जब शाम को शांति दफ़्तर से घर पहुँची तो बहुत थक चुकी थी। वो बस खाना खा के सो जाना चाहती थी। अजय को भी आते-आते देर हो गई थी। शाम को एक साथ खाना खाने की योजना में लगातार कोई न कोई विघ्न पड़ता ही रहा है। इस शाम भी दोनों बच्चे शांति के आने के पहले ही खाना खाने का अनुष्ठान टीवी के सामने पूरा कर चुके थे। और मम्मी की किसी भी तरह की फटकार से अपने आप को सुरक्षित करके कल क्लासरूम में टीचर की फटकार से अपने को सुरक्षित करने के लिए होमवर्क करने में जुटे हुए थे। अजय के मन में एक बार आया कि खाने की मेज़ से उठकर एक बार मैच का स्कोर देख ले। फिर उसने शांति की ओर देखा। वो उसी की तरफ़ देख रही थी। लेकिन उन आँखों में आम तौर पर बसने वाली चपलता नहीं थी। वे बोझिल हो रही थीं। शांति ने कहा, ‘बहुत थक गई हूँ..’
‘चलो सो जाते हैं’, कहते हुए अजय ने अपनी प्लेट वाशबेसिन तक पहुँचा दी। और फिर ब्रश करने बाथरूम चला गया। शांति ने भी अपनी प्लेट उठाई और वाश बेसिन में जाकर रख दी। वाश बेसिन में बर्तन गँजे पड़े थे। बहुत समझाने के बाद भी अजय और बच्चे प्लेट में जूठन छोड़ने की आदत में सुधार नहीं ला सके थे। बेसिन में पड़ी प्लेटों की जूठन उनकी चुगली कर रही थी। शांति ने एक-एक प्लेट से जूठन निकालकर बेसिन के नीचे रखी डस्टबिन में डाली। तमाम कचरा डस्टबिन से बाहर गिरा हुआ था। कल कचरा देते हुए किसी को इसे डब्बे में डालने का ख़्याल नहीं भी आ सकता है, यह सोचकर शांति ने उस कचरे को उसका उचित स्थान प्रदान किया। बच्चों ने सब्ज़ी निकालते हुए कुछ चूल्हे पर और कुछ प्लेटफ़ार्म पर भी गिरा दिया था, उसे पोतने से साफ़ किया। चीनी का डिब्बा शायद अजय ने चाय बनाने के बाद कैबिनेट से बाहर ही छोड़ दिया था, उसे अन्दर रखा। दूध भी फ़्रिज के बाहर चूल्हे पर ही छोड़ दिया था। दूध देखकर शांति को याद आया कि दही ख़तम हो गया है, कल के लिए दही भी जमाना होगा। चूल्हे पर रखे दूध को गुनगुना करने के लिए उसके नीचे गैस जला दी। अजय ने बैडरूम से पुकारा, ‘क्या कर रही हो, आ जाओ!’
‘बस आ रही हूँ..’
जब दूध गरम हो रहा था शांति वापस खाने की मेज़ पर आई और अचार के खुली हुई बोतलों को बंद किया, टेबलमैट्स को धुलने की टोकरी में डाला। बची हुई सब्ज़ियों को छोटे डब्बे में बंद करके फ़्रीज के अन्दर रखा। मेज़ पर रखा पपीता थोड़ा सा कच्चा दिख रहा था। कल सुबह अजय को खाने में कच्चा न लगे, यह सोचकर उसे अख़बार में लपेट कर रखा ताकि कल सुबह तक ठीक से पक जाय। बहुत दिनों से बच्चे दोसा खाने की ज़िद कर रहे थे। तो उसके लिए दाल-चावल भिगा दिए। इतना करने के बाद जब दूध के भगोने को हथेली के पिछले भाग से छुआ और तय पाया कि दही के कीटाणुओं के पनपने लायक़ गरम हो गया है तो गैस बंद करके दूध को कटोरे में रखे जामन के साथ अच्छी तरह मिला दिया।
