शनिवार, 18 जुलाई 2009

कबूतर जैसा मशहूर नहीं!

वैसे तो मैं नाटक देखता नहीं लेकिन कल एक देखना पड़ा। पृथ्वी पर। वहीं मेरे एक दोस्त सलीम शेख मिल गए। मिज़ाजपुर्सी हुई। मोहब्बत के दो बोल उन ने बोले। एकाधी अदा हम ने भी दिखाई। फिर कहने लगे कि क्या कर रहे हो आजकल। हमारा हाल किस से पोशीदा है। सब जानते हैं कि ज़माने से बेरोज़गार हूँ। वो बात अलग है कि किसी मजबूरी में नहीं अपनी मर्ज़ी से हूँ।

कभी-कभी डर भी लगता है कि कहीं एक दिन ऐसा न आए कि लोग काम के लिए पूछना भी छोड़ दें। लोग पुर्सिश करते रहें और आप कहें कि अमां जाओ यार कहाँ फंसा रहे हो, हमें अपनी आज़ादी कहीं प्यारी है। मन-माफ़िक काम न मिले तो दो-चार पैंटो और नए-ताज़े असबाब की हवस के लिए रुपये के लिए गधा मजूरी करने से तो इन्कार की यह लज़्ज़त भली। नए कपड़े नहीं खरीदता हूँ, जहाँ तक हो सके बस और ट्रेन से चलता हूँ, सिगरेट छोड़ ही चुका हूँ। जब तक सर पर ना आ पड़े ग़ुलामी नहीं करेंगे ऐसा सोचा है।

दुनिया में लोगों की तमाम ज़िम्मेदारियां होती हैं। माँ-बाप, बीबी-बच्चे, भाई-बहन। नसीब ने हमें ऐसी किसी भी ज़िम्मेदारी से आज़ाद रखा है। अगर उसके बावजूद मैं मौक़े का फ़ाएदा न उठाऊँ, और वो न करूँ जो वाक़ई दिल की तमन्ना है तो निहायत अहमक़ होऊँगा। और अपना तो उलटे ऐसा ख्याल है कि हम काफ़ी ज़हीन हैं।

तो सलीम साहब कहने लगे कि यार हमारे एक दोस्त हैं। थियेटर की बड़ी हस्ती हैं। अगले माह एक बड़े फ़ेस्टिवल के लिए हम से इंडिया टुडे पर दस मिनट का पीस लिखवना चाहते हैं। पर हमें ससुरा वक़्त ही नहीं मिल रहा, तुम लिखोगे क्या?

अब इंडिया टुडे पर दस मिनट का पीस लिखना कौन बड़ी बात है। मैं क्या कोई भी सेल्फ़ रेस्पेक्टिंग ब्लॉगिया लिख देगा। आज कल तो वैसे भी साहित्य-ब्लॉगित्य की बड़ी धूम है। मैंने बोला कि बेफ़िकर रहिये लिख दूंगा। तो कहने लगे कि मगर उन की थियेटर पर्सनैल्टी ने उनसे लिखने को कहा है। और जब वो कहेंगे कि फ़लां साहब लिख रहे हैं तो वो कहेंगे कि कौन फ़लां साहब? क्या जवाब देंगे? यानी सलीम शेख की तो एक शुहरत है, आप कौन? मैंने कहा कि अगर ऐसा है तो जाने दीजिये।

बोले नहीं कि कर लो, लूप में आ जाओगे!

लूप में?

हम बमुश्किल टीवी के लूप से बाहर निकले हैं। मसाला फ़िल्म के लूप के जबड़ों में जाते-जाते खुद को किसी तरह बचाया है। और अब आप थियेटर के लूप का झुनझुना हमें झलका रहे हैं। हद है। हम ने कहा कि नहीं भाई हमें माफ़ करें हम अब थियेटर के लूप में आने के लिए स्ट्र्गल नहीं करेंगे। सलीम मियां चुप हो गए।

फिर मैंने उन से पूछा कि उन्होने कभी कबूतर देखा है। ज़ाहिर सी बात है सब ने देखा है उन्होने भी देखा होगा। कबूतर को कौन नहीं पहचानता। बोले हाँ। फिर मैंने पूछा कि फिर तो आप ने हरेवा भी देखा होगा?

हरेवा?

वो क्या होता है?

एक पंछी होता है हरे रंग की देह, सर लाल, चोंच और गला काला और सर से लेकर गरदन तक एक सुनहरी पट्टी। निहायत दिलकश पंछी है।

तोता है क्या किसी तरह का?

