कुछ नहीं खलता मुझे मैं कौन हूँ
सूरते हैरत हूँ या शक्ले जुनूँ
इश्क़ है सरमायाए दीवानगी
सिह्र१ कब पाता है उसको और फ़ुसूँ२
आहो नाला ने मुझे रुस्वा किया
वरना पिन्हा३ था मेरा राज़े दरुँ४
गर ना बहते लख़्ते दिल५ आँखों की राह
रंगे अश्क ऐसा न होता रश्के खूँ
हुस्ने जानां जलवागर हर शै में है
दीद में अपने नहीं कोई ज़बूँ६
कौन पा सकता है मुझ गुमगश्तः७ को
दीन ढूंढे है आ के या दुनियाए दूँ८
जिस ने पहचाना है अपने आप को
है ‘नियाज़’ अपने क़दम पर सर निगूँ९
१. जादू
२. इन्द्रजाल
३. छिपा हुआ
४. दिल का राज़
५. दिल के टुकड़े
६. दूषित
७. खोया हुआ
८. अधम, नीच
९. सर झुकाए हुए
6 टिप्पणियां:
मुझे भी स्वयं का होना कभी नहीं खला।
वल्लाह....ये मूड बना रहे
बहुत खूबसूरत.
गजब की शायरी। आभार। यदि शब्दार्थ यहाँ उपलब्ध न होते थोड़ी मुश्किल हो सकती थी।
वाह वाह वाह....
यह नया रंग देखा...
कृपया इस तरह की नायाब कृतियाँ बीच बीच में पढवाते रहिएगा ....
बहुत
बहुत खूबसूरत कलाम
वाह !!
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