रविवार, 29 मई 2011

वादा


शांति की जब आँख खुली तो उसकी आँखों के आगे उसका जाना-पहचाना कमरा ही था। मगर उसके हृदय में एक अनजाना आतंक सा व्यापा हुआ था। ऐसा लग रहा था कि उसकी मृत्यु होने वाली है और जीवन का सारा ठोसपन उसके हाथों से पिघल कर फ़िसलता जा रहा है। उसे मालूम था यह वास्तविक न था, यह सब उठने के ठीक पहले देखा हुआ सपना था। सपने में एक दृश्य भी था और ध्वनि भी। लेकिन उठने के बाद शांति के भीतर सिर्फ़ एक एहसास शेष था- आने वाली मृत्यु के भय का एहसास। फिर भी सपने का वो आकारहीन एहसास जीते-जागते जगत के साकार और ठोस अनुभव पर भारी था।

मृत्यु के एहसास को मन से गिरा देने के लिए शांति अपनी देह को रोज़ाना की गतिविधि में डुलाने लगी। मगर वो एहसास नल की टोंटी से भी गिरता रहा। चाय के भगोने में भी उबलता रहा। गूलर के पेड़ पर बैठे काले कौवे में भी काँव-काँव करता रहा। पौधों को पानी देने जब बालकनी में गई तो सूरज उगने ही लगा था। ऊँची इमारतों की आड़ से लाल सूरज की आभा ने आते ही उस एहसास का बल हर लिया। और वो मन के किसी कोने में दुबक गया। शांति ने सूरज भगवान को नमस्कार किया और जीवन के उस शाश्वत स्वरूप को अपने हृदय में सुबह की ताज़ा हवा की तरह गहरे तक पी लिया।

सूरज के साथ आए उजाले में उसे दिन का पूरा आकार दिखने लगा। और तभी उसे अपने डर का का उद्‌गम समझ आया। घर और दफ़्तर के कामों के बीच आज उसे लैब से अपनी मेडिकल रिपोर्ट भी उठानी थी। कुछ रोज़ से उसे जो चक्कर आते रहे हैं उनके राज पर से आज पर्दा उठ जाना है। ये याद आते ही उसके भीतर कोने में दुबका हुआ डर फिर से विस्तार पाने लगा। सुबह के सपने के आतंक का फिर से सामना करने की हिम्मत नहीं हुई तो उसे भटकाने के लिए शांति ज़ोर-ज़ोर से किसी गाने को गुनगुनाने लगी। फिर भी असर न हुआ तो गरदन पर रखे सर को किसी बरतन की तरह खंगालने सी लगी मानो उन झटकों से डर छिटक कर बाहर जा गिरेगा। तभी अचरज की प्यारी पुकार आई मम्मी! और उसी पुकार में अपना बचाव पाकर वो जल्दी से अन्दर भाग गई।

पूरी सुबह घर में शांति ने एक पल भी अपने को अकेला नहीं छोड़ा। आने वाली रिपोर्ट में न जाने क्या होगा? न जाने कौन सी जानलेवा बीमारी का ऐलान होने वाला उसमें? इस बात को सोचना भी नहीं चाहती शांति। मगर शांति के मन में क्या चल रहा है अजय को कुछ नहीं पता। और उसने अपनी चिंता से प्रेरित हो कर पूछ ही लिया- आज तो रिपोर्ट आनी ही न तुम्हारी?
शांति की सांस रुक गई।
दो बजे बोला था न..? अजय ने फिर से पूछा।
शायद..
मैं लंच के बाद चला जाऊँगा..
नहीं-नहीं.. तुम रहने दो.. मैं ले आऊँगी..
वो अपने भय को अजय के आगे ज़ाहिर करते हुए भी डर रही थी।

घर से निकलते हुए सासू माँ के मन्दिर के आगे से गुज़री तो मन न जाने क्यों ठिठक सा गया। शांति पूजा नहीं करती। भगवान से कभी कुछ माँगती भी नहीं। लेकिन आज भगवान के आगे हाथ जोड़कर उसने अपनी परेशानी में भगवान का हस्तक्षेप माँग ही लिया। मन से मदद की गुहार लगाने के बाद एक भिखारी की सी भावना मन में पैर फैलाने लगी। उसे लगा कि बदले में उसे भी भगवान को कुछ देना चाहिये। तो मानो जैसे सौदा पक्का करते हुए शांति ने मन में अपने आप से वादा किया कि अगर भगवान उसे किसी भयंकर बीमारी से बचा लें तो वो अपनी एक प्यारी चीज़ का त्याग कर देगी।
**

