रविवार, 9 दिसंबर 2007

अन्दर का अर्थशास्त्र

मुझे अर्थशास्त्र ज़रा कम समझ में आता है ये हालत तब है जबकि अर्थशास्त्र स्नातक स्तर पर मेरा विषय रह चुका है। पर ये बयान इस विषय पर मेरे अध्ययन के बारे में कुछ नहीं कहता क्योंकि स्नातक की अन्तिम परीक्षा आते-आते शिक्षा व्यवस्था से मेरा विश्वास इतना उठ चुका था कि मैं अपनी उत्तर पत्रिका में पाँच में से साढे तीन सवालों के उत्तर लिख कर आता था। मेरा आकलन था कि वे मुझे पास करने के लिए पर्याप्त होंगे।

मुझे पढ़ाई से कोई चिढ़ नहीं थी.. होती तो मैं आज भी विद्यार्थी न बना रहता। मगर शिक्षा व्यवस्था ने ऐसा विकराल व्यापार फैलाया हुआ था और हुआ है कि मुझे अंक प्राप्त करने के लिए पढ़ने से मुखालफ़त हो गई। मगर अपने निर्मल आनन्द के लिए दुरूह और जटिल विषयों पर मोटी-मोटी पुस्तकें आज भी पढ़ने को तैयार रहता हूँ।

पूँजीवाद की मूल प्रस्थापना है कि आदमी अपने लाभ के लिए काम करता है.. और इसी लाभ का लोभ देकर उसे बढ़िया से बढ़िया काम करने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। आज अन्तरजाल पर फ़्री मार्केट के घोर समर्थक ब्लॉगर अमित वर्मा के ब्लॉग के ज़रिये इस पन्ने पर पहुँचा जहाँ एक अर्थशास्त्री टाइलर कोवेन अपनी एक नई पुस्तक के संदर्भ से बेहद दिलचस्प बातें कर रहे है..

प्रश्न: तो क्या ये सच है कि हम ‘बेहद कुशल’ श्रेणी का बहुत सारा कार्य करने के लिए प्रेरित किए जा सकते हैं सिर्फ़ इसलिए क्योंकि वह कार्य मज़ेदार है?

कोवेन: बिलकुल। काफ़ी कुछ विज्ञान का कार्य इसी आधार पर होता है। हाँ ये सच है कि वैज्ञानिको को तनख्वाह मिलती है, मगर वो तनख्वाह उनके आविष्कारों के लिहाज़ से कभी पर्याप्त नहीं होती, जिसके लिए वे मशहूर हो जाते हैं। वे आविष्कार करते हैं क्योंकि उन्हे विज्ञान से प्यार है, या वे मशहूर होना चाहते हैं.. या फिर ये गलती से उनसे हो जाता है। आइनस्टीन कभी कोई रईस आदमी नहीं रहा मगर वो बहुत मेहनत करता था। इसी तरह ब्लॉगिंग भी इसी पुरानी भावना का नया रूप है, लोग बड़े महत्व की चीज़े मुफ़्त में करते हैं..

प्रश्न: तो क्या ज़्यादातर मालिक अपने कर्मचारियों की मेहनत करने की प्राकृतिक प्रेरणा को कुचल देते हैं? और कई दफ़े प्रेरणा के तौर पर वेतन को ज़्यादा ही महत्व देने में कुछ गलती है?

कोवेन: अधिकतर मालिक प्रेरणा के तौर पर पैसे पर कुछ ज़्यादा ही महत्व रखते हैं और आनन्द पर कम। वे ये नहीं सोचते कि कर्मचारीगण अपनी ज़िन्दगी के मालिक स्वयं होने की बात को कितनी शिद्दत से महसूस करते हैं। लेकिन यह एक आम गलती है, और ये इसलिए होती है क्योंकि खुद मालिक नियंत्रक महसूस करने की ज़रूरत से ग्रस्त होता है। मगर यह उल्टा नतीजा देती है और लोग इसके खिलाफ़ विद्रोह कर देते हैं।

अगर आप को यह बातें दिलचस्प लगी हैं तो पूरा साक्षात्कार ज़रूर पढ़े.. यकी़न करें आप का समय खराब नहीं होगा..

किताब के बारे में जानने के लिए चित्र पर क्लिक करें..

टाइलर कोवेन का ब्लॉग देखने के लिए यहाँ जायँ..

6 टिप्‍पणियां:

Pramendra Pratap Singh ने कहा…

आपने एक अच्‍छा लेख उपलब्‍ध कराया है। मै भी परास्‍नातक अर्थशास्‍त्र का छात्र हूँ। अर्थशास्‍त्र की बात आने पर अनायास किसी भी ब्‍लाग पर जा हो ही जाता है।

आप बधाई के पात्र है।

अनूप शुक्ल ने कहा…

अच्छा पढ़वाया। शुक्रिया।

Sanjeet Tripathi ने कहा…

अर्थशास्त्र ही नही बल्कि अर्थ से भी एक दूरी सी है अपनी। लेकिन यह लेख पढ़वाने के लिए आपको शुक्रिया तो कहना ही होगा!!

बालकिशन ने कहा…

अच्छा पढ़वाया। शुक्रिया।

ALOK PURANIK ने कहा…

सही अर्थशास्त्र तो यही है जी कि जो मन का हो, वही किया जाये पैसे वैसे कम ज्यादा मिल जायें, अलग बात है। और दुनिया में महानतम काम कभी भी पैसे के लिए नहीं हुए, पैसा उनसे आ गया, यह अलग बात है। पर इस बात का दुरुपयोग भी कई तरह से हो जाता है। हिंदी के एक बहुत बड़े संपादक कहते थे कि सेलरी बढ़ाने का बहुत फायदा नहीं है, उससे पत्रकारों का लेखन बेहतर नहीं हो जायेगा। वो जैसा लिखते हैं, वैसा ही लिखेंगे।
पर बात यह सोलह आने सच है कि अपने किये में आनंद अगर नहीं आ रहा है, तो जिंदगी तबाह टाइप ही हो रही है।

अजित वडनेरकर ने कहा…

आप गौर करेंगे कि अर्थशास्त्र आलोक पुराणिक को सही हिन्दी लिखना और सोचना सिखा देता है। गंभीर तरीके से टिप्पणी पर मजबूर कर देता है वर्ना हरियाणवी, राजस्थानी, बृज और न जाने किन शैलियों में अपनी बात कहने का प्रयास करते नज़र आते हैं। यानी अर्थशास्त्र का हिन्दी से संबंध है तो ज़रूर......
अर्थशास्त्र हमें पसंद है मगर इकॉनामिक्स वाला नहीं बल्कि शब्दार्थशास्त्र इसलिए हे अभयजी, हमने सिर्फ आपका लिखा ही पढ़ा, मूल लेख नहीं।

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