रविवार, 8 नवंबर 2009

वसुधैव कुटुम्बकम?

दुनिया भर में फैले हुए प्रवासी भारतीय हिन्दुओं को यदि उन देशों के बहुसंख्यक लोग गोमांस खाने पर मजबूर करने लगे तो उन्हे कैसा लगेगा। यदि वो अपनी मरजी से ऐसा करते हैं तो किसी को कोई आपत्ति क्यों होगी लेकिन यदि उन पर यह बाध्य कर दिया जाय कि यदि उस देश में रहना होगा तो गोमांसाहारी बनना होगा तो उन को कैसा महसूस होगा और आप को कैसा महसूस होगा? *

भारत में मुसलमान तेरह चौदह सौ साल से रह रहे हैं। कोई भारतीय मुसलमान विदेशी नहीं है, इस भूमि पर उसका भी इतना ही हक़ है जितना कि किसी और का। वे अपने वतन को किस तरह से प्यार करेंगे और किस तरह उसका प्रदर्शन करेंगे यह तय करने वाला कोई और नहीं वे खुद होंगे। यदि कोई दीनी तंजीम यह तय करती है कि यह गीत उनके धर्म के आड़े आता है और वे वन्दे मातरम का गान नहीं करना चाहते तो इसमें किसी को ऐतराज़ कैसा?

यह गीत देशभक्ति का कोई पैमाना नहीं है। देशभक्ति की आड़ में देशवासियों से नफ़रत करना यह कैसी नीति है? इस गीत को गाने से या न गाने से देश का क्या हानि-लाभ हो जा रहा है? यह कोई मुद्दा ही नहीं है। इस बात पर विवाद करना वितण्डा खड़ा करना और साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़काने की साज़िश है।

हर धार्मिक व्यक्ति साम्प्रदायिक नहीं होता, जैसे कि हर साम्प्रदायिक व्यक्ति धार्मिक नहीं होता (आडवाणी जी इस का सबसे बड़ा प्रमाण हैं)।

वसुधैव कुटुम्बकम का नारा देने वाले पहले देश के लोगों के साथ कुटुम्ब के सदस्यों के तौर पर सम्मान करना सीखें, ये हिटलरी नीति छोड़ें और विचारों और मान्यताओं के वैविध्य के लिए जगह बनाएं।

(जन गण मन और वन्दे मातरम पर यहाँ और पढ़ें!)

* यह प्रवासी का उदाहरण इसलिए दिया है कि वे भारत में बहुसंख्यक और किसी भी अन्य देश में पहले प्रवासी है फिर अल्पसंख्यक।

32 टिप्‍पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

भाई! आप किसी से कुछ कहलवा भी लें तो क्या फर्क पड़ता है। जैसे गैलिलियों से धरती को चपटी कहलवा लेने से वह चपटी नहीं हो गई।
धार्मिक झगड़े क्यों उठाए जाते हैं? लोग जानने लगे हैं कि उन की रोटी महंगी हो गई है यह बात शोर में दब जाए।

Amrendra Nath Tripathi ने कहा…

संतुलित विचार है और प्रौढ़ भी
अच्छा है

अफ़लातून ने कहा…

स्पष्ट और ताकतदायक ।

रामकुमार अंकुश ने कहा…

समझ से परिपूर्ण, विचारात्मक पोस्ट..

संजय बेंगाणी ने कहा…

ताकतवर है वियाग्रा जैसा.

मुसलमान इस देश के है. कौन इनकार करता है? सबसे पहले इनकार मुसलमानों ने ही किया और देश टूटा. क्या मैं गलत हूँ. हाँ आप जैसा बुद्धीजीवि नहीं हूँ जो जलेबी जैसी भाषा में लिख सके.

कल को कहा जाएगा, तिरंगा हमारा झंडा नहीं है इस्लाम विरूद्ध है क्यों कि इसमें केसरीया रंग भी है और बौद्ध धर्म चक्र भी.

देश के प्रतिक चिन्ह है, गीत हो, गान हो की झंडा हो....मानो तो गर्व है नहीं तो कपड़े का टूकड़ा.

