रविवार, 14 मार्च 2010

आदमी की औरत और अन्य कहानियां

शनिवार की शाम को अमित दत्ता की फ़िल्म ‘आदमी की औरत और अन्य कहानियां’ देखने का अवसर हुआ। अमित दत्ता की पिछली छोटी फ़िल्में ‘क्षत्रज्ञ’ और क्रमशः’ मैं ने देख रखीं है। इसके अलावा अमित ने एक और छोटी फ़िल्म ‘का’ भी बनाई है, वह भी मैंने देखी है। अमित के शिल्प की बहुत चर्चा होती रही है। तमाम लोग उनकी तुलना मणि कौल और कमल स्वरूप के साथ करते रहे हैं। जब मैंने इस फ़िल्म के बारे में पहले-पहल सुना था तो ही जिज्ञासा उग गई थी। वो सामान्य से अधिक बलवती इस कारण भी थी क्योंकि ‘आदमी की औरत और अन्य कहानियां’ की तीन कहानियों में दो मेरे प्रिय लेखक विनोद कुमार शुक्ल की हैं और तीसरी मेरे एक और प्रिय लेखक सआदत हसन मंटो की।


चूँकि मैं अमित के शिल्प से परिचित था तो मेरी उम्मीद किसी तरह का लीनियर नैरेटिव देखने की क़तई नहीं थी। बावजूद इस तैयारी के मैं अमित दत्ता की फ़िल्म से निराश हुआ। उसकी एक से अधिक वजहें हैं।
कहानियों पर बनी फ़िल्मों को हमेशा इस सवाल का सामना करना पड़ता है कि किस हद तक निष्ठा निभाई जाय? हर फ़िल्मकार के लिए निष्ठा की परिभाषा और उसकी हदें दोनों अलग होंगी। अमित की सोच में न सिर्फ़ इस मामले में काफ़ी रूपवादिता नज़र आई। संवादों और घटनाओं के साथ तो उसने अधिक छेड़छाड़ न की मगर चरित्रों की भावना और कथा की आत्मा के प्रति वो, मेरी उम्मीद है कि अनचाहे तौर पर, ईमानदारी नहीं निभा सके।

अमित ने अपने छोटे करियर में ही अपना एक स्टाइल, एक अंदाज़ विकसित कर लिया है। लोग उसे पहचानने लगे हैं। एक कलाकार के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है कि आप को एक ‘स्वरूप’ हासिल हो जाय जिसमें ढाल कर आप अपनी शराब लोगों को पेश करते रहें। मगर इस स्टाइल की मुश्किल भी होतीं हैं और ये एक हासिल की जगह बन्धन भी बन सकता है। ये मुश्किल और भी जटिल तब हो उठ सकती है जब आप की बोतल में स्वरूप ही स्वरूप रह जाय और शराब ग़ायब हो चले। लोग बोतल के कांच के रंग, आकार और ढलाई की तो तारीफ़ करें मगर न गला तर हो और न नशा हो? भगवान न करे कि अमित का स्टाईल इस अंजाम तक पहुँचें लेकिन इस की आशंकाएं हैं।


‘आदमी की औरत और अन्य कहानियां’ फ़िल्म में पहली कहानी है ‘पेड़ पर कमरा’। जिन्होने भी यह कहानियां पढ़ी है वे इसके मुरीद हैं। शहर की कचर-मचर के भीतर प्रकृति के साथ एक बीहड़ कि़स्म का रिश्ते बनने की कहानी है। एक कमरा है जिस की बिना सीखचों और पल्लों की खिड़की से सटी एक पीपल की एक मोटी सी डाल है। जिस से होकर गिलहरियां कमरे में और लेखक के मन में घुसी चली आती हैं। प्रकृति के साथ जो तादाम्य और संघर्ष का रिश्ता आदमी का है उसी के आयामों को खोलती हुई कहानी है यह।

