हुआ। पहला नयापन तो उन्होने ये किया कि कहानी को दौपदी के चीरहरण से आरम्भ किया.. और स्त्री के अपमान और विनाश में उसकी भूमिका से जुड़े भारी-भरकम संवादों के ज़रिये कहानी को एक स्त्री-केन्दित झुकाव देने की कोशिश की। चलो ये उनका अपना संस्करण है..ठीक है।

मगर इस झुकाव को देने में वो इतना मशग़ूल हो गईं कि उन्होने कथानक से कुछ खटकने वाली आज़ादियाँ ले ली। जैसे कि दुःशासन का यह कहना कि द्रौपदी वो पहली नारी थी जिसके एक से अधिक पति थे। यह बात तथ्यात्मक रूप से ग़लत है।

प्राचीन समाज मातृसत्तात्मक समाज था। कुछ मातृसत्तात्मक समुदाय में स्त्रियाँ अपने घरों में अपनी माताओं-बहनों के साथ रहती थी। उनका अपना अलग कमरा होता जहाँ रात्रिकाल में उनके प्रेमी उनके साथ रमण कर सकते थे। ऐसी स्थिति में हर स्त्री के एक से अधिक प्रेमी होते। बच्चे माँ के घर में पैदा होते और वहीं पलते और पुरुष अभिभावक के रूप में मामा को पहचानते। चीन में कुछ कबीले ऐसे हैं जो अभी भी लगभग ऐसे ही सामाजिक नियमों के तहत रहते हैं।

हिमाचल और उत्तराखण्ड के पहाड़ों में भी स्त्रियों द्वारा कई पति रखने की प्रथा रही है। खैर.. एक शुद्ध साबुन बेचने के लिए सीरियल का निर्माण करने वाली निर्मात्री से मैं इतनी उम्मीद रखूँ ये नाजायज़ है। फिर एक दो और छोटी-छोटी चीज़े ऐसी थीं जो खटक गईं।

जैसे दुर्योधन को बताया जाता है कि महारानी श्रृंगार कर रही हैं जबकि मूल महाभारत में द्रौपदी रजस्वला होने के कारण एक वस्त्र में (तत्कालीन नियमों के अधीन) और खुले केशों में अपने शुद्ध होने के दिन की एकांत में प्रतीक्षा कर रही होती हैं।

जैसे दु:शासन का हाथ पकड़ कर द्रौपदी को खींचकर लाना मगर द्रौपदी का कहना कि ये दुष्ट मुझे बाल पकड़ कर लाया है।

जैसे दुःशासन द्वारा द्रौपदी के बाल पकड़ने पर और दुर्योधन के अपनी जंघा ठोंककर द्रौपदी को वहाँ बैठने का आमंत्रण देने पर भीम की दःशासन का सीना चीर कर उसका खून पीने की और दुर्योधन की जंघा तोड़ने की प्रतिज्ञा करना पूरे एपीसोड में ग़ायब रहा। इसी मौक़े पर द्रौपदी ने भी अपने बाल तब तक खुले रखने की प्रतिज्ञा की थी जब तक दुःशासन के रक्त से उन्हे धो न ले.. वह भी अनुपस्थित थी।

बाद में बोधिसत्व ने, जो इस सीरियल के रिसर्च और स्क्रिप्ट आथेन्टीकेटर हैं, बताया कि ये सिर्फ़ एक झलक था बाद में सब कुछ विस्तार से आएगा। उनकी बात सुनकर मैं आश्वस्त हुआ पर उनका क्या बोधिसत्व जिनके मित्र नहीं?

एपीसोड के आखिर में लहराती दाढ़ी विहीन मकरन्द देशपाण्डे महामुनि वेदव्यास के रूप में अवतरित हो कर मुझे चौंका गए.. व्यास के इस नए स्वरूप से अधिक भौचक्का करने वाला महाभारत के महाविनाश पर उनका प्रलाप था। अपनी उस चीखपुकार के कारण वो व्यास कम और धृतराष्ट अधिक लगे। व्यास भी एक चरित्र हैं महाभारत में.. पर प्रलाप उनकी चरित्र की गरिमा के परे है। बोधि भाई के पास इसका कोई उत्तर ज़रूर होगा।