जो प्रतिकों का सम्मान मात्र धर्म के आधार पर नहीं करते उनके लिए एक ही शब्द है. धिक्कार है.

मनीषा पांडे ने कहा…

बेंगाणी जी, आपके जैसे उत्‍तम विचारों के कारण ही तो देश इतनी उन्‍नति कर रहा है।

Arvind Mishra ने कहा…

तिवारी जी अनावश्यक रूप से लफ्फाजी न करके केवल सरल शब्दों में कोई मुसलमान या आप ही उनकी तरफ से केवल यह बता दें -वन्देमातरम यह कौम क्यों नहीं गा सकती ? मैं यह बात आपके मुंह से सुनना चाहता हूँ ! आप जैसे क्षद्म सेक्यूलरों के ही चलते हमारे वंशधर घोर दुःख भोगने को अभिशप्त है -आज कश्मीर कल पूरा देश ! लानत है आप जैसे चिंतको पर !

ab inconvenienti ने कहा…

यानि सन नब्बे तक के सौ सालों में वन्दे मातरम गैर इस्लामिक नहीं था, 'वन्दे मातरम' जय हिंद या इन्कलाब जिंदाबाद जैसा ही सर्वमान्य कौमी नारा बन चुका था तब कोई दारुल उलूम इसके विरोध में आगे नहीं आया! आज़ादी के आन्दोलन के समय किसी उलूम को इस गीत को गैर इस्लामी करार देने का ख्याल नहीं आया?

क्या वन्दे मातरम के खिलाफ किसी ऐसे फतवे का उदहारण दे सकते हैं जो आजादी के आन्दोलन के समय दिया गया हो. तब तो गाँधीवादी मुस्लमान और अशफाकउल्ला जैसे क्रन्तिकारी भी इसे हिन्दुओं के साथ गाया करते थे.

एकदम से यह मुसलमानों के लिए हराम कैसे हो गया? और क्यों?

आप खुद हिंदी के अच्छे जानकार हैं, आपको भी पता है की वन्दे का अर्थ बंदगी से अलग है, इसमें आराधना का भाव नहीं बल्कि मातृभूमि के गुणगान का भाव है.

इस विरोध का कुल टोटल लब्बोलुआब इतना है की जो शब्द एक कट्टर हिन्दू संगठन के अभिवादन में सामान्यतः प्रयोग में आता हो उसे कोई मुस्लिम कैसे ज़बान पर लाए? ईगो का मामला है, न की इस्लाम का.

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इस थकेले विवाद को आज हवा देने की कोई ज़रूरत नहीं थी, और न ही ऐसा कोई प्रसंग बन रहा था. पर दिनेशराय द्विवेदी ने सही फ़रमाया


धार्मिक झगड़े क्यों उठाए जाते हैं? लोग जानने लगे हैं कि उन की रोटी महंगी हो गई है यह बात शोर में दब जाए।

गिरिजेश राव, Girijesh Rao ने कहा…

जहाँ तक मुझे पता है, दुनिया के किसी संविधान में गोमांस खाने की वहाँ के नागरिकों के लिए बाध्यता नहीं है। संविधान देश के लोग अपने लिए विकसित करते हैं। यदि गोमांस खाना आवश्यक होगा तो वे उसे भी स्थान देंगे। एक बार गोमांस खाना राष्ट्रीय कर्तव्य हो जाएगा तो खाना ही पड़ेगा।
संविधानों में प्रवासियों के लिए कुछ सीमाएँ और सेफगार्ड रखे जाते हैं। तेरह चौदह सौ साल के वासी प्रवासी कहलाएँगे या नागरिक, इस पर विमर्श करने की कोई आवश्यकता नहीं है। वन्दे मातरम और गोमांस - ये जमीन बहुत खिसकाऊ है आचार्य !

