रविवार, 25 मार्च 2007

दि स्पिरिट ऑफ़ फ़्रीडम

अपने पूरे सिगरेटीय जीवन में मैंने सिगरेट को हमेशा आज़ादी का प्रतीक समझा..हमारे जवानी के दिनों की एक सफल ब्रांड चार्म्स की बाईलाइन ही थी.. चार्म्स--दि स्पिरिट ऑफ़ फ़्रीडम... मध्यमवर्गीय बन्धनों में सीमित नौजवान के लिये ऐसी सस्ती सुलभ आज़ादी.. वो भी डेनिम जीन्स के आकर्षक पैकेट में.. मोक्ष की खोज में जितनी भटकती मुमुक्षायें थी.. सब पान की दुकानों से बीस पैसों में खरीद रही थी मोक्ष.. जो इस स्कीम में आकर नहीं गिरे वो या तो माया के चरित्र को गहरे तक पहचान गये जन्मों जन्मों के सच्चे साधक थे.. या जिनकी मुक्ति की कामना इतनी अशक्त थी कि मध्यमवर्गीय वर्जनाओं को ही ना तोड़ सकी.. भले ही ऐसा ना हो पर हमें यह मुग़ालता पालने में तब भी सुख मिलता था आज भी मिलता है..
मगर जब से सिगरेट पीना छोड़ा है.. बड़ा सूना सूना लगता है ... सब कुछ हो कर भी कुछ कम कम सा लगता है.. जिन बेचैनियों का इलाज हमारी प्यारी धूम्र दन्डिका हुआ करती थी.. वो बेचैनियां भी हमें आज अकेला छोड़ गई हैं .. जियें तो जियें कैसे.. बिन आपके.. तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई शिकवा तो नहीं आदि आदि गाने गा कर हम अपना जी बहला सकते हैं.. पर विरह की ऐसी अनूठी रूमानियत के प्रति भी दिल बड़ा निष्ठुर हो चला है.. और उनको दो कौड़ी का चिन्हित कर के पद दलित कर रहा है.. अब हर आधे घन्टे पर किसी को अपनी सांसों मे बसा लेने के लिये ... गरमा लेने के लिये कोई आग नहीं सुलगा रहा हूँ मैं.. किसी को बार बार अपने होठों से नहीं लगा रहा...किसी भी फ़िक्र को धुयें में नहीं उड़ा रहा...
कभी कभी लगने लगता है.. कि कहीं ऐसा तो नहीं कि सिगरेट के साथ मेरे अन्दर का सारा विद्रोह विप्लव सारी क्रांतिकारिता भी छूट गई.. और मेरा चरित्र मध्यमवर्गीय समझौता परस्ती में तो नहीं गिरता जा रहा.. अब कहीं भी जा के राजी हो जाता हूँ.. सिनेमा हाल में जाते ही निकलने की बेचैनी सर मारने नहीं लगती.. ए सी की ठण्डी बुर्जुआ हवाओं में घन्टो तक सेठों के साथ पैसों के नेगोशियेशन्स करते रहने पर भी कहीं आग लगाने का कोई विचार मन में हिलोड़े नहीं मारता.. रेलवे स्टेशन, बस ट्रेन..बाज़ार दुकान मकान अस्पताल शमशान कहीं भी मैं भीड़ का हिस्सा बन जाता हूँ.. मेरे अन्दर भीड से हट कर कुछ कर गुज़रने का जैसे कोई अरमान ही नहीं बचा है.. हे मेरे मालिक ये मुझे क्या हो गया है.. ?

6 टिप्‍पणियां:

azdak ने कहा…

कुछ नहीं हुआ है। आंखें मूंदे रेलिंग पकड़े खड़े रहो। रोने की कोई बात नहीं हुई है। अभी थोड़ी देर में मम्‍मी आयेंगी, बाबा-गाड़ी में ले के घर जायेंगी। मैं सिगरेट का धुंआ उड़ाता हाल पूछने आऊंगा।

बेनामी ने कहा…

सात साल जम कर बीड़ी-सिगरेट पी।
उसी दौर में विज्ञापनों को बदल कर देखने का खेल आजमाया।'सिगरेट पीने' की जगह 'खुलापन' जोड़ कर देखा।चारमिनार का विज्ञापन-'पल भर दम लेना है तो खुलेपन की बात ही कुछ और है',राज बब्बर के रेड एण्ड व्हाइट वाले में,'खुले रहने की बात ही कुछ और है,जरा खुल के तो देखो' या फिर चारमिनार गोल्ड को याद कीजिए (खुलापन जोड़ कर)-'It has both smoothness and satisfaction'.
आप ने मानो खुद को बन्द कर रखा है,घुटन भरे सिनेमा हॉल के भीतर।बाहर निकलकर लम्बी साँस लेना कितना राहतदायक होता है? खुलेपन का अभिन्न हिस्सा बनिये।

Unknown ने कहा…

आज बड़ा अँधेरा है...
खुद को जला कर रौशनी जो नहीं की है...

Udan Tashtari ने कहा…

एक बार ठान ली है तो कोई भाव हाबी नहीं होना चाहिये...आप मुक्त रहेंगे इस विश्वास से आगे बढ़ें...मैने आपको बताया था कि मैं इससे तीन साल से दूर हूँ..और मुझे कोई आवश्यकता न तो महसूस होती है और न ही इस विषय में विचार भी आते है अब. मेरी शुभकामनायें आपके साथ हैं.

अनूप शुक्ल ने कहा…

भैये अभय, आपने तो अभी छोड़ी। हमने तब छोड़ दी था जब पैदा हुये थे, दुबारा कभी पीने की इच्छा नहीं की। बहुत हुआ तो पेंसिल, पेन मुंह में दबाके तलब पूरी कर ली। कुछ दिन में यह इतिहास हो जायेगा। रवीन्द्र कालिया की गालिब छुटी शराब पढ़िये -मजा आयेगा।

बेनामी ने कहा…

pad kar bahut achacha laga.ek samay ke bad sari krantikarita dhari ki dhari rah jati hai. usake bad aadami bato se hi sab kuch karata rahata hai.
pradeep singh.bajaarwala.

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