लंच के पहले तक दफ़्तर में बहुत काम था। शांति को अपनी चिंता की बहुत याद नहीं आई। और जब आई भी तो साथ में भगवान से किए हुए सौदे की भी याद आई। लंच के बाद शांति का दिल धड़कने लगा। खाना खाते-खाते डेढ़ बज गया। और लैब जब पहुँची तो दो बजने में बारह मिनट बाक़ी थे। मगर आश्चर्यजनक रूप से शांति की रिपोर्ट पहले से ही रिसेप्शनिस्ट के पास आ चुकी थी। शांति ने काँपते हाथों और धड़कते दिल से खोलकर देखा। तमाम वैज्ञानिक नामों के आगे दशमलव वाले आँकड़े अंकित थे। जैसे कभी बिरजू ने सुक्खी लाला के हाथ से छीनकर अपनी ज़मीन के कागज़ों को उलट-पलट कर देखा था मगर कुछ भी न समझा था वैसे ही अवस्था शांति की भी हो रही थी। फ़ैसले का फ़रमान उसके हाथ में था फिर भी कुछ भी राहत की राह न मिलती थी। अपनी बेचैनी को वो भगवान से किए हुए लेन-देन की याद से मिटाने की कोशिश करती रही। आतंक और ईश्वर के बीच एक असमंजस की डोरी पर संतुलन करते हुए शांति ने सवा सात बजे तक इंतज़ार किया। ठीक सात बजे उसके आगे-आगे सीढ़ियां चढ़कर अजय ने तीसरे माले पर रहने वाले डाक्टर मण्डल की घंटी बजाई थी। दस मिनट तक डाकटर मण्डल एक दूसरे मरीज़ की दुविधा का हल बताते रहे और पाँच मिनट तक किसी तीसरे से फोन पर बतियाते रहे। और जब शांति की तरफ़ एक उदार मुस्कुराहट फेंकने के बाद जब उन्होने रिपोर्ट को लिफ़ाफ़े से निकालकर अपने उंगलियों से पलटना शुरु किया तो शांति के लिए जगत की सारी ध्वनियां सो गईं और हरकतें थम गईं। डाकटर मण्डल के मुखमण्डल के हावभाव पर ही उसका पूरा अस्तित्व केन्द्रित रहा। मगर उस में कोई बदलाव नहीं आया। डाकटर मण्डल ने रिपोर्ट को वापस लिफ़ाफ़े में डालते हुए बताया. आपको बेनाइन पराक्सीस्मल पोज़ीशनल वर्टिगो है..
मतलब?
मतलब.. इनर इअर का छोटा सा प्राबलम है.. बौडी का बैलेन्स बिगड़ जाता है। घबराने की कोई बात नहीं.. कुछ एक्सरसाइज़ेज़ बता देता हूँ वो कीजिये और टैबलेट्स लिख दे रहा हूँ वो खाईये..  
ठीक हो जाएगा?
बिलकुल..
यह बोलते हुए जब डाक्टर मण्डल की उदार मुस्कुराहट फिर से उनके चेहरे पर आई तो शांति को विश्वास हो गया कि उसे कोई जानलेवा बीमारी नहीं है। वो असमंजस, वो आतंक और दुविधा सब हो गई हवा। बालसुलभ उत्साह से डाक्टर से सर की कसरतें सीखीं, बिल्ली की चपलता से दो माले उतर आई, घर आकर जी भर कर खाया, बच्चों और पति से प्यार से बतियाया, चैन से सोई और भगवान से किए सौदे को मज़े से भूल गई।  

अगली सुबह जब उठी तो न तो स्मृति पर किसी डरावने सपने की आहट नहीं थी। एक उन्मुक्तता, एक निश्चिन्तता थी। पीने का पानी भरा। चाय बनाई। गूलर पर कौए समेत चहकती सभी चिड़ियों को सुना। सब में जीवन का स्पन्दन था। पौधों को पानी देते हुए उनके पत्तों को सहलाया और पाया कि जैसे उन्हे भी उगते सूरज की आभा का एहसास है। डाक्टर की बताई हुई कसरत की। और नाश्ते में खट्टे, मीठे, नमकीन, औरे तीखे हर स्वाद में उतरी और उन्ही के बीच टैबलेट्स भी गटक ली। शांति की सारी दुनिया प्यारी चीज़ों से भरी और पूरी थी। और भगवान से हुई सौदेबाज़ी की बात जैसे ही सर उठाती, हर प्यारी चीज़ छोड़ने के ख़्याल से ही और उस से चिपट कर कचोटने लगती। हारकर शांति ने अपने भीतर के भगवान को उमर के अगले पड़ाव तक मुल्तवी कर दिया। क्योंकि एक दिन तो सब कुछ छोड़ ही देना है!  
*** 

(इसी इतवार को दैनिक भास्कर में छपी)

2 टिप्‍पणियां:

मीनाक्षी ने कहा…

शांति के जीवन की छोटी छोटी बातों को खूबसूरत विस्तार देना मोह लेता है....पहले सखी से कट्टी और अब मेडिकल रिपोर्ट पर कथा की बारीकियाँ प्रभावित करती हैं..

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

मृत्यु के समय पूरा जीवन रील की तरह घूम जाता है।

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