दीनी तंजीम धार्मिक मामलों पर तय तड़ाबा करे तो ठीक है लेकिन धर्म से बाहर के मामलों पर भी जिभियाने लगे तो नीयत पर शक होता है। शक और भी बढ़ जाता है जब उसका बाकायदे ढिंढोरा पीटा जाए। एक बार कोई बात संविधान में आ गई तो उसे मानना ही होगा। हाँ औकात हो तो संविधान बदल लें। आप भले इस दृष्टि से न सोच रहे हों लेकिन वे इस दृष्टि से भी सोचते हैं, इसकी गवाह उनकी हरकतें रही हैं और हैं।
बौद्धिक वाग्विलास के लिए नेशन, राष्ट्र आदि के इंसानी जान पर कहर वगैरह विषय उत्तम हैं लेकिन यहाँ मामला बहुसंख्य जनता का है। ..हाँ, विलासी अल्पसंख्यक हैं।
प्रश्न यह भी है कि जिन कठमुल्लों पर इतनी दया दिखाई जा रही है क्या उनके दीन या हिन्दुओं के धर्म या किसी भी सम्प्रदाय की किताबों में आज की मानवीय समस्याओं के निदान और इलाज मौजूद हैं? क्या उनसे देश चलाए जा सकते हैं? यदि हाँ तो संविधान की कोई आवश्यकता नहीं है। चलाइए देश हदीस और कुरान से। यदि नहीं तो समझदारों को यह समझना चाहिए कि इस नौटंकी के नेपथ्य में छिपी कलाकारी बहुत घातक है। उन्हें मंच ही नहीं देना चाहिए, आप लोग तो ताली बजाने में लगे हैं।
इतिहास खंगालें और वर्तमान वैश्विक परिदृश्य पर दृष्टि डालें। हर बड़ी राजनैतिक समस्या के एक पक्ष में इस्लाम क्यों खड़ा नज़र आता है? कमाल है आप को इतना बड़ा खेल दिखता ही नहीं? मुझे पता है कि आप दूसरे पक्ष प्रस्तुत कर देंग़ॆ, तर्कों के अंत नहीं होते।
बन्धु, हमें बाघ को सामने देख व्याघ्र शब्द की उत्पत्ति की व्याख्या नहीं करनी, हमें उससे बचने और उसकी नस्ल को पिंजरे में बन्द करने के लिए सोचना है। ..यह बेशर्म प्रदर्शन बस दिखावा है, असलियत बहुत वीभत्स है।

अभय तिवारी ने कहा…

बेंगाणी जी,
आज महाराष्ट्र विधान सभा में एम एन एस के विधायकों ने अबू आज़मी के साथ मारपीट की क्योंकि वे हिन्दी में शपठ ले रहे थे.. प्रतीक की इस रक्षा के बारे में आप के क्या विचार हैं?

मिश्रा जी,
आप क्यों इस बात पर आमादा हैं कि आप को यह गीत गाना ही होगा? मैं फिर पूछता हूँ क्या हल हो जाएगा इस के गायन से? और यह संविधान के विरुद्ध भी तो नहीं है। यह जबरन झगड़े का बिन्दु खोजना नहीं तो और क्या है? आज़ादी के पहले के साम्प्रदायिक दंगो में हिन्दू भीड़ वन्दे मातरम के नारे लगा कर हमले करती थी.. ये क्या कोई सुखद स्मृति है?

अभय तिवारी ने कहा…

गिरिजेश जी

आप इतने सारे आशंकाओं और सम्भवानाओं की आड़ से अपनी बात कर रहे हैं.. ज़रा रुक के सोचिये.. कुछ कठमुल्ले इसे मुद्दा बना रहे हैं.. उसे हवा देने से क्या सुखद परिणाम मिलने वाला है.. क्या आप ने मुसलमानों को वन्दे मातरम गाते नहीं देखा.. मैंने तो देखा है..
असल में बात यह है कि दोनों तरफ़ के साम्प्रदायिक लोग इसे मुद्दा बनाना चाहते हैं क्योंकि इस से उनका फ़ायदा है.. भोले लोग अनजाने में और चतुर लोग जानबूझ कर उनकी इस साज़िश में फंस रहे हैं..