वैसे भी ये सब छोटी-छोटी बाते हैं तुलसीदास ने राम़चरित मानस लिखते समय रामायण के बहुत से प्रसंगो के साथ आज़ादी ले ली थी। यहाँ तुलसी जैसा कोई आध्यात्मिक उद्देश्य तो किसी की निगाह में नहीं होगा पर व्यापारिक-आर्थिक उद्देश्य तो होगा। और पूरे महाभारत को आधे-आधे घंटे की अवधि की सीमाओं में तोड़ने से लेकर तमाम दूसरी सीमाएं भी होंगी। फिर भी हम शिकायत कर रहे हैं क्योंकि वह नहीं होगी तो भी ठीक नहीं..।

और आखिरी शिकायत हमारी द्रौपदी की लाज बचाने के लिए सुदर्शन चक्र के हैलीकॉप्टर की तरह आने और उसमें से उसकी रक्षार्थ साड़ी के रस्सी की तरह लटकने से हुई जो काफ़ी हास्यास्पद था। मैं एकता कपूर के विराट बालाजी प्रोड्क्शन्स से बेहतर स्पेशल इफ़ेक्ट की उम्मीद कर रहा था। क्योंकि जब मैंने पहले—पहल इस सीरियल के ट्रेलर्स देखे तो मैं बहुत प्रभावित हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी की कैलेण्डर आर्ट की अबाध पौराणिक परम्परा को पहली बार एकता कपूर ने तोड़ दिया।

भारी-भारी स्वर्ण जटित मुकुट और आभूषणों के भार से धँसे जा रहे तनों को एक सहज स्फूर्तता दे दी एकता ने अपने महाभारत में। जो सच में भारतीय आइकनोग्राफ़ी के लिए एक बड़ा क़दम है। पीटर ब्रूक ने अपनी महाभारत में ऐसा किया था। पर उनकी महाभारत एक एक्सपेरिमेंटल थिएटर था जबकि एकता की महाभारत शुद्ध बाज़ारू कसरत है। भारतीय पौराणिक छवि को वास्तविकता के क़रीब खींच कर उसने ये एक क्रांतिकारी क़दम उठाया है। और इस काम के लिए तो वो सचमुच बधाई की पात्र है।

शनिवार, 5 जुलाई 2008

अपना-अपना सत्संग

ऐसा सुना है कि आदमी को पाँच प्रकार के भोजन की ज़रूरत होती है।

१. पृथ्वी तत्व; वह भोजन जो ठोस आकार में हो.. आम तौर पर भोजन के नाम पर हम जो खाते हैं वो सभी इस क़िस्म में गिना जा सकता है।

२. जल तत्व; पीने योग्य जितने भी द्रव्य हमारे भीतर प्रवेश करते हैं वे सभी.. पर मूल तौर पर पानी.. जो जीवन के लिए अनिवार्य है।

३. वायु तत्व; हमारी साँस.. जो निरन्तर चल रही है.. कभी तेज़, कभी धीरे। इस भोजन में ज़रा भी बाधा पड़ते ही हम दम तोड़ देते हैं। दम यानी हवा यानी साँस।

४. अग्नि तत्व; सूर्य का प्रकाश। यह भी हमारे जीवन और स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य तत्व है। सूर्य के प्रकाश से दूर पलने वाले बच्चे ज़िन्दा तो रह जाते हैं पर नितान्त तेजहीन। तेज यानी प्रकाश।

ये खुराक हमारे शरीर के लिए कितनी ज़रूरी है इसको इस बात से ही समझा जा सकता है कि उत्तरी अक्षांशो पर रहने वाले मनुष्य ने अपने त्वचा, केश और आँखों तक में ऐसी व्यवस्था की ताकि कम समय में अधिक से अधिक प्रकाश ग्रहण किया जा सके। जैसे कम रौशनी में हम कैमरे का अपर्चर पूरा खोल देते हैं। वैसे इस की अधिकता घातक भी हो सकती है इसीलिए भूमध्य के पास रहने वाले मनुष्य मेलेनिन बढ़ा कर त्वचा, केश आदि के पोरों से प्रकाश का प्रवेश बंद रखते हैं।

