शनिवार, 17 मार्च 2007

अनामदास के डायनासोर और चेतना की स्वतंत्रता

अपने आगमन के साथ ही बहुत सारे सवाल खड़े कर देने वाले अनामदास..और मैं... लगता है हम एक ही राह के मुसाफ़िर हैं.. आपने जो बाते कहीं हैं.. वो मेरे भी दिमाग़ को चकराती रही हैं.. "लेकिन एक बात जो समझ में नहीं आई कि अगर आत्मा न पैदा होती है न मरती है तो दुनिया की आबादी कैसे बढ़ रही है? क्या भगवान के पास आत्माओं का स्टॉक है जो वह वक़्त ज़रूरत के हिसाब से रिलीज़ करता रहता है, क्या उसने तय किया है चीन और भारत के लिए सबसे अधिक आत्माएँ एलोकेट की जानी चाहिए?"

अनामदास का सवाल सोचने लायक है.. आत्मा होती है तो क्या होती है.. क्या हर शरीर की आत्मा अलग होती है.. जैसे उसके कपड़े.. एक के कपड़ों की तरह उसकी आत्मा भी दूसरा नहीं पहन सकता... या कपड़ों ही की तरह कोई भी पहन सकता है.. बस लिहाज़ में नहीं पहनता... या ये कोई स्कूलनुमा सिस्टम है जहां आप चौरासी लाख योनियों में से गुज़र कर आखिर में महाबोध हासिल करके डॉक्टरेट की उपाधि से नवाजे जाते हैं.. मुझे लगता है अनामदास का सवाल इस पूरे मसले की प्रक्रिया से ज़्यादा इसके दार्शनिक मूल पर है.. कुछ विचार जो मेरे भीतर आते रहे हैं वो लिखता हूँ..
वास्तव में ये सवाल आत्मा के अस्तित्व का सवाल नहीं है.. ये चेतन तत्त्व के अस्तित्व का प्रश्न है..चेतन का अस्तित्व तो है.. तो शंका उसके अस्तित्व पर नहीं है.. जड़ के साथ प्राप्य है.. यानी भौतिक तत्व के एक जटिल संरचना में साथ आजाने पर एक चेतना निर्मित होती है.. हमारे आपके भीतर है.. सवाल उसके जड़ से स्वतंत्र अस्तित्व होने पर है.. क्या शरीर के मरने पर आत्मा भी मर जाती है.. या शरीर से इतर भी किसी चेतना का कोई अस्तित्व है..? इसी सवाल से दो तरह से सामना किया जा सकता है.. एक तो आस्था के रास्ते.. वहां तो शक़ की कोई गुंज़ाईश ही नहीं..बस मान लो.. दूसरे युक्ति बुद्धि और तर्क से.. तर्क वाला रास्ता लेते हैं.. सवाल है कि क्या आत्मा या चेतना का कोई स्वतंत्र अस्तित्व है.. ?

मान लेते हैं नहीं.. अब मैं पूछता हूँ.. क्या अग्नि का कोई स्वतंत्र अस्तित्व है.. ? जल का?.. वायु का ? और काल का ?जल वायु पृथ्वी और आकाश से भिन्न एक अग्नि की कल्पना सम्भव है.. तो चेतना की क्यों नहीं.. ?भौतिक तत्व एक विशेष अवस्था में आग्नेय रूप धारण कर लेता है.. वही तेल ठण्डे तरल रूप में करोड़ो वर्ष पड़े रह सकता है.. और किसी एक अन्य तत्व के संयोग से उसमें एक अकल्पनीय अग्नि की सम्भावना सिद्ध हो जाती है.. अग्नि न मरती है ना जनम लेती है.. वो सदा थी सदा रहेगी.. ये सब कहा जा सकता है.. फ़र्क यहां सिर्फ़ इतना है.. हम बात अग्नि की नहीं आत्मा या चेतना की कर रहे हैं.. चेतना को हम जिस रूप में जानते हैं वो भी तो भौतिक तत्व के एक विशेष संयोग का परिणाम ही तो है.. यदि किसी एक जंगल में किसी एक काल में आग लगी थी.. तो ये कहना कि आग सिर्फ़ जंगल में ही लग सकती है.. और जंगल से स्वतंत्र आग का अस्तित्व संभव नहीं, शायद तर्क संगत नहीं होगा..

बाकी ये बात निश्चित ही सोचनीय है कि पृथ्वी का भार मोटे तौर पर तो नहीं बदलने वाला.. अगर मनुष्य ज़्यादा हैं तो जानवर पेड़ आदि शर्तिया कम हुये होंगे.. और डायनासोर की आत्मा भले ही हमारे भीतर ना हो.. उसकी चेतना ज़रूर है.. हमारे अवचेतन में उसकी स्मृति ज़रूर हैं.. क्यों.. ? .. आपने देखे हैं अपने भीतर के डायनासोर.. मैंने देखे हैं कभी कभी स्वप्नों में.. कुछ विक्षिप्त और अर्धविक्षिप्त लोग उसी में फंस जाते हैं.. वो चिन्ता की अलग राह है..

2 टिप्‍पणियां:

अनूप शुक्ल ने कहा…

अच्छा लगा इसे जब पढ़ा चिट्ठाचर्चा पर आपका कमेंट पढ़कर। वैसे और अच्छा रहेगा कि और सरल-सहज अंदाज में अपनी बात समझा सकें।

बेनामी ने कहा…

अरे भाई
ये तो मैंने अभी देखा, मेरे कुरेदे एक आप ही बोल रहे हैं...मैं तो सोच रहा था--घट घट में पंछी बोलता है...पंछी के होने, न होने की बात करूँगा तो कई पंछी बोलेंगे लेकिन आत्माराम तो यहाँ आप ही दिख रहे हैं...जय हो. मैं आम जनता के लिए सीधे सवाल दाग़ रहा हूँ...आप तो जवाब दे रहे हैं...मज़ा आ रहा है...जारी रहे...जो आनंद साधु संग का है (नटयोगी नहीं नेटयोगी ही सही)वह कहीं और कहाँ...अगला ब्लॉग भी पढें. आपकी प्रतिक्रिया निस्संदेह सार्थक है...साधुवाद.
अनामदास

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