सासू माँ के कमरे दरवाज़ा खोलकर शांति ने उनकी साँस की आवाज़ पर ध्यान दिया। वो सामान्य चल रही थी। वापस अपने बैडरूम की तरफ़ जाते हुए उसने देखा कि टीवी स्टैण्डबाई पर है। उसे प्लग से औफ़ किया। सेन्टर टेबल पर पड़े बासी अख़बार को टेबल तह करके टेबल के नीचे रखा। वहाँ रखे अचरज के जूते उठाये, जूते के बाहर पड़े मोज़े उठाए, उन्हे जूतों के भीतर डाला और फिर ले जाकर जूतों की रैक में रख दिए। अपने कमरे में जाने से पहले एक बार बच्चों को देखने की इच्छा हुई। दोनों बच्चे सो चुके थे मगर लैम्प जला हुआ था। लैम्प बुझाने से पहले शांति ने पाखी के कलम का कैप बंद किया। कौपी और किताबों को करीने से मेज़ पर रख दिया। फ़र्श पर पड़े हुए अचरज के बेब्लेड और बैन्टैन के कार्ड्स को उठा कर उसकी अलमारी में रख दिया। दोनों बच्चों के कपड़े कुछ फ़र्श पर थे और कुछ उनके बिस्तर पर। अचरज का मुँह हमेशा की तरह खुला हुआ था। बहुत कोमल हाथ से उसने अचरज की ठोड़ी को नाक की तरफ़ धकेला लेकिन वो फिर नीचे सरक आई। उस थकान में भी उसे अपने बच्चों पर बहुत प्यार आया। दोनों को बहुत हौले से चूमने के बाद और मैले कपड़ों को अपने हाथ में लेने के बाद ही शांति ने लैम्प बुझाया और दरवाज़ा बंद कर के बाहर आ गई।
‘अरे कहाँ हो?’ अजय की डूबती हुई सी आवाज़ आई।
‘बस आ गई..’ शांति ने इतनी हौले से बोला कि बच्चे भी न जगें और अजय सुन भी ले।
मैले कपड़ों को टोकरी में डालने के बाद दाँतों को ब्रश करते हुए उसे याद आया कि शब्बो के दो मिस्ड कौल थे। उसने एक सांस भरी और अपने ज़ेहन में एक गाँठ बाँधी ताकि उसे कल शब्बों को फोन करना याद रहे। फिर उसे याद आया कि उसके मोबाईल की बैटरी काफ़ी कमज़ोर पड़ गई है। वो भी नई ख़रीदनी है। पाखी एक हैडफोन लेने को कह रही थी। उसके अपने लैपटाप का एन्टीवायरस एक्सपायर कर गया है, उसे रिन्यू कराना है। इसके पहले कि वो सब भूल जाय शांति बाथरूम से निकल कर रसोई में गई और फ़्रिज से लटकते पैड और पेन का इस्तेमाल करके इन तीनों कामों की सूची दर्ज कर दी। जब शांति बैडरूम में वापस आई तो अजय खर्राटे भर रहा था। शांति को अजय के खर्राटों से सख़्त चिढ़ है मगर डरती भी है कि कहीं कोई गम्भीर बीमारी न हो। अगले इतवार को डौक्टर के पास लेके जाना ही होगा अजय को, चाहे वो कितना ही प्रतिरोध क्यों न करे!
यह सोचते हुए शांति ने बैडसाइड टेबल में से पहली एक तरह की क्रीम निकाली और हाथों-पैरों में लगा ली। फिर एक दूसरी क़िस्म की क्रीम निकाली जो चेहरे पर लगा ली और उसके बाद एक छोटा सा डिब्बा निकाला। उसमें तीसरी तरह की क्रीम थी, उसे शांति ने अपनी आँखों के नीचे लगा लिया। लैम्प के बगल में ही उसने अधूरे उपन्यास पर नज़र डाली। ‘नहीं, आज बहुत थक गई हूँ, आज आराम करती हूँ’, यह सोचकर शांति ने उपन्यास से दिलबहलाव का ख़्याल निकाल दिया और लैम्प बुझा दिया। क्योंकि कल सुबह पौने छै पर दूधवाला जगाने ही वाला है।
[१३ मार्च को दैनिक भास्कर में छपी।]
4 टिप्पणियां:
जीवन की छोटी छोटी बातों में उलझा जीवन का बड़ा प्रश्न। प्रसन्नता क्या है?
दिलचस्प और अच्छी कहानी...बधाई।
जीवन में संबंधों के धागों में बुनी बेहतरीन कहानी......
बहुत छोटी छोटी बातों को बखूबी विस्तार दिया है...बिस्तर पर जाने से पहले के कितने ही छोटे छोटे काम सचित्र आँखों के सामने आ गए...क्षमा करें एक छोटी सी बात नज़र में आ गई..आँखों की क्रीम दूसरे नम्बर पर होनी चाहिए थी..
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