मंगलवार, 29 मई 2007

न निर्मल न आनन्द

पिछले दिनो न मन निर्मल रहा और न उसमें कोई आनन्द.. ये मुगा़ल्ता कभी नहीं रहा कि मैं सच्चे निर्मल आनन्द को प्राप्त हो गया हूँ.. उसकी कामना ज़रूर है हृदय में.. कि मैं खुद एक ऐसी शांति और आनन्द को प्राप्त हो जाऊँ.. जहाँ सांसारिक प्रलाप मुझे व्यर्थ विचलित न कर सकें.. और मेरी कामना यहीं नहीं रुकती वो मोक्ष भी चाहती है..

यहां पर मैं यह भी साफ़ करना चाहूँगा कि ऐसी शांति मानव कल्याण की विरोधी नहीं होती वरन मानव कल्याण का उद्देश्य ही उस शांतिमय करूणा के मूल में स्थित होता है.. ऐसा पढ़ा है महापुरुषों की वाणियों में.. ऐसी शांति को प्राप्त हो कर ही बुद्ध, मुह़म्मद और कबीर मानवीय शोषण के विरुद्ध एक विराट मोर्चा खोल सके.. शैतान से लड़ने के लिये आपका खुद शैतान होना न सिर्फ़ गै़रज़रूरी है.. बल्कि ग़लत भी है.. अन्याय और अशांति से लड़ने के लिये खुद अशांत हो जाना भी कोई बुद्धिमानी नहीं मूर्खता है..

पर पिछले दिनों मैं इस मूर्खता से ग्रस्त रहा.. ये मूर्खताएं मेरी पुरानी साथी हैं.. लोगों से उम्मीदें रखना.. और उनकी चारित्रिक सीमाओं को जानते-बूझते हुए भी भावुक किस्म की बेडि़यों को ढोने लगना.. ये सब इस मूर्खता का बाहरी संस्कार है.. पर मूल विषय वस्तु इसकी मेरे भीतर ही विराजती रही है.. और समय समय पर अलग अलग लोग इसका निमित्त बनते रहे हैं.. जिसके चलते मैं इस बार भी एक आम प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा से ग्रस्त रहा.. और एक विशेष प्रकार की हिंसा का संचार भी अनुभव करता रहा अपने भीतर.. और शरीर के अलग अलग अंगों में इसका असर भी महसूस करता रहा..

यदि दुनिया आभासी नहीं होती तो शायद इस हिंसा का असर सामने वाले पर होता.. हिंसा मानसिक धरातल से निकल कर भौतिक धरातल पर आती.. कुछ चोट उसे आती थोड़ी मुझे आती.. पर आभासी दुनिया में वह मुझे मारे.. या मैं उसे.. हिंसा मेरे ही मानसिक संसार में होती है.. दोनों वार मेरे ही मन पर होते हैं.. जिस प्रकार की विचित्र बीमारियों का शिकार हम शहरी लोग होते हैं.. वह इसी प्रकार की हिंसा और क्लेशों का परिणाम नहीं है, कौन ठीक ठीक कह सकता है..

मैं स्वार्थी आदमी हूँ.. लम्बा जीवन जीना चाहता हूँ.. और रोग मुक्त रहना चाहता हूँ.. इसीलिये शांति तलाशता हूँ.. अपने लिये.. फिर दूसरों के लिये भी.. जिन मित्रों के प्रति मैं नकारात्मकता और हिंसा पालता रहा वे माफ़ करें मुझे.. मैं उन्हे माफ़ करता हूँ.. वे न भी माफ़ करें तो वे स्वतंत्र है मुझे और गालियां देने के लिये.. मुझ पर सीधे और छिपे.. और हमले करने के लिये.. मैं उन्हे सह कर शांत रहने का प्रयत्न करूँगा..

मैं इस दुष्चक्र से बाहर आना चाहता हूँ.. निर्मल आनन्द को प्राप्त होना चाहता हूँ.. लेकिन.. बहुत कठिन है डगर पनघट की..

