शनिवार, 24 मार्च 2012

नौनिहाल


सवा पाँच बज रहे थे। दफ़्तर लगभग ख़ाली हो चुका था। परम्परा के मुताबिक लोग अपना आज का काल कल पर टालकर जा चुके थे। आज का काम आज ही ख़तम कर डालने की ज़िद करने वाली शांति अपना काम समेट रही थी जब हवाओं पर चढ़कर रह-रहकर एक धमक सी आने लगी।  शांति तो अपने काम में व्यस्त थी। सबसे पहले उनकी पहचान दफ़्तर की पुरानी खिड़कियों में जड़े शीशों ने की। हर धमक के साथ उनका पूरा अस्तित्व कम्पन करने लगा। और सारे शीशों के समवेत कम्पन से पूरे दफ़्तर में एक अजब माहौल तारी हो गया। तब शांति ने भी उस धमक की लहरों को अपने शरीर से टकराते हुए महसूस किया जिससे उसके मन में एक विचित्र आकुलता का संचार होने लगा। उसने लैपटॉप बन्द कर दिया। उस आकुलता में काम करना मुमकिन नहीं था। और बाहर की ओर चल पड़ी। जैसे-जैसे वो बाहर की ओर चलती गई, हवाओं में धमक बढ़ती चली गई। और जब वो लिफ़्ट से बाहर आई तो एक कान चीर देने की नीयत रखने वाले संगीत से उसका सामना हुआ। वो धमक इसी संगीत की निचली तरंगे थी।

शांति स्कूटर पार्किंग से निकालकर सड़क पर आ गई। ये सड़क जिस पर शांति का दफ़्तर था, बहुत संकरी तो न थी। लेकिन कुछ हिस्से पर दुकान अपनी हदों से बाहर निकलकर पसर गई थीं और कुछ पर ठेलेवाले अपनी रोज़ी बिछाए हुए थे। शहर का प्रशासन  एक सहिष्णु आचार का परिचय देते हुए इस अतिक्रमण के प्रति पूरी तरह उदासीन बना हुआ था। और आम नागरिक की हालत किसी कोलस्ट्राल से भरी रकतवाहिनी में बहते पोषक तत्वों सी हो चली थी। लेकिन उस समय सड़क का आवागमन रुका हुआ था। क्योंकि शांति से लगभग पचास मीटर आगे एक ट्रक था जिस पर पांच छै भीमकाय स्पीकर रखे थे। ट्रक के ऊपर, आगे-पीछे और अगल-बगल नौजवान लड़कों की एक उछलती-कूदती टोली थी। साठ-सत्तर की संख्या वाले उस दल में शायद ही एक-दो ऐसे थे जिन्होने कमर के ऊपर कोई कपड़ा पहन रखा हो। जो शोर ट्रक के स्पीकरों से उपज रहा था न तो उसे संगीत कहा जा सकता था और न ही उनकी फूहड़ उछल-कूद को नृत्य। वे अपने भीतर की ही किसी विकृति से विवश होकर हवा में हाथ-पैर फेंकते दिख रहे थे। वे पास ही स्थित विश्वविद्यालय के छात्रावासों में रहकर उच्च शिक्षा प्राप्त कर छात्र थे।

