क्रिस गेल ने जब तीसरा विकेट लेने के बाद अनायास जो नाच किया उस से उसके विशाल शरीर के भीतर जो एक ख़ूबसूरत दिमा़ग़ है उसका पता मिला। कितना आह्लादाकरी कितना मुक्तिकारी पल था वह। जिन्होने वह नहीं देखा वह कुदरत की एक निहायत अनुपम चीज़ देखने से वंचित रह गए। कुछ लोग इसे पढ़कर हो सकता है यू-ट्यूब पर उस पल की क्लिपिंग खोजना शुरु कर दें। और कुछ लोग हो सकता है मुँह बिचका कर कहें- क्रिकेट तो एक ब्राह्मणवादी-पूँजीवादी-बाज़ारी संस्कृतिबिद्ध-अंधराष्ट्रवादी- फ़ासीवादी-जनविरोधी वृत्तियों का ज़हरीला मेल है। आप हैरत करेंगे कि कोई ऐसा कैसे कह सकता है? मगर एक मूर्धन्य विद्वान हैं अभय कुमार दुबे जिन्होने कुछ ऐसे ही निष्कर्ष निकाले हैं। और वो कोई अकेले नहीं हैं चन्द लोग ऐसे और मिल जायेंगे जो ऐसा ही कुछ, या इससे भी आगे बढ़कर कुछ प्रस्तावित करने को तैय्यार बैठे हैं।
जब आई पी एल शुरु हो रहा था तो मैंने आशंका व्यक्त की थी कि कोई भला क्यों देखेगा इस तमाशे को? शहरों के आधार पर बनाई गई टीमों की प्रतिस्पर्धा- वो भी ऐसी टीमें जो ठीक-ठीक अपने शहर का प्रतिनिधित्व भी नहीं करती हों- को देखने में किसी की कोई रुचि क्यों होने लगी? मेरा अन्देशा था कि अयोजन बुरी तरह फ़्लाप होगा। लेकिन मेरा अन्देशा फ़्लाप निकला और आई पी एल सुपरहिट रहा। यहाँ तक कि अब मैं भी उसके दर्शकों में से हूँ। मैंने अपने आप से ही पूछा कि आख़िर क्यों देखता हूँ मैं? तो जवाब यही मिला कि खेलने और खेल देखने से मिलने वाले निर्मल आनन्द के लिए देखता हूँ। जब क्रिस गेल बेलौस छक्के मारता है या मलिंगा की तिरछी गेंद बरछी की तरह आकर बल्लेबाज़ की विकेट की बुनियाद में धंस जाती है तो वो दृश्य अद्भुत विस्मयकारी होता है। और सभी जानत्ते हैं कि सभी रसों में अद्भुत का विशेष स्थान है। अपने मन में इस आनन्द का लेपन करने वाला मैं अकेला नहीं हूँ। एक बहुत बड़ी जनसंख्या है जो इस सुख का पान कर रही है। पूछा जाना चाहिये कि क्या उन सब का मलिंगा या गेल के कौशल को देखकर आनन्द लेना एक जनविरोधी-अंधराष्टवादी-ब्राह्मणवादी-हिन्दूवादी-पूँजीवादी-फ़ासीवादी गतिविधि हैं?
क्रिकेट पर इस तरह के आरोप लगाने के आधार ये हैं कि भारत-पाक मैच होने दौरान ऐसे मौक़े आते हैं कि साम्प्रदायिक या राष्टवादी भावनाएं जाग उठती हैं और कुछ मीडियाकर्मी उसे सायास या अनायास भड़काते हैं। बड़े-बड़े सिद्धान्त चबाने वाले ये विद्वान ये भूल जाते हैं कि समाज में जो भी रोग होंगे वो सब समाज की सब चीज़ों में बिम्बित होंगे -उसके लिए क्रिकेट को अकेले दोषी ठहराने का अर्थ है? बुराई समाज से उपज रही है क्रिकेट से नहीं। साम्प्रदायिकता और राष्टवाद की जड़ें क्या क्रिकेट के खेल की संरचना में हैं? अगर कोई ऐसा समझता है तो आई पी एल की सफलता उसके लिए सबसे बड़ा जवाब है। क्रिकेट के आनन्द पर राष्ट्रीयताओं के जो दबाव अब तक बने हुए थे और बने हुए हैं भी, उनसे मुक्त एक क्रिकेट हाज़िर किया गया है हमारे सामने। और यह ‘निन्दनीय’ कारनामा किसने किया है उसी ‘गलीज़’ बाज़ार ने जिसे जनवादी और प्रगतिशील सोच बेहद ‘प्रतिगामी’ मानती है। [क्या बाज़ार की इस वास्तविक प्रगतिशीलता पर कुछ ग़ौर करने की कोई ज़रूरत नहीं? जिस जातिवाद को ख़त्म करने के लिए सारे जनवादी और प्रगतिशील आन्दोलन एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाकर संघर्षरत है, उसे बाज़ार अपनी स्वाभाविकता में पहले ही निर्मूल कर चुका है।]