फ़िल्म में गिलहरियों के नाम पर सफ़ेद चूहें हैं, चीलों के नाम पर सफ़ेद कबूतर। कमरा इतना संकरा है कि उसे देख कर घुटन होती है। खिड़कियां एक नहीं चार हैं। पेड़ की शाख़ और कमरा अलग-अलग ही बने रहते हैं; कहीं से भी यह भाव बनता ही नहीं कि ‘पेड़ पर कमरा’ है। ये सारी बातें क्षम्य हैं क्योंकि फ़िल्म ‘फ़ि टे इ इ, पुणे’ के अभिनय कोर्स के विद्यार्थियों के लिए सीमित साधनों में बनाई गई है और नियमों के अनुसार पूरी तरह संस्थान के अन्दर शूट की गई है। लेकिन यह ऊपरी बाते हैं। मूल मसला आत्मा का है, भावना का है।

अमित का शिल्प आप को चरित्र की भावना में गिरने ही नहीं देता, कहानी की आत्मा में उतरने ही नहीं देता। फ़िल्म माध्यम के अलग-अलग तत्व, अलग-अलग दिखाई देते रहते हैं। शाट अलग नज़र आता है, चिड़ियों की आवाज़ें अलग सुनाई पड़ती हैं। अभिनेताओं के चेहरे पर आते-जाते भाव अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं। शाट कहाँ कट हुआ आप नोटिस करते हैं। सब कुछ पारा-पारा होकर हवा में झूलता रहता है। कहानी का तारतम्य नहीं बनता, कोई नैरेटिव नहीं बनता।*


क्या अमित से यह ग़लती से हो गया है? नहीं, अमित ने जो कुछ किया सब सायास है, डेलीबिरेट है। फ़िल्म कला के विमर्श में पिछले सालों शिल्प के कनर्वजेन्स को तोड़ने की, तत्वो की एकता की दादागिरी को ख़त्म करके अनेकता को जगह देने की बातें होती रही हैं। ऐसा मालूम देता है अमित परदे पर किसी बात को उकेरने के पहले से स्थापित तरीक़ों को नकार रहा है और एक नया रस्ता ले रहा है। इस प्रयोगधर्मिता में बात अक्सर कुछ की कुछ हो जा रही है और दर्शक तक पहुँचने के पहले ही कहीं खो जा रही है। ऐसी प्रयोगधर्मिता से मुझे कोई ऐतराज़ नहीं अगर वो किसी दूसरे के कलाकर्म/कहानी को अपनी प्रयोग के अनुष्ठान में बलि नहीं दे रही। विनोद जी कहानी के साथ इस तरह की अनुशासनहीनता मुझे नहीं रुची।

मणि कौल ने भी विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास 'नौकर की कमीज़' पर फ़िल्म बनाई है। उसे देखते हुए मुझे निराशा हुई कि फ़िल्म, उपन्यास का काफ़ी खुदरा रूप बन कर सामने आती है। मगर वो फ़िल्म विनोद कुमार शुक्ल के कृतित्व के प्रति ईमानदार है, कोशिश करती है कि उनकी भाषा की महीन बिनाई को दर्शक तक पहुँचाए। लेकिन अमित, विनोद जी की कथा और दर्शक के बीच अपनी बुनावट से कुछ अधिक ही व्यवधान पैदा कर देते हैं।

वैसे अमित अपने स्टाईल के प्रति अनुशासनबद्ध ही रहे, उसकी हदों को नहीं लांघा उन्होने। दूसरी कहानी ‘आदमी की औरत’ भी विनोद जी के कथा संग्रह ‘महाविद्यालय' से है। कहानी के साथ कुछ आज़ादी लेते हुए उसका शिल्प पहली कहानी से कुछ जुदा बनाया अमित ने लेकिन अपने मौलिक अंदाज़ से बहुत हिले नहीं। जो शिकायतें मैंने ऊपर दर्ज की हैं उनसे यह टुकड़ा भी अछूता नहीं था, लेकिन इस के तत्व इतने विखण्डित नहीं थे। फिर भी कहानी के भीतर मौजूद कई पहलू परदे पर आने से रह जाते हैं। शायद इसलिए भी कि यह पहला अवसर है कि जब अमित ने अभिनेताओं के साथ काम किया है।