किसी लगातार हो रहे विस्फोट की तरह उस शोर की उत्तेजना शांति को परेशान करने लगी। वो शोर एक ऐसा आक्रमण था जिसका उसके पास कोई बचाव नहीं था। उसके आगे वाहनों की लम्बी क़तारें थी और वैसी ही धीरे-धीरे पीछे भी बनती जा रही थीं। न वो आगे निकल सकती थी और न लौट सकती थी। उस शोर की धमक में उसके ज़ेहन में उठने वाली हर सोच उठते ही दम तोड़ दे रही थी। जबकि उसकी देह के किसी निचले तल से उठता एक आदिम आवेग उस पर छाता जा रहा थी।  उसका मन कर रहा था कि सबको कुचलकर आगे बढ़ जाय। अगर वो कोई सिद्ध योगिनी होती तो अपने स्कूटर को टैंक में बदल डालती उसी पल। अचानक उसे लगा कि कोई कुछ कह रहा है उस से। उसने मुड़कर देखा- उसके बाज़ू में रुकी हुई कार से एक औरत उस से कुछ पूछ रही थी।  उसके मुँह से निकल ज़रूर होंगे कुछ शब्द मगर वो कहीं पहुँचने पहले से दबा कर मार डाले गए। उस आततायी शोर में किसी स्त्री के कोमल शब्द के लिए कोई जगह नहीं बची थी। शांति को कुछ समझ नहीं आया। ड्राइवर की सीट पर बैठा उस औरत का पति उसके कंधों को हिलाकर कुछ बोल रहा था। लेकिन वो अपने पति को अनदेखा कर के शांति से बार-बार कुछ पूछती ही रही। उसके लगातार हिलते हुए होंठ, सवालिया निगाहें और शांति तक पहुँचता सिर्फ़ शोर शांति से बरदाशत नहीं हो रहा था। उस पर से अपनी ध्यान हटाने के लिए शांति ने पिछली सीट पर देखा। पिछली सीट पर दो बच्चे आपस में लड़ रहे थे। एक छै-सात बरस का लड़का एक तीन-चार बरस की लड़की, जो शायद उसकी बहन थी, बुरी तरह पीट रहा था। बच्ची का मुँह खुला था, गले की नसें तनी हुई थीं, और आँखों से आँसू बह रहे थे। निश्चित ही वो गला फाड़ कर रो रही थी पर रोने की कोई आवाज़ नहीं आ रही थी। अगली सीट पर बैठे उनके माँ-बाप को पता भी नहीं था कि पिछली सीट पर क्या चल रहा है।

होली के चार-पाँच रो़ज़ पहले ही होली मिलन का उत्सव मना रहे छात्रों का जुलूस धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा। और एक ख़ास घर के आगे जाकर रुक गया। शांति ने देखा उस घर पर दीपा गर्ल्स हॉस्टल की तख्ती लगी हुई थी। शायद वो विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली लड़कियों के लिए कोई निजी छात्रावास था। उस हॉस्टल में कोई चौकीदार नहीं था। और अगर था भी तो लड़कों के हिंसक नाच से भयभीत होकर कहीं अन्तर्धान हो गया था। अगल-बगल फलों और जूस के ठेले थे। मगर वो घबराकर अपने सामान को ढककर किनारे होने में लगे थे। उन्हे डर था कि अगर लड़कों की नज़र तिरछी हुई तो उनका माल लुटते देर नहीं लगेगी। ये उनका सौभाग्य था कि लड़कों की दिलचस्पी किसी और 'माल' में थी। जिस के चलते वो गर्ल्स हॉस्टल के बाहर खड़े होकर भीमकाय स्पीकरों से निकल रहे उन्मादक शोर पर देर तक अश्लील ढंग से उछलते-कूदते रहे। और गंदे इशारे करते रहे। जिस पर भी जब किसी भी लड़की ने उनको दर्शन की तवज्जो नहीं दी तो एक लड़के ने जूस के ठेले के साथ रखे टोकरी में से संतरे और मौसम्बी  छिलके और गाजर-चुकन्दर के सिरों को उठा-उठाकर हॉस्टल की बंद खिड़कियों पर फेंकना शुरु कर दिया। बाक़ी लड़कों ने अनुसरण किया और हॉस्टल पर अपने हथियारों की वर्षा कर दी। वो पल तमाम तरह की ख़तरनाक सम्भावनाओं से थरथराने लगे। इस दृश्य को देखते-देखते कुछ पल पहले क्रोध में उबल रही शांति, बिलकुल उलट भय की गर्त में गिर पड़ी।

घर पहुँचने के बहुत देर बाद तक भी शांति भीतर कहीं काँपती रही। क्योंकि वो एक स्त्री है, और किसी तल पर बेहद असुरक्षित है। और उसके भीतर इस आदिम असुरक्षा की भावना पैदा करने वाले कोई अनपढ़, जंगली और गँवार नहीं थे। विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा लेकर, आने वाले दिनों में आईएएस, पीसीएस आदि बनने वाले छात्र थे, नौनिहाल थे, देश का भविष्य थे। उच्च शिक्षा हासिल करके वे किस प्रकार के बेहतर मनुष्य और किस तरह के बेहतर समाज की रचना करेंगे ये कल्पना करना शांति को बहुत कठिन और कष्टकर मालूम दिया।

***

(10 मार्च को दैनिक भास्कर में छपी) 


1 टिप्पणी:

Sunitamohan ने कहा…

bahut-bahut sundar prastuti hai! ise kahani kahun, ghatna kahun ya kissagoyi......aisi ghabrahat se ek swawlambi-swatantr aur nirbhik se nirbhik aurat bhi aksar do-chaar hoti hi hain.yahi sach hai!

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