अब इनकनवेनिएन्ती जी,

इसका विरोध काफ़ी पहले से हो रहा है.. जिन्ना से इसका विरोध १९३० के दशक में ही किया था.. पर आपकी बात यह सही है कि रोटी महंगी हो गई है..

अफ़लातून ने कहा…

@ संजय बेंगाणी , तिरंगे का विरोध करते हुए गोलवळकर का उद्धरण चाहिए ?

ab inconvenienti ने कहा…

पर खुद पोर्क खाने वाले, घोर अंग्रेजी जीवनशैली और शराब पीने के शौकीन जिन्ना, जिन्हें न तो कभी नमाज़ अदा करते देखा गया और न ही उन्हें कहीं से भी इस्लामिक विद्वान माना गया. इनका विरोध क्या मायने रखता है? जिन्ना का यह विरोध धार्मिक नहीं राजनैतिक था.

फिर अधिकतर कांग्रेसी मुस्लिम और क्रन्तिकारी भी तब बिना दबाव के वन्दे मातरम का नारा लगाते थे, क्या वे अज्ञानी मुस्लिम थे?

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http://in.news.yahoo.com/20/20091109/1416/tnl-muslims-defy-fatwa-sing-vande-matara.html

क्या ये मुस्लिम और कई और खुल कर वन्देमातरम गाने वाले अच्छे मुस्लमान नहीं हैं?

अभय तिवारी ने कहा…

सवाल यह नहीं है कि कौन सच्चा मुसलमान है, कौन अच्छा और कौन अज्ञानी.. बात यह है कि आप किसी से ज़बरदस्ती वन्दना नहीं करवा सकते.. अगर कोई नहीं करना चाहते तो लोकतंत्र में यह आज़ादी उन्हे मिलनी चाहिये..

प्रवीण ने कहा…

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"वसुधैव कुटुम्बकम का नारा देने वाले पहले देश के लोगों के साथ कुटुम्ब के सदस्यों के तौर पर सम्मान करना सीखें, ये हिटलरी नीति छोड़ें और विचारों और मान्यताओं के वैविध्य के लिए जगह बनाएं।"
"यह गीत देशभक्ति का कोई पैमाना नहीं है। देशभक्ति की आड़ में देशवासियों से नफ़रत करना यह कैसी नीति है? इस गीत को गाने से या न गाने से देश का क्या हानि-लाभ हो जा रहा है? यह कोई मुद्दा ही नहीं है। इस बात पर विवाद करना वितण्डा खड़ा करना और साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़काने की साज़िश है।"

पूर्ण रूप से सहमत हूँ मित्र,
आभार!

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

यह पोस्ट एक खास वर्ग को खुश करने के लिए लिखी गयी है। वही वर्ग जिसने जिन्ना के नेतृत्व में तब देश का बंटाधार कराया और अब फिर दीनी तंजीम के नाम पर अनावश्यक जुमला उछालकर समाज के टुकड़े-टुकड़े करने का कुत्सित प्रयास कर रहा है।

अभय जी का उनके सुर में सुर मिलाना जुगुप्सा पैदा करता है। छिः। हम इस मुद्दे को सिरे से नकारते हैं और मौलवी साहबान को लानत भेंजते हैं।

योगेन्द्र सिंह शेखावत ने कहा…

वैसे तो, अभय सर, ऐसे अजीब से टोपिक पर समझ नहीं आता की किसको क्या कहा जाये | अपने अगर इस विषय पर लिख ही दिया है तो यही कहूँगा की ठीक से और clarify करने की आवश्यकता थी, अपने काफी कम शब्दों लिखा इसलिए थोडा पाठकों को दिक्कत हुयी और इसीलिए आपको ये पूर्ति टिप्पणियों में आके करनी पड़ी वरना आपकी टिप्पणियां आपके लेखों बहुत ही कम देखीं हैं |

