दुनिया डेढ़ सौ साल में बहुत बदल गई है। दुनिया का एक हिस्सा दूसरे हिस्से के बेहद करीब आ गया है। 'देश' के आयाम में कोई फ़र्क नहीं आया है मगर 'काल' का आयाम सिकुड़ गया है। एक हिस्से का दूसरे पर प्रभाव पहले भी पड़ता था। अब भी पड़ता है। मगर जो प्रभाव प्राचीन काल में हजार बरस में पड़ता, मध्यकाल में दस साल में पड़ता, आज के समय में वही प्रभाव दस दिन से भी कम समय में पड़ सकता है। कुछ प्रभाव तो साथ-साथ ही पड़ते हैं।
ऐसे में किसी एक विकसित व परिपक्व हो गए हिस्से में क्रांति हो भी गई, तो क्या? दूसरे अपरिपक्व हिस्से उस पर प्रतिक्रिया करेंगे। तत्काल प्रतिक्रिया। और क्रांति को विफल कर देंगे। एक देश के भीतर तो ऐसे प्रयास होते रहे हैं। और स्वतंत्र राज्यों की 'क्रांति' को विफल करने के भी प्रयास किए जाते रहे हैं, अमरीका द्वारा वियतनाम और निकारागुआ जैसे तमाम अन्य देशों में। या तत्कालीन सोवियत रूस द्वारा प्रतिक्रांति(!) को विफल करने की चेकोस्लावाकिया और अफ़गानिस्तान में की कोशिशें भी ऐसी ही प्रतिक्रिया का उदाहरण रही हैं।
यानी जब तक यह समूचा विश्व एक साथ क्रांति के लिए परिपक्व नहीं हो जाता। तार्किक तौर पर क्रांति नहीं हो सकती। मतलब क्रांति तभी होगी जब पूरा विश्व एकरस हो जाएगा। और एकरस तो होना निश्चित है। पूँजीवादी बाज़ार का जो आक्रामक तेवर अभी दुनिया में चल रहा है, उसे देख कर दूर-दूर के इलाक़ो का भी आमूल-चूल परिवर्तन होना तय दिख रहा है। इस प्रक्रिया में पर्यावरण, वन्य-जीवन, लोक-परम्परा और परिपाटियों के नाश का एक आसन्न खतरा भी साफ़ नज़र आता है। देखना होगा कि प्रतिरोधी शक्तियाँ कितना बदल पाती हैं बाज़ार के इस विनाशकारी मिज़ाज को।
इतना सब हो चुकने के बाद जो भी नुची-खुची या अतिसमृद्ध जो भी दुनिया होगी उसके भीतर साधनों और सम्पदा के साझे अधिकार की समझ को व्यवस्था में नीतिबद्ध कर देने की प्रक्रिया के लिए क्या किसी रक्तपात की आवश्यक्ता होगी? और उस सूरत में इस प्रकार के अवस्था-परिवर्तन को क्या क्रांति कहना उचित होगा?
8 टिप्पणियां:
अभय जी,
रक्तपात तो नहीं होना चाहिए, क्योंकि अगर रक्तपात के बाद ये पता चले कि जिस क्रांति को आना था वह नहीं आई तो तकलीफ दो गुना बढ जायेगी.
समय ने सिद्ध कर दिया है कि बाबा मार्क्स का चिन्तन कितना गहरा था । मैने मार्क्सवाद को जितना भी पढ़ा, मुझे सब कुछ उच्च कोटि का वाक्-जाल ही लगा। कोई मुझे बताये कि इन डेढ़ सौ वर्षों में मार्क्स की कौन सी भविष्यवाणी सही साबित हुई?
ऐसे में यदि बाबा की लकीर पीटने वालों को सबसे बड़ा 'फण्डामेन्टलिस्ट' और कठमुल्ला कहा जाय तो गलत नहीं होगा।
शिवकुमारजी मैं आप से सहमत हूँ..
अनुनाद, जो लोग मार्क्स को भविष्यवक्ता या भगवान समझने की भूल करेंगे उनका ये रूप हो ही जाना है..मार्क्स एक विचारक थे.. दुनिया की हर बीमारी के इलाज की पुडिया नहीं.. उनके पहले भी लोगों ने अदभुत बाते कहीं है.. आगे भी कहेंगे.. वे मानव के वैचारिक विकास का आदि और अन्त थोड़ी हैं.. पर साथ ही साथ उनके योगदान और वैचारिक ऊँचाई को अनदेखा करके लाभान्वित न होना भी बेवकूफ़ी होगी..
आपकी मार्क्स पर आस्था मुझे प्रभावित करती है. बाकी देखें, क्या होता है!
बहुत बीहड़ व टेढ़े सवाल हैं.. इसीलिए तो घर-बाहर हर कहीं इनपर सोचते-सोचते जीना मुहाल बना हुआ है..
मने कुल जमा समझ में ये आया कि हिंसा के बग़ैर आप क्रांति करना चाहते हैं. मानता हूँ कि हिंसा का विरोध हर स्तर पर होना चाहिए, मगर हिंसा के बिना परिवर्तन होता नहीं है. देखें कैसे:
1- दो सौ अड़तीस साल तक नेपाली जनता ने राजशाही को अवसर दिया -- मगर माओवादियों की बंदूक़ ही राजा को (संभवतया राजशाही को भी) कोने में बिठा सकी.
2- सद्दाम हुसैन ने हिंसक राज चलाया, बुश ने बम मार मार कर इराक़ियों के चीथड़े उड़ा दिए और अब इराक़ी तमाम लोगों के चीथड़े उड़ा कर अमरीकी जनतंत्र का ये प्रयोग असफल करने में लगभग सफल हो रहे हैं.
3- इसराइल गनशिप से मिसाइल छोड़ता है, फ़लस्तीनी लोग टुकड़ों में बदल जाते हैं... फ़लस्तीनी ख़ुद पर बम बाँधकर इसराइलियों के बीच स्वाहा हो जाता है. दुनिया का ध्यान इस समस्या की ओर बना रहता है.
4- वियतनाम का ज़िक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं.
5- कश्मीर तब तक नक़्शे के पीछे रहा जब तक वहाँ एके-47 का राज नहीं हुआ.
6- सुभाष बोस, भगत सिंह आदि वादि की भी बात नहीं करूँगा.
7- गाँधी की राजनीति अँगरेज़ों को सुहाती थी -- क्योंकि ख़तरनाक या हिंसक नहीं थी.
इसका मतलब ये नहीं है कि हिंसा अत्यावश्यक अवयव है. उसके बिना भी काम चल सकता है.
काट दिए गुरू...? अनुनाद सिंह पर मेरे आप्त वाक्य को थोड़ा फ़िल्टर करके लगा देना था...
पर आप मालिक हैं. आपकी सदिच्छा.
भाई बेनाम, अनुनाद मेरे पाठक हैं.. उनके मान की रक्षा मेरा धर्म है..
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