जाहिल की हद तक अ-सुरुचिसम्पन्न साबित होने के जोखिम पर मैं यह कह रहा हूँ कि अनीश कपूर का काम मेरे भीतर किसी भी प्रकार का कोई कलात्मक अनुभव पैदा करने से नाकामयाब रहा। दुनिया भर में जिसके विरदगान गाए जाते हों ऐसे ‘कलाकार’ के एहतराम का ख़याल करते हुए शायद इसे पलट कर कहना माक़ूल हो कि मैं अनीश कपूर के काम के आगे बेहिस बना रहा। एक तोप जो हर पांच-सात मिनट पर लाल रंग का मोम के गोले बरसाती है- एक उसे छोड़ बाक़ी का कुछ भी, कोई नाटकीय प्रभाव भी पैदा न कर सका मेरे लिए। हाय! मैं अभागा! मेरे हतभाग्य!!
ऐसे मौक़े पर आदमी अपने आप से बड़े मौलिक क़िस्म के वार्तालाप में मुब्तिला हो जाता है.. “कला क्या है..? रंग क्या है..? आकार क्या है..? जीवन क्या है..?” और कलाकार की कुशादा नज़रिये और उसको मुहय्या कर दिये गए कुशादा वसीलों से निखर कर आई कला का अपने लिए तरजुमा करने लगता है.. “इस कला का रंग लाल है.. लाल रंग ख़ून है.. ख़ून हिंसा है..हिंसा की भर्त्सना कर रहा है कलाकार..” या कुछ यूं कि “..सच हमेशा सीधा होता है.. लेकिन आईना कभी सीधा, कभी टेढ़ा-मेढ़ा होता है.. ये कला आदमी का आईना है..”
लेकिन उसी आदमी के भीतर एक बेहद अहमक़ कैफ़ियत का आम आदमी होता है जो ऐसे किसी भी तर्कश्रंखला पर ईमान लाने से इंकार कर के ख़ुदमुख़्तार होने का ऐलान करना चाहता है.. सुरुचिसम्पन्न बनने के जो हैं ख्वाहिशमंद, उन्हे चाहिये कि ऐसे आम आदमी की शोरिशी मन्सूबों को ज़ब्त कर के रखें और ताकि भद्रलोक में अपना सर उठा कर चल सकें..
नहीं तो वो आप से पूछने लगेगा कला की आत्मा को आहत करने वाले से कुछ बेहूदे सवाल जैसे कि पचास हज़ार रोज़ाना तक के किराये वाले महबूब स्टूडियो में लगभग पचास रोज़ तक, तक़रीबन पचास लोगों को नौकर रख कर जनता के आगे ऐसे कलात्मक अनुभव, इस बाज़ारूयुग में फ़्रीफ़ण्डिया हाज़िर करने के लिए कौन जेब ढीली कर रहा है? और क्यों?
9 टिप्पणियां:
आप अपने शहर (मुंबई) में लगी इनकी प्रदर्शनी की बात कर रहे हैं?
!! ? !!
shaayad
maiN hi naheeN samajh paya
@@लेकिन उसी आदमी के भीतर एक बेहद अहमक़ कैफ़ियत का आम आदमी होता है जो ऐसे किसी भी तर्कश्रंखला पर ईमान लाने से इंकार कर के ख़ुदमुख़्तार होने का ऐलान करना चाहता है.. सुरुचिसम्पन्न बनने के जो हैं ख्वाहिशमंद, उन्हे चाहिये कि ऐसे आम आदमी की शोरिशी मन्सूबों को ज़ब्त कर के रखें और ताकि भद्रलोक में अपना सर उठा कर चल सकें....
-------एक दम सही है.
कला की नई परिभाषायें।
मोडर्न आर्ट गैलरी में जाने पर कुछ ऐसा ही अनुभव होता है मुझे भी. कभी कभी जाता हूँ छुट्टी के दिन हर बार आस लेके कुछ समझ में आ जाए शायद.
हम मोटी बुद्धि वाले हैं,यह सब नहीं बुझाता...मूडी खजुआ के बाहर आ jaate हैं...
हमारे हाईस्कूल के हिन्दी के मास्साब कहा करते थे की नयी कविता और मॉडर्न आर्ट वो होता है, जो किसी को समझ न आये और सब ये ढोंग करें की उन्हें ही समझ आ रहा है. खैर नयी कविता के बारे में तो ये धारणा काफी हद तक बदली है, लेकिन आर्ट में कायम है. वैसे भी किसी भव्य गैलरी में जाने की न अपनी औकात है न टाइम और न रूचि... भाई अभी तक तो मुझे यथार्थवादी कलाकृतियाँ ही पसंद आती हैं. यहाँ आप से पूरी तरह सहमत हूँ.
mera bhi blog visit karen aur meri kavita dekhe.. uchit raay de...
www.pradip13m.blogspot.com
किसी भी चीज को समझने के लिए उसकी पध्राई करनी पडती हे जेसे किसी भी भस्य को समझने के लिए उसे पढ़ना पढ़ता हे आर्ट को भी समझाने के लिया उसे पढना पड़ना हे
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