14 टिप्‍पणियां:

azdak ने कहा…

बहुत टेढ़े-मेढ़े हो लिए, अब सचमुच शां‍त हो जाइए.. वर्ना दूसरों की तो नहीं जानता मगर मेरा दिमाग़ सचमुच चला हुआ है.. और हिंसा पर उतारू हुआ, ये कतई अच्‍छा न होगा.. और मैं आभासी नहीं, वास्‍तविक हिंसा की बात कर रहा हूं.. तो सलाह मानिए, और एकदम्‍मे निर्मल रहिये.. और मिनट-मिनट पर उड़ि‍ए नहीं, आनंद के संचारी संसार में रहिए.. हद है!

बोधिसत्व ने कहा…

blog ka marij ho gaya hoon
subah uthkar pahle aap ke nirmal aanad ka ek fera lagana achcha lagta hai
bhayi
kisi se ummid na karo yah to achchi bat nahin hai
pramod bhayi ko bhi dekho gussa aa raha hai
kayi pahle se hi tav khaye baithe hain
ab jane do aur sach much nirmal aanand ki taraf lago
kisi ke kah dene se sari purani baten aur manyataye mit nahin jati
sansar ek dhruviy filhal abhi bhi nahin huaa hai
aap apna kam kare
mast rahehain
bakoul kabir
haman hain ishk mastana
haman ko hoshiyari kaya

ज्ञानदत्त पाण्डेय/Gyandutt Pandey ने कहा…

अभय उवाच: ...मैं स्वार्थी आदमी हूँ.. लम्बा जीवन जीना चाहता हूँ.. और रोग मुक्त रहना चाहता हूँ...
यह स्वार्थ नहीं होता कि व्यक्ति स्वस्थ व दीर्घायु हो. यह जीजीविषा है. उसके बिना जीवन निस्सार है.

Arun Arora ने कहा…

मित्र एक हफ़्ते ब्लोग नाम की बिमारी से दूर रहो
ज्यादा करो किसी आश्रम मे आखे बंद कर चले जाओ आखे खोल कर जाओगे तो और बीमारी को आंमंत्रण दे बैठोगे

चंद्रभूषण ने कहा…

मेरे ख्याल से कुछ दिन सिर्फ किताबों और संदर्भ वस्तुओं पर लिखिए। आभासी संसार में बहस एक श्रमसाध्य काम है और सार्थक बहस तो लगभग असंभव ही है। यहां किसी चर्चा का मकसद सिर्फ भिन्न मतों को समझने और चीजों के नए पहलू जानने भर का हो सकता है। सही या गलत, जायज या नाजायज, जेनुइन या इनजेनुइन जैसी चीजों का यहां कोई अर्थ शायद सिर्फ तभी हो जब हम अपनी कोई कोटरी बनाकर बैठ जाएं। ...और ऐसी कोटरी हम यहां बना भी लें तो उसका करेंगे क्या?

ढाईआखर ने कहा…

अभय जी, जो दिमाग के साथ दिल भी रखते हैं और जिनका दिल अक्सर, दिमाग पर हावी हो जाता है- उनके साथ ऐसा होता है। सक्रिय ब्लॉगिंग के एक महीने में मुझे कई बार लगा कि शायद अब आगे नहीं हो पायेगा। क्यों, क्योंकि जिस तरह का 'बिलो द बेल्ट' वार, उकसावे पूर्ण टिप्पणियां, जानबूझकर व्यक्तिगत हमले, होते हैं, उसने काफी व्यथित किया। मैं इस काम के लिए ब्लॉग की दुनिया पर नहीं आया। आप तो ब्लॉग के माहिर हैं। शायद आप कुछ लोगों की ही वजह से ही मैं बार-बार लौट आ रहा हूँ। इस व्यक्तिगत पीडा को सामूहिक पीडा में बदल दीजिये तो सबका भला होगा। मेरे लिए सबसे अहम बात यह है कि, मानवीय संवेदनाएं ही हमें पाश्विक प्रवृतियों से अलग करती हैं। और आपकी संवेदनाएं मरी नहीं हैं। निर्मल रहें, आनंद लें।

dhurvirodhi ने कहा…

गालिब की ये गजल गुनगुनाईये:-
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आये क्यों
रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये क्यों

