अभिनेता इरफ़ान की नई फ़िल्म 'बिल्लू बारबर' का नाम बदल कर कुछ और किया जा रहा है। बारबर एसोसिएशन को 'बारबर' शब्द के इस्तेमाल पर आपत्ति है। खबर है कि फ़िल्म में जहाँ-जहाँ बारबर शब्द का इस्तेमाल आया है, उड़ाया जा रहा है। मैं भी बारबर एसोसिएशन से यहाँ पर बारबर शब्द के प्रयोग के लिए क्षमा चाहता हूँ। पूछना बस इतना चाहता हूँ कि वे किस दैवीय अधिकार से इस शब्द का उपयोग अपनी एसोसिएशन के नाम के लिए कर रहे हैं?
एक और खबर है- देवबन्द के उलेमा ने उन मुसलमान नेताओं के लिए मुसीबत खड़ी कर दी है जो मुलायम सिंह के अवसरवादी कल्याण-प्रेम से खौरिया कर बहन जी की शरण में चले गए हैं। फ़तवा दिया गया है कि वे जय भीम नहीं कह सकते। जय भीम कहना ग़ैर-इस्लामी है। खुदा के अलावा किसी की बन्दगी ग़ैर इस्लामी है.. माफ़ करें खुदा नहीं अल्लाह। खुदा तो ईरानी भगवान है.. उस की बन्दगी करना भी ग़ैर इस्लामी है।
दाद देनी चाहिए देवबन्द के उलेमा की, जो जय भीम बोले बिना ही, जय भीम बोलने पर पाबन्दी लगा गए। शायद उन्होने ये फ़तवा लिख कर जारी किया होगा? तो क्या मुसलमान बहन जी के सामने जय भीम लिख कर काम चला सकेंगे..? ये पता कर लेना चाहिये। वैसे भीम ज़िन्दाबाद के बारे में क्या ख्याल है? वो इस्लामी है कि ग़ैर इस्लामी? उसमें किसी की परस्ती की बू आती है कि नहीं? भीम छोड़िये किसी की भी ज़िन्दाबाद?.. ज़िन्दा होना इस्लामी है कि ग़ैर इस्लामी?
मैं जानता था कि जय शब्द के भीतर मूल अर्थ 'विपक्षी के पराभव' का है और प्रचलित अर्थ अभिवादन और प्रणाम का है। मगर जय शब्द में छिपे वन्दना के अर्थ को पहचानने के लिए भाई अजित वडनेरकर को, सभी नए-पुराने शब्दों के व्याख्या के लिए देवबन्द के उलेमा के साथ एक इन्टेन्सिव ट्रेनिंग करनी चाहिये!
वैसे 'जय माया' के बारे में भी देवबन्द के उलेमाओं को अपनी राय ज़रूर देनी चाहिये!
सब से रोचक बात मुझे ये लगती है कि बार-बार “ला इलाहा इल अल्लाह” (अल्लाह के सिवा और कोई ईश्वर नहीं.. माफ़ करें.. अल्लाह के अलावा कोई अल्लाह नहीं) बोलने के बावजूद इन उलेमा के लिए ईरानी खुदाओं की, और दलित देवताओं की उपस्थिति बनी रहती है। अल्लाह के हज़ार नामों में खुदा का शब्द इसलिए शामिल नहीं हो सकता क्योंकि वो अरबी मूल का नहीं है? या उस से खुद और खुदा के समीपत्व का बोध होता है? ये उलेमा ये भी भूल जाते हैं कि उन्ही की इस्लामी परम्परा में स्वयं अल्ला मियाँ फ़रिश्ते से ज़्यादा आदमी को अपने क़रीब पाते हैं?
शब्दों के प्रति बढ़ते इस कट्टरपन से मुझे जार्ज ऑरवेल का उपन्यास १९८४ याद आ जाता है जिस का सर्वसत्तावादी तानाशाह हर रोज़ शब्दकोश में से कुछ 'आपत्तिजनक' शब्द मिटाता जाता है।
11 टिप्पणियां:
बहुत अच्छा आलेख। कल दोनों खबरें जानने के बाद यही कुछ मैं सोच रहा था।
बारबर का बारबार उल्लेख पसंद नही आया या पहली बार ही बारबर ना आने हत्थे से उखड़ गये, लगता है सभी हिंदी प्रेमी है हो सकता है नाई रखवाना चाहते हों नाम।
सही मुद्दे को पकड़ा है। क्या कहा जाए अभय भाई...हर सभ्यता में ईश्वरीय रूपों में शक्ति को ही पूजा गया है। शब्द की ऊर्जा को ही शब्दब्रह्म कहा गया। उपकरण विहिन आदिम समाज में सर्वप्रथम निराकार ईश्वर अगर कोई था तो वह शब्द ही था। सभी संस्कृतियों में जाप का महत्व है जो शब्दब्रह्म की आराधना है। नादसाधना ही ईश्ववरीय सिद्धी का अंतिम चरण है। ऐसे में शब्द के साथ यह मूर्खतापूर्ण बर्ताव ईश्वर का अपमान है। यह तो रोज़ हो रहा है। आज 'हरि'जन पर भी विवाद है, 'बहु'जन चलेगा। कल इससे में से भी 'बू'आने लगे तो ? विरोध करना, नकारना दोहरी जिम्मेदारी का काम होता है। आपको विरोध के बिंदु को तमाम आयामों में समझना होता है ताकि खुद को सुधारा भी जा सके। मगर विरोध तो अब सबसे आसान हो गया है क्योंकि मीडिया की भूमिका 'खबरदार !' करनेवाली नहीं रह गई है। अब तो उसे ढिंढोरची समझा जाता है। सो कोई भी ऐरा-गैरा किसी भी शब्द पर ऐतराज जताने आ जाता है। उसे धर्म, संस्कृति, परंपरा, इतिहास ...किसी से क्या लेना देना। कुछ माइक...कुछ कैमरे...कुछ वाचाल लोग...बेशर्म मुस्कराहटें...
"अच्छा ! ऐसा था क्या ? अपन को क्या पता था यार...पहले बताते...चलो, कोई बात नहीं...एक दो बुलेटिन देख लो...जैसा बोलोगे, वैसा बोल देंगे..."
बहुत अच्छा आलेख है।
अल्लाह न हो गया, जी का जंजाल हो गया है। हम अपनी माँ की वन्दना (वन्दे मातरम) भी नहीं कर सकते।
हद है ! कुछ कहना भी काफिरत्व की तरफ़ मोड़ता है?
हाँ में हाँ मिलाना ज़रूरी हो गया है, जय स्वामी निर्मलानंद...
अच्छा आलेख.
आपने मेरे मन की बात कह दी। अपना नाम हटा कर मेरा नाम लिख दीजिए इस पोस्ट पर।
सही बात उठने के लिए साधुवाद और धन्यवाद।
ये कैसा धर्म है भाई जो खुद के अलावा कुछ और देखना ही नहीं चाहता। इस इस्लामिक सेंसरशिप ने तो दुनिया का जीना हराम कर दिया है।
बहुत दिनों से एक कंसल्टेंसी खोलने की योजना है। इसका काम होगा शब्दों, नारों, गीतों, भाषणों से ढूँढ कर ऐसे मुद्दे निकालना, जिनपर आपत्ति की जा सके। बस इतना बताना है कि टारगेट कौन है, बाकी काम हमारा।
- आनंद
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