मंगलवार, 1 नवंबर 2011

नाम


बूढ़ी नहीं हुई थी शांति पर उमर के एक ऐसे मक़ाम पर ज़रूर पहुँच गई थी जहाँ से शरीर के नश्वर होने का आभास मिलने लगता है। एक वक़्त जवानी की लापरवाहियों वाले उन दिनों का भी था जब उसे शरीर की स्वतंत्र उपस्थिति का कोई एहसास तक नहीं होता था। पर वो दिन अब नहीं रहे। अब एक नई चेतना जागी है उसके भीतर कि उससे अलग एक शरीर भी है। जिसके ठीक न रहने से उसके भीतर दर्द और रोग रहने लगता है। और उस रोग का एक इलाज योग है। इसलिए शांति ने तय किया कि वह भी योग सीखेगी। योग की कक्षाएं शांति की एक सहेली मीरा ने अपने घर पर ही आयोजित की थीं।

कुछ बरस पहले शांति मीरा के ही मुहल्ले में रहा करती थी। वहाँ जाते हुए शांति को उम्मीद थी कि दूसरे दोस्तों और पुराने पड़ोसियों से मुलाक़ात होगी। पर सबसे पहले शांति की मुलाक़ात एक बड़ी जानी-पहचानी आवाज़ से हुई। शांति ने जैसे ही स्कूटर खड़ा कर के हैलमेट उतारा, साईकिल की घंटी की तीखी घनघनाहट उसके कानों में गूँज गई और उसी के साथ ही ज़ेहन में कुछ पुरानी यादें भी। शांति ने देखा कि एक नौजवान साइकिल पर कुछ बड़े-बड़े झोले लादे हुए उसी की तरफ़ चला आ रहा था। वो शांति को देखकर मुस्कराया और हलके से अभिवादन में सर भी हिलाया। शांति उसे तुरंत पहचान गई। जब वो इस मुहल्ले में रहती थी तो भी वो लड़का इसी तरह घंटी बजाते हुए, ब्रैड, बिस्कुट और अंडे बेचा करता था। बस उस समय इतना छोटा था कि दाढ़ी- मूँछ भी ठीक से नहीं उगी थी।

अरे तुम.. कैसे हो..
अच्छा हूँ जी..
काम कैसा चल रहा है..
अच्छा है..
वो मुस्कराने लगा। शांति ने ग़ौर किया कि वो बड़ा ज़रूर हो गया था पर उसकी मुस्कान में वही किशोरों वाला भोलापन था।
आप इधर नहीं रहते अभी.. कहीं और चले गए?
हाँ..
शांति उसे देख रही थी और उसका जवाब दे रही थी पर उसका मन उसके नाम में अटका हुआ था जिसे वो बहुत सोचने पर भी याद नहीं कर पा रही थी। और इस तरह स्मृति के अटक जाने से उसे बहुत उलझन होने लगी तो उसने पूछ ही लिया..
तुम्हारा नाम...
सोनू..
सोनू! शांति ने भी उसके पीछे उसका नाम बोला। पर स्मृति का जो कांटा कहीं भीतर अटका हुआ था वो इस ध्वनि से आज़ाद नहीं हुआ। शांति को उसका कुछ और ही नाम याद था जो सोनू नहीं था। पर उस भूले हुए नाम भर के लिए वो वहाँ खड़ी नहीं रह सकती थी। सोनू से विदा लेके मीरा के घर के भीतर चली आई।

योग कक्षा में कुछ लोग पहले के पहचाने हुए थे और कुछ नए लोग भी थे, वहीं आस-पड़ोस की इमारतों के। शांति की पुरानी दोस्त जूही भी वहीं मिल गई और उसके दफ़्तर का सहकर्मी विपिन भी। बाक़ी लोग ऐसे थे जिन्हे शांति नहीं जानती थी और जो शायद मीरा के नए पड़ोसी थे। बारह-पन्द्रह लोगों के छोटे से समूह में उसका एक नन्हा समूह बन गया जो एक साथ बैठकर आसन और प्राणायाम की कठिनाईयों पर सलाहों और सुझावों का लेन-देन कर के एक-दूसरे की मदद करता। हालांकि दूर बैठे गुरुजी यही चाहते कि सारी मुश्किलों के हल का रास्ता उन्ही से होकर गुजरे। मगर दोस्त अपनी दोस्ती निभाने से बाज न आते और योगासनों के पहले, बाद में, और कभी-कभी बीच में भी अपनी गुपचुप गपशप भी जारी रखते।