खैर ये सही है ना तो किसी से जबरदस्ती कुछ गवाया जा सकता है और न ही बंद करवाया जा सकता है | हाँ इस विषय को फिर से हवा देने में जरूर जमीयते-उलेमा-ए-हिंद का ने अपना नाम उछाल लिया है | इस विषय पर दोनों तरफ से नाक का सवाल है, ये कहते हैं गाना ही पड़ेगा और वो कहते है ऐसे कैसे जबरदस्ती गायेंगे | बाकी न किसी को वन्दे मातरम् से मतलब है न कुछ और से | जो लोग गाने की जबरदस्ती कर रहे हैं उनमे से कितनो को ये याद होगा और उनमे भी कितनों को इसका सही अर्थ भी मालूम होगा ये समझना ज्यादा कठिन नहीं है | क्या कहें और क्या न कहें काफी अनर्गल सा लगता है ये वार्तालाप | परन्तु ऐसे टोपिक पर बार-बार इस्लाम को जोड़ना मुस्लिमों के भोंथरे दिमाग की और ही इशारा करता है | बामियान में बुद्ध प्रतिमाओं को तोड़ना क्या साबित करता है ? सभी धर्मावलम्बी कट्टर हैं, परन्तु मेरी दृष्टि में मुस्लिम लोग अपनी बुद्धि का इस्तेमाल बहुत ही कम करते हैं, ये लोग अपने दरवाजे बंद करके बैठे रहते हैं कोई भी नयी विचारधारा को अपनाना इनके लिए दुनिया की अन्य कौमों की तुलना में कुछ ज्यादा ही कठिन है |
क्या आपको ऐसा नहीं लगता ?

मनीषा पांडे ने कहा…

Abhay, I wonder. किसी ब्‍लॉग पर पढा था कि कितने जीबी का दिमाग है सर। मैं पूछना चाहती हूं कि ये कक्षा दो की भूगोल की किताब समझने बराबर सहज बुद्धि से समझ में आनी वाली सीधी-सादी बात को समझने के लिए कितने जीबी कैपेसिटी का दिमाग चाहिए? क्‍या हिंदुस्‍तान में सचमुच सहज विवेक का इतना अकाल पड़ गया है। लोग निंदा करने, लानतें भेजने, धिक्‍कार करने पर उतर आए हैं। हद है।

अभय तिवारी ने कहा…

योगेन्द्र,

इस्लाम और मुसलमान दो अलग-अलग चीज़ें हैं; एक विचारधारा है और एक मनुष्यों का समुदाय। मेरा मानना है आप विचार के प्रति निर्मम हो सकते हैं पर मनुष्य को आप को उसकी कमी-कमज़ोरियों के साथ ही स्वीकारते हैं.. जो मुसलमान होने से कुछ घट-बढ़ नहीं जातीं। आप को कोई कामिल पुरुष कहीं नहीं मिलेगा!

बामियान तोड़ने और कोई गीत गाने/न गाने दोनों के तराज़ू पर कैसा तोला जा सकता है..? बहुत सारा विरोध इसी आधार पर हो रहा है कि ये तो फिर ऐसा करेंगे! फिर वैसा करेंगे! कल्पनाओं और आशंकाओ के आधार पर.. हत्या हुई नहीं.. उसकी आशंका पर ही आप कैसे किसी को फांसी दे सकते हैं?

सब से बड़ी बात कि जनतंत्र का मूल असहमति है.. उन्हे यह अधिकार है.. आप कोई चीज़ उन पर थोप नहीं सकते..
अमरीका में लोग झण्डे को चड्ढी की तरह पहन लेते हैं.. हमारे यहाँ प्रतीकों को लेकर अजब तरह की ज़बरदस्ती है.. प्रतीक महत्वपूर्ण नहीं है प्रतीक जिस बात का प्रतिनिधि है वह महत्वपूर्ण है..
कहाँ है वो शस्य श्यामला.. किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं.. आदिवासी बन्दूक लेकर युद्ध कर रहे हैं.. मध्यवर्ग को उन दोनों से कोई लेना-देना नहीं वो सिर्फ़ इसी बात पर खून खौला रहा है कि मुसलमान वन्दे मातरम क्यों नहीं गा रहे? सुमधुरभाषिणी? जूते लेकर लोग विधानसभा में भाषा का सवाल तय कर रहे हैं?

