शनिवार, 7 जुलाई 2007

हल्लम हल्लम हौदा

कल की कविता इब्न बतूता पहन के जूता के ऊपर भाई बोधिसत्व की प्रतिक्रिया आई.."..आज कुछ ही कवि हैं जो बच्चों के लिए भी लिखते हैं बनारस के श्री नाथ सिंह, प्रयाग शुक्ल और सुरेश सलिल को छोड़ दें तो शायद ही कोई कवि बाल कविताएं रच रहा हो। मैं भी अपने को अपराधी पाता हूँ.." ..हिन्दी समाज की आम और हिन्दी साहित्य की खास और उसमें भी बच्चों की खासम खास दुर्दशा पर बोधिसत्व और तमाम दूसरे मित्रों के अपराध बोध को हवा देने के लिए एक और प्यारी और प्रासंगिक कविता को पेश कर रहा हूँ..
इस कविता के लेखक डा० श्री प्रसाद के बारे में मेरी कोई जानकारी नहीं है.. कविता हाथरस के संगीत कार्यालय के बाल संगीत अंक में प्रकाशित हुई थी .. मेरी मित्र ऋतिका साहनी सम्भवतः इस गीत और कुछ अन्य बच्चों के गीतों पर शीघ्र ही एक ऑडियो एल्बम निकालेंगी.. इस कविता से मेरा परिचय उन्ही के मार्फ़त हुआ .. उनको धन्यवाद देते हुए आप के आनन्द के लिए प्रस्तुत है.. हल्लम हल्लम हौदा..


हल्लम हल्लम हौदा,
हाथी चल्लम चल्लम,
हम बैठे हाथी पर,
हाथी हल्लम हल्ल्म।

लम्बी लम्बी सूँड़,
फटाफट फट्टर फट्टर,
लम्बे लम्बे दाँत,
खटाखट खट्टर खट्टर।

भारी भारी मूँड,
मटकता झमम झमम,
हल्लम हल्लम हौदा,
हाथी चल्लम चल्लम।

परवत जैसी देह,
थुलथुल थल्लम थल्लम,
हल्लर हल्लर देह हिले,
जब हाथी चल्लम।

खम्बे जैसे पाँव,
धपाधप पड़ते धम्मम,
हल्लम हल्लम हौदा,
हाथी चल्लम चल्लम।

हाथी जैसी नहीं सवारी,
अग्गड़ बग्गड़,
पीलवान मुच्छड़ बैठा है,
बाँधे पग्गड़।

बैठे बच्चे बीस,
सभी हैं डग्गम डग्ग्म,
हल्लम हल्लम हौदा,
हाथी चल्लम चल्लम।

दिन भर घूमेंगे,
हाथी पर हल्लर हल्लर,
हाथी दादा,
ज़रा नाच दो थल्लर थल्लर।

अररे नहीं,
हम गिर जायेंगे धमम धमम,
हल्लम हल्लम हौदा,
हाथी चल्लम चल्लम।

कवि -डा० श्री प्रसाद

1 टिप्पणी:

azdak ने कहा…

चलो, तुम्‍हारी हाथी के बहाने हमारे बीस पूतोंवाला खानदान कही एक जगह इकट्ठा तो हुआ..
डॉ. श्री प्रसाद की अल्‍लम-हल्‍लम दुरुस्‍त है.. उम्‍मीद करें ऋतिका भी ऐसा ही दुरुस्‍त गायन करें..

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