दैर नहीं हरम नहीं दर नहीं आस्ताँ नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम ग़ैर हमें उठाये क्यों

जब वो जमाल-ए-दिलफ़रोज़, सूरत-ए-मेह्र-ए-नीमरोज़
आप ही हो नज़्ज़ारासोज़, पर्दे में मुँह छुपाये क्यों

दश्ना-ए-ग़म्ज़ा जाँसिताँ, नावक-ए-नाज़ बेपनाह
तेरा ही अक्स-ए-रुख़ सही, सामने तेरे आये क्यों

क़ैद-ए-हयात-ओ-बन्द-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाये क्यों

हुस्न और उस पे हुस्न-ए-ज़न रह गई बुलहवस की शर्म
अपने पे एतिमाद है ग़ैर को आज़माये क्यों

वां वो ग़ुरूर-ए-इज़्ज़-ओ-नाज़ यां ये हिजाब-ए-पास वज़अ
राह में हम मिलें कहाँ, बज़्म में वो बुलायें क्यों

हाँ वो नहीं ख़ुदापरस्त, जाओ वो बेवफ़ा सही
जिसको हो दीन-ओ-दिल अज़ीज़, उसकी गली में जाये क्यों

"ग़ालिब"-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बन्द हैं
रोईए ज़ार-ज़ार क्या, कीजिए हाय-हाय क्यों

Yunus Khan ने कहा…

इस दुष्‍चक्र से बाहर आने का एक रास्‍ता ये है कि आप टिप्‍पणीयों के असर से ऊपर हो जाईये । ब्‍लॉगिंग की दुनिया में रहिये मगर पानी में तेल जैसे । जैसे पत्‍थर ऊपर पानी । मुद्दा बस इतना ही है कि निर्मल आनंद में रहकर ही आप निर्मल और सानंद रह पाएंगे ।

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

भाई,टिप्पणीयॊ को जहाँ तक बात है यह सभी को कई बार बेनाम नाम से मिलती रहती है। जो काफी अभद्र तरीके से की जाती हैं।लेकिन उन के कारण परेशान होना बेकार है।उन्हे नजरअंदाज ही करना बेहतर होता है।

बेनामी ने कहा…

कई दिनों से दिखे नहीं, अब समझा अकेले बैठे उबल रहे थे. ब्लॉग को आप ज़रूरत से ज़्यादा गंभीरता से ले रहे हैं, जब आप हिंसक हो रहे थे तब क्यों नहीं लिखा, क्या आप केवल अच्छी छवि पेश करना चाहते हैं, ईमानदार छवि नहीं? अरे, यूँ ही छेड़ रहा था. उम्मीद है, अब आप कुछ बेहतर महसूस कर रहे होंगे. अपना ध्यान रखें, स्वस्थ रहें और दीर्घायु हों...ढेर सारी शुभकामनाएँ, आपका मन सचमुच निर्मल है, ऐसा लिखने का मन कर रहा है, मैं विश्वास है कि मैं सही हूँ.
आनंद करें.
अनामदास

अनिल रघुराज ने कहा…

अंदर और बाहर की उलझनों को सुलझाए बगैर, या कम से कम उन्हें सुलझाने की दृष्टि पाये बगैर न तो शांति मिल सकती है और न ही निर्मल आनंद। जूझना और लड़ना ही शांति तक पहुंचने का एकमात्र रास्ता है। जिंदगी चक्रव्यूह से कम नहीं, हर व्यूह को भेदने की कला अभिमन्यु को अपने संघर्ष से ही मिलेगी।

Rising Rahul ने कहा…

शांति तो नही मिल पाएगी क्योंकि वो तो है ही नही. और जो नही है क्या उसको पाने की सोच रहे हैं ? या की शांति का प्रयोग आप उर्जा के संदर्भ मे कर रहे हैं ? मुझे लगता है उर्जा ही होगा . शायद यू जी आपकी कुछ मदद कर सकें .

अजित वडनेरकर ने कहा…

शुक्र है ....

ऋचा ने कहा…

bhut sahi kha anyay or ashanti s ladne k liye khud ashant ho jana jra b budhimtta nhi h.. aawshyk h samjhdari or saym ke sath jiwn wytit krna

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