Arvind Mishra ने कहा…

"इस्लाम और मुसलमान दो अलग-अलग चीज़ें हैं'
आप फिर एक तथ्यगत भूल कर रहे हैं अभय !
नहीं है भईया -काहें बेफ़ालतू की तरफदारी कर रहे हैं ?
आप कोईं एजेंट है या फिर किसी मुसलमान के घर में किराये पर है ?
या फिर किसी मुस्लिम कन्या से इसक विसक चल रहा है ?
कोई निजी कारण हो तो जाईये कुछ नहीं कहता, मगर अगर
आयिदियालाजी झाड़नी है ,महज वाग्विलास करना है
तो फिर आप क्षम्य नहीं हैं ! आप इस्लाम से विरत जिस जिस मुसलमान को
को मेरे सामने लायेगें मैं चरण धूलि सर पर रखने को वचनबद्ध होता हूँ !
और हाँ मेरे ऐसे मुसलमान दोस्त है जो सूअर का मांस खाते हैं और कुछ ऐसे भी जो
अल्लाह को दर किनारे हुए हैं ! आपके कितने हैं ! फिर काहें ईमान धरम बेचने पर तुले हैं ?
मैं नास्तिक हूँ ,मेरा कोई एक अकेला धर्मग्रन्थ नहीं है -और इसलिए दर्प से कहता हूँ मैं हिन्दू हूँ !
मगर वन्दे मातरम् न गाने के पीछे जो मूर्खतापूर्ण सोच है वह मुझे हिंस्र बनाती है
काश मैं हिटलर हो सकता ..... आप लोकतंत्र की दुहाई केवल इसलिए दे रहे हैं की उन्हें मात्रिवंदना न करने का
एक औचित्य दे सके ! ये हो क्या गया है आपको ? आँखे खोलिए अभय !

प्रवीण त्रिवेदी ने कहा…

हर चीज से असहमति !! और उस पर आपका पक्ष रखने का अंदाज? क्या कहें तर्कों का कोई अंत नहीं?


जाहिर है क्या आप भी उसी पुनर्विचार को तैयार हैं?

शायद नहीं?

अभय तिवारी ने कहा…

अरविन्द भाई,
मेरे घर दीवाली पर दीप जलते हैं मगर ओम जय जगदीश हरे नहीं गा पाता.. (एक दो बार कोशिश की मन से नहीं निकला छोड़ दिया.. पहले पिता जी के पीछे खड़े होकर भी नहीं गा पाता था) मेरी इस ओम जय जगदीश न गा पाने पर भी आप क्या इसी उत्तेजना से प्रतिक्रिया करेंगे?

क्या इस तरह की प्रतिक्रिया किसी तरह भी तर्कसंगत और न्यायसंगत है?

आप नास्तिक मुसलमान को ही स्वीकार करेंगे? धार्मिक मुसलमान को, आप से असहमत मुसलमान को नहीं.. तो ये कैसी विचार की आज़ादी और लोकतंत्र की धारणा है?

आप शाहरुख को पसन्द करते हैं और आप का भाई सलमान को.. क्या इसी बात पर आप उस के साथ मार-पीट कर सकते हैं? अगर हाँ तो मैं आप से और कुछ नहीं कह सकता।

गिरिजेश राव, Girijesh Rao ने कहा…

भैया, एक गिलास ठंढा पानी पीकर सोचिए। उन बातों पर गौर करिए जो बाकी लोग कह रहे हैं। .. हत्या और फाँसी की नौबत न आने दीजिए। घर को दुरुस्त चाक चौबन्द रखने को अगर गृहवासी पहले से ही सतर्क हैं तो क्या बुराई है? ...ना भैया, हम सिर्फ शक के आधार पर किसी का गला नहीं रेतने जा रहे, बस दिमागी रूप से सजग हो रहे हैं।
इतिहास गवाह है, सतर्कता की कमी हमें बहुत महँगी पड़ती रही है। इसमें हिन्दू मुस्लिम जैसी कोई बात नहीं है। बात बहुत आगे की है। समझिए बन्धु।

संजय बेंगाणी ने कहा…

माननीय अभयजी व अफ्लातुन जी. बात खेत की हो रही है आप खलिहान की करने लगते है. बुद्धिजीविता की यह एक निशानी है.