तीसरी कहानी ‘ १०० कैन्डल पावर का बल्ब’ ही फ़िल्म की ठीक-ठाक और मुकम्मल कहानी मालूम देती है। उसके बारे में दो बातें हैं। एक तो यह कि मैंने वह कहानी पढ़ी नहीं है तो फ़िल्म का वह अंश किसी भी तरह की तुलना से स्वतंत्र है। और दूसरे यह कि परदे पर देखने से ऐसा लगा कि उस कहानी के भीतर विनोद कुमार शुक्ल जैसे महीन आयाम कम हैं और सेक्स. वेश्यावृत्ति और हत्या जैसे तत्व होने के कारण उसका कथ्य शिल्प के रूपवादी आग्रह में अटकता नहीं। और भी बहुत बाते हैं लेकिन उस विस्तार में जाने की कोई ज़रूरत नहीं है।


जो भी हो, ये मेरी राय है। सुना गया है कि लोग इस फ़िल्म को हाथो-हाथ ले रहे हैं और वेनिस फ़िल्मोत्सव में यह क्लोज़िंग फ़िल्म रही और इसे स्पेशल मेंशन भी हासिल हुआ।** भारतीय फ़िल्मों में इस से पहले यह सम्मान १९३६ की शेख़ फ़त्तेलाल की संत तुकाराम और सत्यजित राय की अपराजितो को ही हासिल हुआ है। अमित दत्ता जैसे फ़िल्मकार कम हैं जो बात को कहने के नई तरीक़े खोजते हैं, और सिनेमाई तत्वों के आपसी सम्बन्ध और उनकी सापेक्षिक आज़ादी के बारे में चिंता करते हैं। मेरी इस आलोचना के बावजूद मेरी शुभकामनाएं और उम्मीदें उनके साथ हैं।




* फ़िल्म न तो तस्वीरों का माध्यम है न आवाज़ों का। कितनी भी आवाज़ और मोहक तस्वीरें जोड़कर आप एक असरदार फ़िल्म नहीं बना सकते। जबकि इसका उलट अकसर होते देखा गया है। दीवार जैसी फ़िल्म को आप क्या कहेंगे? या अभी हाल की थ्री ईडियट्स -उस फ़िल्म से मेरी आपत्तियां दरकिनार- भी एक माक़ूल मिसाल है। जैसे कहानी टाईम का फ़ंक्शन है वैसे ही फ़िल्म भी अपने मौलिक रूप में टाईम का ही फ़ंक्शन है।

**विदेशी सिनेमा को देखने की नज़र अलहदा होती है और अपने समाज में धंसी हुई फ़िल्म को देखने का अनुभव अलहदा। अकसर अनजान समाज की फ़िल्में एक ए़क्ज़ोटिका के बतौर काफ़ी आकर्षक हो जाती हैं। उनके मीन-मेख निकाल सकने की क़ुव्वत हमारे पास नहीं होती, वो एक सच्चाई का अक्स नहीं बल्कि एक स्वतंत्र सच्चाई के रूप में खड़ी हो जाती हैं। आजकल यह असर अपनी फ़िल्मों को लेकर भी हो गया है लेकिन फिर भी उस की आलोचना सम्भव है।

5 टिप्‍पणियां:

बोधिसत्व ने कहा…

इन फिल्मों से परिचय कराने के लिए हम आपके आभारी हैं....निर्मल आनन्द का यह रूप अच्छा लग रहा है...

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

अच्छा रहा परिचय..

अजित वडनेरकर ने कहा…

साफ़गोई से लिखी समीक्षा।

Akanksha Yadav ने कहा…

बढ़िया समीक्षा..सुन्दर प्रस्तुति..बधाई.

मनोरमा ने कहा…

आपके ब्लाग पर अक्सर आना होता है, अच्छा लगता है यहां आकर, आपके मार्फत वैसी फिल्मों के बारे में जानने आैर पढ़ने को मिलता है जिन तक हमारी पहुंच नहीं है।

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