माँ-बाप, भाई-बहन, रिश्ते-नातेदार ये सब तो हमें मिलते हैं; इनको चुनने में हमारी कोई भूमिका नहीं होती। मगर दोस्त हम खुद चुनते हैं। हम तय करते हैं कि कौन हमारा दोस्त होगा। या कोई होगा कि नहीं होगा? दोस्त तो वे रिश्ते हैं जो हमने अर्जित किए हैं। दुख इस बात का है कि जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं हमारे दोस्त बनने और दोस्त बनाने, दोनों की काबिलियत कमज़ोर होती जाती है। इसकी चर्चा मेरे दोस्त प्रमोद जी ने भी की।
दुनिया के महानतम निर्देशकों में से गिने जाने वाले ऑर्सन वेलेस की फ़िल्म मिस्टर आर्काडिन के एक दृश्य में आर्काडिन अपने दोस्तों के बीच एक टोस्ट करते हुए एक कहानी सुनाता है, जार्जियन परम्परा का पालन करते हुए। कहानी सुनने लायक है:
कल रात मैंने एक सपना देखा.. मैं एक कब्रिस्तान में था.. मगर सारी कब्रों के पत्थर पर एक अनोखी बात थी.. १८३०-१८३४, १९२२-१९२६.. सभी पत्थर इसी तरह के थे.. जिसमे पैदाइश और मौत के दरम्यान बहुत कम वक़्त था.. फिर मैंने देखा कि कब्रिस्तान में एक बहुत बूढ़ा आदमी भी था.. मैंने हैरान हो कर उस से पूछा कि वह इतने साल कैसे जी गया जबकि उस के गाँव के सारे लोग इतनी कम उम्र में अल्ला को प्यारे हो गए.. जानते हो उसने क्या कहा मुझसे?.. उसने कहा.. बात ये नहीं कि हमारे गाँव के लोग ज़्यादा नहीं जीते.. बात यह है कि यहाँ हम अपनी कब्रों पर आदमी की ज़िन्दगी के साल नहीं लिखते.. बल्कि वह मुद्दत लिखते हैं जितने वक़्त उसके पास एक दोस्त रहा..
13 टिप्पणियां:
अभय जी
आप की यह पोस्ट बहुत सुंदर है। वैसे भी आप अच्छा लिखते हैं। हमेशा कुछ ना कुछ अच्छी बातें करते रहते हैं।
सच है कि जब तक हम दोस्त होते हैं तभी तक इंसान भी होते हैं
लाजवाब पोस्ट के लिए धन्यवाद।
मेरे पत्थर पर पता नहीं कोई गिनती होगी या नहीं। पता नहीं मैं किसी का दोस्त हूँ या नहीं हाँ यह तय है कि मेरे बहुत सारे दोस्त हैं जो मुझे चाहते हैं मुझे जिंदगी देते हैं। मेरी पत्नी मेरी बहुत अच्छी दोस्त है पर पता नहीं मैं उसका कैसा और कितना दोस्त हूँ । दोस्त हूँ भी या नहीं। मैं संबंधों में बहुत गंभीर नहीं रह पाता हूँ क्या करूँ दोस्त। मेरी फितरत ही कुछ ऐसी है।
बहुत सही बात कही.
साम्यवाद से इतर सोचने लगो तो हमारी भी कब्र पार कुछ साल अंकित हो जायें!
आपने तो सोच में डाल दिया ।
हाँ आपका ये नया यूँ ही चला चल फोटो बढिया है ।
टुकड़ा-टुकड़ा जिंदगी में अब मुसलसल दोस्त मुश्किल से ही मिलते हैं। मिल भी जाएं तो कोई निभाए कैसे? मुझे लगता है, एक क्षण के लिए भी किसी से दोस्ती की जा सके- मसलन, पसिंजर डब्बे में किसी से खैनी मांगने के बहाने ही सही- तो वह मौका छोड़ा नहीं जाना चाहिए। कौन जाने, वहीं से कोई सिलसिला चल निकले...
जबर्दस्त पोस्ट. बूढ़े ने ठीक ही कहा.
मैं तो ऐसे देखता हूँ की इतनी बड़ी दुनिया में अगर दोस्त गिनना शुरू करें तो एक हाथ की उंगलियां भी ज्यादा पडती हैं. ऐसे में अगर नए दोस्त ना भी बना पाएं तो जितने हैं, उनके साथ तो दोस्ती बरकरार रहनी ही चाहिए.
हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं.
मैं अपना पत्थर देख रहा हूँ, सोच रहा हूँ कितने नाम होंगे, कैसे-कैसे होंगे. ये भी सोच रहा हूँ कि मैं कितने लोगों का दोस्त हो पाया, शायद बहुत छोटे से पत्थर की ज़रूरत हो, या ज़रूरत हो ही नहीं.
अब हम भी हिसाब किताब में जुट गये हैं ।
आपने चक्कर में डाल दिया है ।
अच्छा है कि अभी भी कुछ अच्छे दोस्त हैं हमारी फेहरिस्त में ।
हमारा तो गणित ही तबसे शुरु हुआ जब से आपको जाने हैं..अगर आस पास निपट गये तो ४ साल तो छोड़ो-४-६ महिने का हिसाब भी नहीं बनेगा और राऊन्डिग ऑफ में शून्य ही न हो जाये. :)
पता चलेगा कि बोर्ड ही नहीं टांगा मेटर के आभाव में. :)
यकीन था कि हमारी कब्र पर 25 साल की मियाद अंकित होगी। लेकिन बाद में पता कि ये तो हमारा भ्रम था, वो दोस्त तो छलिया निकला।
फिर तो कुत्ते पालने से ही लम्बी उम्र दिखेगी । मेरे जीवन में भी १५ वर्ष तो दिखेंगे ही ।
घुघूती बासूती
आज सारा दिन आपके ब्लॉग पर ही रहा... और दिन सफल रहा :)... ये अद्भुत है और यहाँ का माल बहुत प्रासंगिक बना रहेगा. एक बात कहूँगा अब उतनी जानकारी परक और रोचक तरीके से नहीं लिखते :( मैंने कई पोस्ट बुकमार्क भी कर ली... कुछ फेसबुक पर भी शेयर किया है.
आपको सलाम करता हूँ.
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