पहले दिन तो शांति समेत सभी लोगों को आसनों के करने में स्वयं उनका शरीर आड़े आता रहा। शांति तो फिर भी ठीक थी। अधिकतर लोगों की संख्या ऐसी थी जो चालीस पार कर गए थे और किसी न किसी बड़ी बीमारी के आरम्भिक अवस्था का सामना कर रहे थे। और उसी बीमारी के भयंकर वाले स्वरूप से बचने के लिए योग की शरण में आए थे। कुछ तो मोटापे और कसरत के अभाव में इस क़दर जंग खाए हुए थे कि हाथ-पैर हिलाने भर में बेदम हुए जा रहे थे। पर दो-तीन बाद थोड़ी-थोड़ी लोच सबके शरीर में पैदा होने लगी, पर समान रूप से नहीं। इंश्योरेंस का काम करने वाले पटेल साहब तीन दिन बाद भी अपने पैर नहीं छू पा रहे थे। बैंक के काउन्टर पर बैठने वाले आकाश वर्मा तो सुखासन में भी नहीं बैठ पा रहे थे। जूही और विपिन को कोई बड़ी दिक़्कत नहीं थी पर मेज़बान मीरा की गरदन अकड़ी पड़ी थी। हाँ एक बस मोईडू जी थे तो हर आसन कमाल के कौशल से कर ले जा रहे थे। पेट ज़रूर उनका थोड़ा निकला हुआ था मगर शरीर एकदम फ़िट था। योग गुरु जी बार-बार सभी से मोईडू जी से प्रेरणा लेने की बात करते। उनके बारे में अगर कोई अजीब बात थी तो वो थी उनका नाम- मोईडू। किसी ने कहा नहीं मगर यह माना जा रहा था कि वे दक्षिण भारतीय हैं, हालांकि उनके बोलने के लहज़े में ऐसा कोई संकेत नहीं था। सब लोग की तरह शांति भी उन्हे दक्षिण भारतीय मूल का ही मानती रहती, पर एक घटना से उसकी मान्यता बदल गई।

चौथे रोज़ शांति को योग कक्षा के लिए थोड़ी देर हो गई। जब वो पहुँची तो कक्षा शुरु हो गई थी। शांति हड़बड़ी में स्कूटर लगाकर अन्दर जाने के लिए लपक ही रही थी कि एक महिला ने उसे रोक लिया।
मीरा माथुर का घर यही है..?
हाँ यही है..
अन्दर से आप ज़रा मोहिउद्दीन साहब को बुला देंगी..
किसको?
मोहिउद्दीन! उनके बेटे के सर में चोट लग गई है.. और उसकी माँ उसे लेके अस्पताल गई हैं..
अरे.. पर मोहिउद्दीन तो यहाँ कोई नहीं है..!?
ऐसा कैसे हो सकता है..? नुसरत न तो मुझे..!!? ये मीरा माथुर का ही घर है ना..? योग क्लासेज़ होती हैं यहाँ पर.. ?
हाँ.. होती तो हैं.. आप ऐसा कीजिये, अन्दर आ के देख लीजिये.. !

और अन्दर आकर उस महिला ने जिस व्यक्ति को मोहिउद्दीन के रूप में पहचाना उसे चार दिन से सभी लोग मोईडू के नाम से पुकार रहे थे। मोहिउद्दीन उर्फ़ मोईडू अपने बच्चे की चोट की ख़बर सुनकर सरपट वहाँ से भागे। पर शांति बहुत उलझन में पड़ गई। मोहिउद्दीन ने लोगों से ये क्यों कहा कि उसका नाम मोईडू है? क्या उसने ख़ुद अपना नाम मोईडू बताया या फिर किसी ग़लतफ़हमी में ऐसा हो गया? और अगर भूलवश ऐसा हो भी गया तो वो क्या मजबूरी थी कि चार दिन तक उसने किसी को सुधारने की कोशिश नहीं की?

यही सब सोच रही थी शांति जब उसके कानों में साईकिल की घंटी की तीखी घनघनाहट गूँजने लगी। उसकी गूँज से स्मृति का एक ढकना खुला और एक नाम बाहर आ गया- मुख़्तार। ये बिस्कुट बेचने वाले उस लड़के का नाम था जिस नाम से वो उसे पहले जानती रही थी। 

***

(इस इतवार दैनिक भास्कर में छपी) 

4 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

स्मृतियों के पेंच में फसती कहानी।

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

हो सकता है मेरा अंदाजा गलत हो, लेकिन मुझे ये कहानी उस दिशा में इशारा करती दिख रही है कि असुरक्षा की आशंका के चलते अल्पसंख्यकों को अपनी पहचान छुपाकर रखनी पड़ रही है।
अगर ऐसा है तो फ़िर हमें ये भी सोचना होगा कि ऐसा क्यों है? क्या सिर्फ़ असुरक्षा की भावना ही इसकी जिम्मेदार है?
यह सही है कि गलत काम करने वाले करके निकल लेते हैं और भुगतना आमजन को ही पड़ता है।

Pratibha Katiyar ने कहा…

sundar kahani...

Manoj ने कहा…

The most dangerous story about Indian Muslims... I wish it is not inspired by Real events...

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