नहीं साहब तोते से इसका कोई रिश्ता नहीं। बुलबुल के क़द का होता है और घने जंगल में बसर करता है। मगर क़िस्मत अच्छी हो तो हो सकता है आबादी के आस-पास के दरख्तों में भी छिपा दिख जाय। अंग्रेज़ी में गोल्ड फ़्रन्टेड क्लोरोप्सिस कहते हैं।

क्लोप्सिस..?

गोल्ड फ़्रन्टेड क्लोरोप्सिस

गोल्ड फ़्रन्टेड क्लोरोप्सिस!?

करेक्ट! इसमें बस एक ही नुक़्स है।

क्या?

कबूतर जैसा मशहूर नहीं है।

15 टिप्‍पणियां:

मुनीश ( munish ) ने कहा…

" I cock my hat as i please"
--Walt Whitman
U gave a befitting reply to that fellow. I'd like to c u excel further in the art,science and commerce of cinema.

यूनुस ने कहा…

समझ नहीं आ रहा है कि रश्‍क करें आप पर या
नहीं । ठाट हैं भई ।
बाज़ार से गुज़रा हूं खरीदार नहीं हूं ।
दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं ।
जे वाला मामला फिट है जी
रहिए मनमौजी ।
हम शायद जल-भुन कर खाक हुए जाते हैं ।

अफ़लातून ने कहा…

हमें नाज है अपनी इस गोल्ड फ़्रन्टेड क्लोरोप्सिस नाम की चिड़िया पर । लेकिन 'लिम्फो सारकोमा ऑफ दी इन्टेस्टाईन ’(या नोज़!!) बड़ी खतरनाक थी ।

डॉ .अनुराग ने कहा…

तभी समझ आया आप हमेशा निर्मल आनद में क्यों कर रहते है ...कुल मिलाकर एक अहम् सवाल तो बीच में ही रह गया ...वो लिख दिया आपने जो जबरदस्ती लिखवाया गया...

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

मशहूर होना है तो कबूतर होना पड़ेगा।

सुशील छौक्कर ने कहा…

गोल्ड फ़्रन्टेड क्लोरोप्सिस!?
करेक्ट! इसमें बस एक ही नुक़्स है।
क्या?
कबूतर जैसा मशहूर नहीं है।

बहुत गहरी बात कह गए आप। छा गए जी आप।

Arvind Mishra ने कहा…

तो तुसी ग्रीन बुलबुल हो ....

अनूप शुक्ल ने कहा…

सुन्दर! सुबह -सुबह इसे पढ़ा आज! अच्छा लगा। अब सोचा बता भी दें।

बोधिसत्व ने कहा…

कबूतरों का चक्कर छोड़ो सारा आसमान तुम्हारा है....कबूतर कहाँ जानता है हारिल को....वह तो अपनी गुटरगूँ को ही महानाद समझता है।

Unknown ने कहा…

Awesome!! "Hum jhuke to nahi ye tamanna magar, Ek zamaane se halaat karte rahe"
Always a pleasure to read you.

संजय सिंह ने कहा…

सब जानते हैं कि ज़माने से बेरोज़गार हूँ। वो बात अलग है कि किसी मजबूरी में नहीं अपनी मर्ज़ी से हूँ।"
आपने बहुत अच्छा लिखा हैं .... गजब हैं यह बेरोजगारी का आलम. और फिर आपका कबूतर- हरेवा- गोल्ड फ़्रन्टेड क्लोरोप्सिस. क्या कहने?

bharat ने कहा…

Manjilon se kah do, meri raah na dekhen...
Mein na rukunga, Mein azaad hun.

Ek ghatia se bike (LML Freedom) ka badia advt. tha.

Smart Indian ने कहा…

"जब तक सर पर ना आ पड़े ग़ुलामी नहीं करेंगे ऐसा सोचा है।"
चलिए इस बयान से यह तो साफ़ हुआ की गुलामी से कोई ख़ास गुरेज़ नहीं है.

Rajesh ने कहा…

Mujhe nahi maaloom ki aapki kyaa "marji yaa majboori" hai commercial film yaa TV serial se door rehne ki. Lekin aagar aap jaise Guni log agar commercial film yaa TV se jur jaayen to shaayad do ek achchie film hum aam junta ko bhi dekhne mil jaaye! waise aage aapki marji bhai saab!

कुश ने कहा…

और उन कबूतरों का क्या..? जो कबूतर होकर भी उनसे अलग है..

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