क्रिकेट हमारे औपनिवेशिक आक़ाओं का खेल था। तब यह सिद्ध किया जा सकता था कि यह गुलामी की मानसिकता को और पुख़्ता करने का औज़ार है। मगर आज हम जानते हैं कि ऐसी सोच कितनी हास्यास्पद होती। ये वैसे ही है जैसे कोई कहे कलशनिकोव साम्यवाद फैलाने का हथियार है। या कोई दूसरा कहे कि नहीं कलशनिकोव तो इस्लामी आतंकवाद फैलाने का माध्यम है। अरे भाई कब तक चांद के बदले उंगली को देखते रहोगे? कभी तो चांद को देखो! क्रिकेट एक खेल है और सभी खेलों की तरह मानवीय वृत्तियों का सहज विस्थापन हैं। इसीलिए उनको अंग्रेज़ी में रिक्रिएशन या पुनर्रचना की कोटि में रखा जाता है।
मुश्किल क्या है हमारे समाज में एक तबक़ा है जो अपने आप को अतिक्रांतिकारी सिद्ध कर देने की बेचैनी से ग्रस्त है। यह तबक़ा हर जाति में है पर ब्राह्मण जाति में इसकी बहुतायत है। इनकी चेष्टाओं को देखकर मुझे प्राचीन भारत के अपने वो पूर्वज याद आ जाते हैं जो बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रभाव को गिरफ़्तार करने के लिए अपने आप को बौद्धों से भी बढ़कर अहिंसक और करुण सिद्ध करने को आतुर थे। जिस आतुरता में उन्होने यज्ञों में पशुबलि की प्राचीन वैदिक परम्परा को छोड़ दिया। और गो-माता की पवित्र कल्पना पर खड़े होकर अपने धर्म की पुनर्व्याख्या कर डाली। आज के इस दौर में पूरे ब्राह्मण समाज पर दबाव है कि वह स्वयं को प्रगतिशील और जनतांत्रिक साबित करे या लगातार हो रहे हमलों की मार झेले। तो हमारे चतुर बन्धु अपने चतुर पूर्वजों की तरह पाला बदल कर ब्राह्मणवाद पर हमला करने वालों में शामिल हो गए हैं। और वो बाक़ियों से बढ़-चढ़ कर हमले करते हैं ताकि अपनी ईमानदारी सिद्ध कर सकें। अपनी अतिक्रांतिकारिता के इस अभ्यास में वो अपने आप को जितना तोड़ते-मरोड़ते हैं उससे कहीं अधिक वो सच्चाई को तोड़ते-मरोड़ते हैं। इसलिए ऐसे विद्वानों की प्रस्थापनाओं से थोड़ा सावधान रहने की ज़रूरत है।
मित्रों की सुविधा के लिए क्रिस गेल की क्लिपिंग यह रही!
2 टिप्पणियां:
वर्ल्ड कप की जीत के बाद क्रिकेट का ओवोरडोज़ ना हो जाए इसलिए टुकड़ों में ही ये प्रसारण देखता हूँ। जब काँटे की टक्कर होती है। या गेंदबाज और बल्लेबाज अपनी कला का ज़ौहर दिखलाते हैं तो निश्चय ही मज़ा आता है। मेरे लिए सबसे खुशी का क्षण वो रहा जब मैंने ईशांत शर्मा का पाँच विकेट लेने वाला स्पेल देखा। पिछले साल के मामूली प्रदर्शन के बाद उनका इस तरह लय में लौटना सुखद लगा।
मुझे लगता है कि IPL की वज़ह से भारतीय खिलाड़ियों के क्षेत्ररक्षण के स्तर में सुधार हुआ है और नए अनजाने खिलाड़ियों को प्रतिभा दिखाने का मौका मिला है। पर प्रतिष्ठित खिलाड़ियों का अपने राष्ट्रीय टीम को तरज़ीह ना देकर IPL के लिए खेलना विश्व क्रिकेट के लिए चिंता की बात है। ICC और IPL के कैलेंडर आपस में भिड़े नहीं इस बात का ख्याल रखना होगा। इसके लिए साल में सिर्फ एक बार ही इस लीग का आयोजन होना चाहिए। टेस्ट क्रिकेट में मेहनत अधिक है और पैसा कम है पर क्रिकेट खेलने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि कोई खिलाड़ी कितना अद्भुत है ये टेस्ट क्रिकेट में उसके प्रदर्शन से ही पता चलता है।
साथ ही IPL से जुड़ी जो और ख़ामियाँ हैं लोगों को उससे भी आँखें नहीं मूँदनी चाहिए। आजकल मुंबई इंडियन्स की की चीयरलीडर्स के निष्कासन संबंधित जो खबरें आ रही हैं उस पर BCCI को कड़ा रुख अपनाना चाहिए।
जो निर्मल और निर्विघ्न आनन्द दे वह श्रेष्ठ।
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