राज ठाकरे और बजरंगदल, विश्व हिन्दु परिषद या रामसेना ही नहीं आसाराम, सांई और अन्य बाबाओं पर मैने बहुत लिखा है. मुझे एक आँख से देखने की आदत नहीं. जाहिर है मैं सेक्युलर नहीं हूँ.

विधानसभा में जो हुआ उस पर आज लिखने वाला था. स्वास्थय ठीक नहीं है, आपको बाद में लिंक भेजूगाँ.

ab inconvinienti ने कहा…

आप नास्तिक मुसलमान को ही स्वीकार करेंगे? धार्मिक मुसलमान को, आप से असहमत मुसलमान को नहीं.. तो ये कैसी विचार की आज़ादी और लोकतंत्र की धारणा है?

आप शाहरुख को पसन्द करते हैं और आप का भाई सलमान को.. क्या इसी बात पर आप उस के साथ मार-पीट कर सकते हैं? अगर हाँ तो मैं आप से और कुछ नहीं कह सकता।


कोरी लफ्फाजी..... दुनिया में अधिकतर निर्णय सम्भावना के आधार पर ही लिए जाते हैं. प्रोग्नोसिस.

Past is the best predictor of future.

Unknown ने कहा…

ये मुद्‍दा इतना मह्तवपूर्ण नही है |
१. संविधान के अनुसार वांदे मातरम को गाने के लिए आप किसी को मजबूर नही कर सकते है |
और आप किसी को वांदे मातरम को गाने से रोक भी नई सकते हो |
२. संविधान के अनुसार एक विधायक , किसी भी १५ राज्य भाषाओ इन शपत ले सकता है |
और यदि आप किसी विधायक को एसा करने से रोक नही सकते है |

मेरी नज़र मैं ये फतवा और राज , दोनो ही असंवैधानिक है|

संजय बेंगाणी ने कहा…

मराठी-हिन्दी मुद्दे पर लिख कर आपको लिंक देने का कहा था, यह रही:


http://www.tarakash.com/joglikhi/?p=1403

Amrendra Nath Tripathi ने कहा…

आप्कै इमेल खोजत -खोजत आपके बलाग पै
पहुचेन | हियाँ आई के रमि गयेन | भैया ! हम तौ
नौसिखिया हन , जहाँ जाइत है वहीँ फँसि जाइत है |
हियाँ कै बहस देखि के मन फूलि के कुप्पा होइगा |
आप सबकै दया रहे तौ बहुत सिखब |
सुक्रिया दियै के ताईं इमेल चाहत रहेन , दियै
कै किरपा करौ |
धन्यवाद् ... ...

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

इस बात पर विवाद करना वितण्डा खड़ा करना और साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़काने की साज़िश है।...

बेहतर...

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

बढिया पोस्ट.

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

pahli baar aaya aour vicharotejak aalekho se sarobaar huaa..
achhaa lagaa aapko padhhnaa/
vichaar aapke he, aour in vichaaro me tarkshastri bhi anek he...aapke tippanikaaro me dekh rahaa hu..kher..

Smart Indian ने कहा…

इसका विरोध काफ़ी पहले से हो रहा है.. जिन्ना से इसका विरोध १९३० के दशक में ही किया था...
आया तो सिर्फ असहमति दर्ज कराने था मगर यह टिप्पणी पढी तो यह याद दिलाना ज़रूरी समझता हूँ कि जिन्नाह और उनकी मुस्लिम लीग ने और भी गैरजिम्मेदाराना बहुत कुछ किया था जो इतिहास में दर्ज है.

यह फतवों के ठेकेदार पहले ही इस मुल्क की फिजा खराब करके उसके तीन टुकड़े करा चुके हैं, क्या इतना काफी नहीं है इनको रोकने के लिए?

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