सोमवार, 27 अगस्त 2007

बुरक़े के अँधेरे

कल मैंने अपने घर के नज़दीक एक मॉल में एक बुरक़ा पहने लड़की को देखा। लड़की खूबसूरत थी। मगर वे सिर से पाँव तक बुरक़े में थी। सिर्फ़ उसका चेहरा नज़र आ रहा था। मैंने नज़र भर के देखा, मगर लड़की ने मुझे नहीं देखा। वह उस लड़के को प्यार भरे आत्म-विश्वास से देख रही थी, जिस से वो सट कर खड़ी थी। मैंने अब लड़के को देखा। लड़का थोड़ा घबराया हुआ था। उसने मेरी नज़र पड़ते ही पलट कर मुझे देखा। किसी ताड़ती हुई नज़र के प्रति वह पहले से सशंकित था। उनके व्यवहार में यह फ़र्क़ इस बात की फिर पुष्टि कर रहा था कि औरतें प्रेम में ज़्यादा जोखिम उठाती हैं, और ज़्यादा साहसी होती हैं। खैर, सीधी बात थी कि लड़का-लड़की अपने-अपने घरों से छिप कर एक-दूसरे के साथ मॉलबाज़ी कर रहे थे। इस में कोई अनोखी बात नहीं। जिस-जिस शहर में मॉल खुले हैं वे इसी उम्मीद से खुले हैं कि लोग और खासकर युवा लोग मॉलबाज़ी करने के लिए टूट पड़ेंगे। उनकी उम्मीद को बराबर इज़्ज़त बख्शी जा रही है।

अनोखी कही जा सकने वाली बात थी सिर्फ़ लड़की का बुरक़ा। लड़की ने दुनिया की वहशत से अपना हुस्न छिपाने के लिए बुरक़ा नहीं डाला था। यदि ऐसा होता तो शायद वह मॉल की पतनशील संस्कृति में हिस्सा लेने वहाँ आती ही क्यों? इस तरह सरेआम अपने प्रेमी से सटकर खड़ी होती ही क्यों? नज़रों में नज़रें फँसाकर उसके चेहरे पर चाहत के राज़ खोल कर उसे दुनिया के आगे शर्मिन्दा करती ही क्यों? यह बुरक़ा तो उसने अपने घर और पड़ोस के पहरेदारों से खुद को छिपाने के लिए डाला था। लड़की मुझे एक साथ दो दुनिया में जीती नज़र आई। एक परदे व ज़ब्त की तहज़ीब और दूसरी ओर ग्रीड और एनवे का संसार। क्या दोनों का हिस्सा वह मनमर्ज़ी से है? या किसी एक में कुछ ज़ोर-ज़बरदस्ती है? अगर है तो ये ज़ाहिर है कि ज़बरदस्ती कहाँ हो रही है।

ये देख कर मुझे अपनी एक और ग़लती का एहसास हुआ (करता ही रहता हूँ ग़लतियाँ)। मैं ने अभी हाल में करोड़ों करोड़ मुसलमानों को जहालत के अँधेरों में कै़द घोषित कर डाला। आज मुझे अपनी वह घोषणा कुछ अतिरंजित लग रही है। शायद सच्चाई यह है कि ये अँधेरे जहालत से ज़्यादा बुरक़े के हैं, औरतों पर ही नहीं मर्दों पर भी। सबब ये कि तरक़्क़ी और अक़्ल के उजाले जितनी दूसरी क़ौमों में हैं कमोबेश उतने यहाँ भी हैं पर महदूद हैं। मगर उन हदों से निकलने की बेचैनी आम मुसलमान के भीतर सर मार रही है और ये क़ौम उन अँधियारों को लिए-लिए मॉल की नियॉनी रोशनी में आती जा रही हैं। और इसीलिए अपनी घोषित लड़ाई के अलावा मुस्लिम आतंकवादियों की एक कोशिश अपनी क़ौम को खौफ़ के साये में दबाये रखने की भी है।

11 टिप्‍पणियां:

अनिल रघुराज ने कहा…

औरतें प्रेम में ज़्यादा जोखिम उठाती हैं। सही ऑब्जर्वेशन है। मॉलबाजी शब्द भी धांसू है। बाकी तो विचार प्रवाह है, चलता है, चलते रहना चाहिए।

बेनामी ने कहा…

मॉल के पतनशील संस्कृति !!!!?????

उन्नत संस्कृति क्या है, महाशय?