अक्सर उपवास आदि में लोग पृथ्वी तत्व से परहेज़ करके अपने भीतर की पार्थिवता को क्षीण कर के तेज को प्रबल करने की कोशिश करते हैं। रोज़े और निर्जल व्रत में लोग जल तत्व से दूर रह कर तेज के और क़रीब जाना चाहते हैं।

इन चार तत्वों के अलावा पाँचवे प्रकार का भोजन, तत्व की शकल में तो नहीं है पर यदि मान लीजिये कि वो आकाश तत्व है.. तो आप की "क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा" की सूची पूरी हो जाएगी।

५. वैसे पाँचवा तत्व साधुगण बताते हैं – सत्संग। महंतो-महात्माओं की भाषा में इसका अर्थ दरी पर बैठकर उनका प्रवचन सुनना होता है। पर यदि इसे व्यापक अर्थ में समझा जाय तो सत्संग का अर्थ अपने जीवन के सामाजिक आयामों को विकसित करना, एक जानवर से इतर अपनी सार्थकता को खोजना और इस विराट ब्रह्माण्ड में अपनी जगह को ठीक-ठीक पहचानना। इस तत्व की खुराक को समझते तो सभी हैं पर सत्संग के नाम पर अलग-अलग और अक्सर विपरीत प्रकृति की सामग्रियों का सेवन करते हैं।

अब देखिये न ये ब्लॉग लिखना भी एक प्रकार का सत्संग है पर सभी की अपनी-अपनी व्याख्या है।

गुरुवार, 3 जुलाई 2008

ग्यारह सबसे हितकारी पदार्थ

ये इस ग्रह पर मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए ग्यारह सबसे हितकारी पदार्थों की सूची है..

१. चुकन्दर
२. पत्ता गोभी
३. स्विस चार्ड्स
४. दालचीनी
५. अनार
६. आलू बुखारा
७. कद्दू के बीज
८. सार्डीन मछली
९. हल्दी
१०. ब्लूबेरीज़
११. कद्दू

इस साइट पर दी गई इस सूची के कई पदार्थों में से कुछ का रस निकाल कर, कुछ को सुखा कर और कुछ को फ़्रीज़ करके खाने की सलाह दी गई है.. मेरा मानना है कि यदि उस पदार्थ में कोई लाभकारी पदार्थ है तो उसकी सबसे उत्तम अवस्था उसकी प्राकृतिक अवस्था ही है।

वैसे इस सूची को बहुत गम्भीरता से लेने की ज़रूरत नहीं है। चूँकि ज्ञान की पश्चिमी शाखा पारम्परिक ज्ञान को नकार कर सब कुछ नई वैज्ञानिक पद्धति से सिद्ध करना चाहती है इसलिए वे अपने निष्कर्षों को बार-बार संशोधित करते चलती है। इसलिए मान कर चलिए कि इस सूची में बराबर संशोधन होता रहेगा। और आयुर्वेद का सिद्धान्त कहता है कि कोई भी पदार्थ सभी व्यक्ति के लिए सभी समय हितकारी नहीं हो सकता। यहाँ तक कि एक व्यक्ति के लिए जो जून में लाभप्रद है वो अक्तूबर में हानिकारक हो सकता है।

फिर भी मैं ये सोच कर बड़ा प्रसन्न हूँ कि इन ग्यारह में से छै पदार्थ मेरे नियमित भोजन का हिस्सा हैं। सार्डीन मैं शाकाहारी होने के नाते नहीं खाता और आलू बुखारा मेरी पित्त प्रकृति के विरुद्ध पड़ता है इसलिए नहीं खाता। स्विस चार्ड्स न जाने क्या है.. कभी न देखा न जाना.. विकी पीडिया पालक जैसी कोई सब्ज़ी बताता है जो देखने में चौलाई सी लगती है। कद्दू के बीज घर में पड़े हैं.. हफ़्ते में दो-चार खा लेता हूँ। ब्लूबेरीज़ भी भारतीय धरती के लिए दुर्लभ फल है.. इसलिए नहीं प्राप्त होती।

आप देखिए कि आप इन में से किस-किस को अपना भोजन बना रहे हैं। वैसे इस बात से भी अधिक महत्वपूर्ण हैं वो हानिकारक चीज़ें जो आप खा रहे हैं। इन को खाते रहे और हानिकारक दल को भी .. तो इन का क्या खाक असर होगा?

