पेड़ का खड़े-खड़े गिरना तो फिर भी समझ आता है; उसमें जीवन मानते हैं कुछ लोग। मगर जड़-निर्जीव चीज़ें? कभी अचानक एक स्टील की प्लेट छनछना कर किचेन में उत्पात करती है, कभी कोई परदा, पेलमेट से अपना नाता तोड़ लेता है। एक बार तो मेरी किताबों की भारी-भरकम रैक जो दीवार के साथ मजबूती से जड़ी गई थी, अचानक फ़र्श की मोहब्बत में गिर गई (जब से अंग्रेज़ इस मुल्क में आए हैं तब से लोग और चीज़ें मोहब्बत में सिर्फ़ गिरते हैं- फ़ेल इन लव, यू नो- उनके पहले उठने की भी रवायत थी)। बाद में पता चला कि दीवार और रैक के बीच अलगाव की यह आग, सीलन ने लगाई थी। बताइये, हद है! बाद में उसे खुद अपनी गलती का एहसास हुआ कि फ़र्श के साथ उसकी मोहब्बत एक छलावा थी, धोखा थी। कई दिनों तक दीवार और रैक, दोनों ने एक दूसरे से कोई बात नहीं की, लेकिन एक बढ़ई ने आकर दोनों का वापस मेल-मिलाप करा दिया।
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क्या इसे जीवन कहना उचित नहीं होगा? शायद नहीं। क्योंकि इनमें चेतना का अभाव है? या कहीं यह तो नहीं कि हमारी चेतना, उनकी चेतना को पहचानने में सक्षम नहीं? जिस पृथ्वी की मिट्टी, हवा और पानी में लगातार करोड़ों सालों से एक जीवन चल रहा है, जीवधारी जन्म-मरण की एक सतत प्रक्रिया में लगे हुए हैं, उस पृथ्वी को निर्जीव कहना कहाँ तक तर्कसंगत है? क्या पृथ्वी अपनी समष्टि में एक जीवित, सचेत संरचना नहीं हो सकती? ये सारा जीव-निर्जीव प्रपंच उसके विभिन्न अवयव ही तो हैं। आखिर हम जीवधारियों का शरीर भी तो अलग-अलग स्वतंत्र कोशिकाओं का एक समुच्चय भर ही तो है।
6 टिप्पणियां:
जैसे नर से बाहर नरोत्तम और नराधम हैं.. उसी तरह पुरूष से बाहर प्रवहमान- प्रकट में शांत, किंतु भीतर ही भीतर ओजस्विनी ऊर्जा में ओतप्रोत-व्यापक अजीव जीवन का उद्घोष है!
जीवन है! जीवन है!
- स्वामी आमोदानन्द
कोई चीज जड़ नहीं है..विज्ञान की भाषा में भी देखें तो पायेंगे कि इलेक्ट्रान,प्रोटान तो घूम ही रहे हैं हर अणु में तो फिर जड़ कैसे? हाँ ये सही है कि हम चेतन जरूर नहीं है जो उस को देख नहीं पाते. हमें कोई जगदीश चन्द्र बोस या रदरर्फोर्ड चाहिये होता है ये बताने के लिये.
हमें इन सब घटनाओं को बस अचानक हो जाने वाली दुर्घटनाएँ नहीं मान लेना चाहिये । मुझे तो लगता है ये निर्जीव कहलाने वाली वस्तुएँ भी अपनी एक इच्छा रखती हैं । दो दिन से मेरे घर में पेल्मेट पर रखी दो पेन्टिन्ग्स मेरा सिर फोड़ने का दृढ़ संकल्प किये हुए हैं । तीन बार मेरा सिर बाल बाल बचा ।
अब मैंने उन्हें अलमारी में कैद कर दिया है ।
घुघूती बासूती
"ये सारा जीव-निर्जीव प्रपंच उसके विभिन्न अवयव ही तो हैं।"
जीव, निर्जीव absolute नहीं relative शब्द हैं.
काकेश जी ने सही कहा ।
संसार में कोई चीज़ जड़ नहीं है । वैसे खगोलविज्ञानियों के सिद्धांत कहते हैं कि हो सकता है
पृथ्वी किसी जबर्दस्त ब्रम्हान्डीय प्रणाली का एक हिस्सा हो ।
यानी कहीं कोई ऐसी शक्ति हो जो अपनी गणनाओं से पृथ्वी नामक सिस्टम को चला रहा हो ।
आपने मैट्रिक्स देखी होगी । दोनों । उसमें भी वही सिद्धांत दर्शाया गया है ।
एक खगोलविज्ञानी हैं डा जे जे रावल । एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि संसार में ऊर्जा का कोई भी रूप
खत्म नहीं होता । उसका रूप बदल जाता है ।
यानी हो सकता है कि मेरी और आपकी आवाज़ की तरंगों को कई प्रकाशवर्षों दूर कोई सुन रहा हो,
वो भी हमसे आगे के समय में ।
मैंने उनसे पूछा आगे के समय में उन्होंने कहा,जी हां पीछे के आगे के समय में ।
क्योंकि हमारी तरंगें उस तक पहुंचने में भी तो कई प्रकाशवर्ष लग जायेंगे ।
यानी जो हमारा वर्तमान है उसके लिए वो अतीत है ।
और जो हमारा अतीत है उसके लिए वो परा अतीत है ।
यानी हो सकता है कि जो थाली झनझना के आपकी रसोई में गिरती है उसकी तरंगें कई प्रकाशवर्ष आगे की
किसी की दुनिया में कोलाहल मचा दें ।
कुछ भी निर्जीव नहीं है सरकार ।
दुनिया का ये विज्ञान इतना पेचीदा है कि सिर चकरा जाए ।
सही सही !
मेरी गाडी कभी कभी ऐसे मोहब्बत के खेल खेलती है । मोबाईल भी , अचानक रुठ कर सुस्त पड गई थी । पर ज़रा प्यार से पुचकारो तो रास्ते पर भी ऐसे ही आ जाती है । इलेक्ट्रानिक चीज़े , कई बार देखा है , अपनी मर्जी के मालिक होते हैं । आप लाख सिर पटक लें कब काम करेंगे कब नहीं ये सिर्फ़ और सिर्फ़ उनपर निर्भर करता है ।
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