मॉल खुलेपन की देन है और बुर्का आप जानते ही है :)

Arun Arora ने कहा…

सही है जी और हाईडर बहुत धांसू..

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

कैसे भी शब्द हों, कैसी भी दार्शनिकता. यह बुर्का समझ में नहीं आता.
कमला दास ने बुढ़ापे में इस्लाम स्वीकार कर बुर्का पहना था, वह भी समझ नहीं आया था.
जो समझ न आये उसकी क्या बात करें!

Farid Khan ने कहा…

"मुस्लिम आतंकवादियों की एक कोशिश अपनी क़ौम को खौफ़ के साये में दबाये रखने की भी है।"
हैदराबाद के धमाको को देखते हुए तो यह बात सही लगती है

Shiv ने कहा…

जो संस्कृति हमारे लिए 'पतनशील' है, शायद औरों के लिए न हो.और फिर कोई संस्कृति पतनशील होती है, ऐसा नहीं लगता. बाजार की शायद कोई संस्कृति नहीं होती और माल बाजार का ही हिस्सा है. बाजार से होने वाले मुनाफे में संस्कृति कहाँ खोजते फिरेंगे.

बुर्के की अपनी संस्कृति है. मुझे नहीं लगता की बुर्का अधियारा लाता है. अगर अधियारे हैं तो उन्हें माल के नियानी रोशनी में लाकर नहीं मिटाया जा सकेगा. रोशनी को अधियारे के पास ले जाने से शायद बात बने.

बसंत आर्य ने कहा…

बाह क्या बात है., बुरका अगर ये है तो घूँघट क्या है. चीजो को सही सन्दर्भे में देखा जाना चाहिए.

बोधिसत्व ने कहा…

अंधेरा बुर्के में नहीं हमारे समाज में है। आप जिस बुर्के की बात कर रहे हैं उसमें तो उजाला है। जगर-मगर है। जिंदगी है। नूर है। रंग है। जो लड़की बुर्के में रह कर प्यार कर सकती हैं उसके लिए बुर्का सिर्फ एक पहनावा है उससे ज्यादा कुछ नहीं। वो आजाद है। प्यार की ताकत उसे हर बंद समाज में आजादी के साथ जीना सिखाएगा।
जहाँ भी हो रहा है जिस माल या बाजार में उस नये प्यार को हमारा सलाम पहुँचे। वो महफूज रहे। आबाद रहे। उसे किसी की नजर ना लगे।

ghughutibasuti ने कहा…

आपका लेख अच्छा लगा । साउदी अरब में रहकर इस्लाम व वहाँ के रहन सहन के बारे में थोड़ी सी जानकारी हासिल की । मुझे लगता है कि बुरके के भी कई कारण रहे होंगे । वहाँ रेत की आँधियाँ चलती हैं । कुछेक बार तो रेत से आँखें बचाने के लिए मैं साड़ी के पल्लू से पूरा चेहरा ढककर चली हूँ ।
वहाँ पर पुरुषों के वस्त्र भी बुरके से कम नहीं । वे भी चेहरा छोड़कर पूरे ढके रहते हैं । सिर पर एक कपड़ा रहता है जिससे आँधी आने पर मेरी तरह वे भी चेहरा ढक सकते हैं ।
बस एक अन्तर जो मुझे ठीक नहीं लगा वह है पुरुषों का सफेद वस्त्रों में रहना और स्त्रियों का काले बुरके में । सफेद कपड़े काले के बराबर गरम नहीं होते । इस सबके पीछे शायद यह सोच रही हो कि काले कपड़े पहन वहाँ की धूप गर्मी में झुलसने का स्त्री को शौक नहीं होगा सो इस बहाने उन्हें घर में भी रखने का इन्तजाम हो गया ।
घुघूती बासूती

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत गहरे....

तीन दिन के अवकाश (विवाह की वर्षगांठ के उपलक्ष्य में) एवं कम्प्यूटर पर वायरस के अटैक के कारण टिप्पणी नहीं कर पाने का क्षमापार्थी हूँ. मगर आपको पढ़ रहा हूँ. अच्छा लग रहा है.

बेनामी ने कहा…

बढि़या है। कपड़े तो जगह विशेष की जलवायु के हिसाब से शुरू हुये होंगे फिर रूढ़ि बन गये। प्यार करने वाले बढ़ते रहें यही कामना है। बोधिसत्वजी की बात का समर्थन है मेरी तरफ़ से । :)

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