दूसरों के आईनों में अपना अक्स

पाकिस्तान और भारत दोनों देश के लोग कश्मीर के नाम पर सर काटने और कटाने को राजी हैं। मगर साठ सालों की इस खींचतान में कश्मीर के भीतर निहित स्वार्थों के ऐसे गड़हे पैदा हो गए हैं जो इस कश्मीरियों की इस त्रिशंकु अवस्था को कभी सामान्य नहीं होने देंगे। ज़ाहिर तौर पर कश्मीर की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार पर्यटन है पर वास्तव में अब कश्मीर की अर्थव्यवस्था पर्यटन पर नहीं आतंकवाद के सहारे चल रही है।

आतंकवाद के नाम पर कश्मीर में भारत से और इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान और खाड़ी के देशों से पैसा उड़ेला जा रहा है। और इसी सब के चलते कश्मीर दुनिया के सबसे भ्रष्ट इलाक़ों में तब्दील हो गया है। जो लोग इस पैसे से अपनी रोटी खा रहे हैं वो क्यों चाहेंगे कि पैसा आना बंद हो जाय।

कश्मीरी लोगों को इस नरक से छुटकारा मिलना चाहिए। वो जो चाहते हैं उन्हे दिया जाना चाहिए.. भले ही वो पाकिस्तान के साथ मिलना ही क्यों न हो। मेरा मानना है कि वो एक शुद्ध साम्प्रदायिक विकल्प है.. पर यदि वे इसी के पक्ष में है तो ये उनका अधिकार है कि वे इसे चुन सकें।

कम से वे उस दुष्चक्र से तो बाहर निकल सकेंगे.. जो उन्हे बाक़ी दुनिया से अलग साठ साल पहले की बँटवारे की मनःस्थिति में बराबर बनाए रखे हुए है। आज जब कि पूरी दुनिया में देश और राष्ट्र जैसी अवधारणाएं धीरे-धीरे बेमानी होती जा रही हैं.. कश्मीर अपनी राष्ट्रीयता को लकर जूझा हुआ है जिसका आधार मुख्य तौर पर साम्प्रदायिक है।

मेरी ख्वाहिश है कि उनकी समस्या का जल्द से जल्द समाधान हो ताकि वे अपने असुरक्षा-जनित चिन्तन से मुक्त हो सकें। पर दुख है कि ऐसा होने की ज़मीनी हालात अभी तो नहीं दिख रहे.. दिख तो बस इतना रहा है पर अब कश्मीर के किरदार के नाम पर राजनीति घाटी के अन्दर ही नहीं उसके बाहर भी शुरु हो गई है। जम्मू तो जल ही रहा है.. अब भाजपा और विहिप ने देशव्यापी बन्द के ऐलान के साथ दूसरी भी धमकियाँ दे डाली हैं। जैसे कि वो अजमेर में आने वाले श्रद्धालुओं का रस्ता रोकेंगे। और हज के लिए दी जाने वाली सब्सिडी का विरोध करेंगे।

भाजपा और विहिप बार-बार हिन्दुओं को किसी दूसरे के सन्दर्भ में ही परिभाषित होने के लिए क्यों प्रेरित करते हैं? क्यों? क्या हिन्दुओं का अपना कोई स्वभाव, किरदार, मूल्य-विधान नहीं है? या असल में हिन्दू नाम का कोई समुदाय है ही नहीं? मध्यकाल में भारत की विविध सामुदायिक पहचानों से अपरिचित टिप्पणीकारों ने ग़ैर-मुस्लिम समुदायों को एक नाम -हिन्दू- देकर सहूलियत का दामन पकड़ा। और तब से आज तक हिन्दू की परिभाषा गैर-मुस्लिम के अर्थ में ही चली आ रही है।

तो क्या इस का अर्थ यह लिया जाय कि हिन्दू नाम से राजनीति करने वाले ये दल आम गैर-मुस्लिम व्यक्ति को मध्यकाल की मानसिक सींखचो में ही क़ैद रखना चाहते हैं। और वो भी वास्तविक नहीं प्रकल्पित सींखचे! क्योंकि इतिहास की जो साम्प्रदायिक व्याख्या वे पेश करते हैं वो सबूतों पर नहीं खामख्याली पर खड़ी है।
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