वह गीत आज इस देश का राष्ट्रगीत है.. आरोप लगाने वाले वे हैं जिनकी राजनैतिक धारा का स्वतंत्रता संग्राम से कोई लेना देना तक नहीं रहा.. और उन आरोपों पर विश्वास करने वाले यह तक भूल जाते हैं कि १९११ के कांगेस के उस अधिवेशन के पहले दिन वन्दे मातरम भी गाया गया था.. मेरी नज़र में यह हमारी विचारों की सीमाएँ ही है.. जो हम कवि के विराट कृतित्व को अपने क्षुद्र पैमानो से नापते हैं..
चित्त जेथा भयशून्य
चित्त जेथा भयशून्य उच्च जेथा शिर, ज्ञान जेथा मुक्त, जेथा गृहेर प्राचीर
आपन प्रांगणतले दिवस-शर्वरी वसुधारे राखे नाइ थण्ड क्षूद्र करि।
जेथा वाक्य हृदयेर उतसमूख हते उच्छसिया उठे जेथा निर्वारित स्रोते,
देशे देशे दिशे दिशे कर्मधारा धाय अजस्र सहस्रविध चरितार्थाय।
जेथा तूच्छ आचारेर मरू-वालू-राशि विचारेर स्रोतपथ फेले नाइ ग्रासि-
पौरूषेरे करेनि शतधा नित्य जेथा तूमि सर्व कर्म चिंता-आनंदेर नेता।
निज हस्ते निर्दय आघात करि पितः, भारतेरे सेइ स्वर्गे करो जागृत॥
Where the mind is without fear and the head is held high
Where knowledge is free
Where the world has not been broken up into fragments
By narrow domestic walls
Where words come out from the depth of truth
Where tireless striving stretches its arms towards perfection
Where the clear stream of reason has not lost its way
Into the dreary desert sand of dead habit
Where the mind is led forward by thee
Into ever-widening thought and action
Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake.
इसके बाद भी देश की आज़ादी और ईश्वर की सत्ता के सम्बन्ध के विषय में रवीन्द्रनाथ के आशय पर किसी को शुबहा हो तो उस व्यक्ति को किसी भी तरह विश्वास नहीं दिलाया जा सकता..
10 टिप्पणियां:
"भारत भाग्य विधाता" यदि ईश्वर है, तो भी राष्ट्र-गान के रूप में इसका क्या औचित्य है? राष्ट्रगान गाते समय कोई परमात्मा को याद करते हुए भजन नहीं गाना चाहता, बल्कि राष्ट्र-चिंतन करना चाहता है। इसके अलावा क्या नास्तिकों को भी इससे परेशानी नहीं होगी? मेरे ख़्याल से राष्ट्रगान तो किसी ऐसे गीत को होना चाहिए जो राष्ट्र के प्रति गौरव का भाव जाग्रत कर सके, न कि ईश्वर को समर्पित किसी भजन को। इस बारे में आपकी क्या राय है?
प्रिय प्रतीक..सवाल यहाँ पर जार्ज पंचम की स्तुति की था.. वरना तो राष्ट्र अपने आप में एक शोषक अवधारणा है.. कल तक लाहौर अपना था..रहने वाले हमारे अपने थे.. आज दुश्मन हैं.. क्या बकवास है..!! वसुधैव कुटुम्बकम..!!
मगर इतना आसान तो नहीं है सब.. देश हैं.. राष्ट्र हैं.. पाकिस्तान है.. आंतकवाद है.. सेना है.. कश्मीर है.. दंगे हैं.. सब ठोस सच्चाई है..इसी के बीच गिरते पड़ते जीना है..लड़ते लड़ते जीना है..
अपनी न्याय व्यवस्था तो मुझे किसी नौटंकी से कम नहीं लगती.. काल कोट पहन कर आप एक सफ़ेद विग पहने आदमी को मी लार्ड कह कर जिरह करते हैं.. ये क्या ढो रहे हैं हम लोग..? पर इसी न्याय व्यवस्था से कितने लोगों के जीवन का फ़ैसला होता है.. क्या करेंगे..?
अभय जी स्कूल की असेम्बली में हमारे प्रिसिंपल इस कविता की एक-एक लाइन पढ़ते थे और हम सभी बच्चे इसे एक साथ दोहराते थे। आपने स्कूल के दिनों की याद दिला दी। कविता की ये पंक्तियां मुझे आज भी प्रेरित करती हैं...
Where the clear stream of reason has not lost its way into the dreary desert sand of dead habit,
Where the mind is led forward by thee into ever-widening thought and action,
Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake.
प्रतीक से बात अधूरी रह गई.. राष्ट्रगान क्या होना चाहिये इस पर मेरी कोई राय नहीं है.. क्योंकि मुझे राष्ट्रगान जैसी किसी चीज़ पर आस्था नहीं है.. जिन्हे है उनसे मेरा कोई विरोध नहीं.. मैं यहाँ सिर्फ़ रवीन्द्रनाथ की अस्मिता की रक्षा की नन्ही कोशिश कर रहा हूँ.. मेरे लिए राष्ट्र से बड़े राष्ट्रवासी और उनकी अस्मिताएँ हैं..
अब इसका मतलब यह ना निकाला जाय कि मैं राष्ट्रद्रोही हूँ.. वितण्डावादी ऐसा आरोप लगाने की ताक में ही होंगे..
अभय भाई 'चित्त जेथा भयशून्य' का हिंदी अनुवाद, शायद ये शिवमंगल सिंह सुमन का है, पक्की तौर पर नहीं कह सकता । मेरे पास ये अनुवाद वर्षों पहले से पड़ा था ।
जहां चित्त भय से शून्य हो
जहां हम गर्व से माथा ऊंचा करके चल सकें
जहां ज्ञान मुक्त हो
जहां दिन रात विशाल वसुधा को खंडों में विभाजित कर
छोटे और छोटे आंगन न बनाए जाते हों
जहां हर वाक्य दिल की गहराई से निकलता हो
जहां हर दिशा में कर्म के अजस्त्र सोते फूटते हों
निरंतर बिना बाधा के बहते हों
जहां मौलिक विचारों की सरिता
तुच्छ आचारों की मरू रेती में न खोती हो
जहां पुरूषार्थ सौ सौ टुकड़ों में बंटा हुआ न हो
जहां पर कर्म, भावनाएं, आनंदानुभूतियां
सभी तुम्हारे अनुगत हों
हे प्रभु हे पिता
अपने हाथों की कड़ी थपकी देकर
उसी स्वातंत्र्य स्वर्ग में
इस सोते हुए भारत को जगाओ
क्या बात है युनूस भाई.. आनन्द आ गया.. मैं मेहनत करने से थोड़ी कोताही कर गया.. आपने कमी पूरी कर दी.. बहुत शुक्रिया..
अभयजी और युनुस खान को शुक्रिया ।
-राष्ट्र अपने आप में एक शोषक अवधारणा है.
-मुझे राष्ट्रगान जैसी किसी चीज़ पर आस्था नहीं है.
सही कहा अभय भाई.
एक तो यूँ ही आपका चिन्तन बेहतरीन था और उस पर यूनुस भाई की टिप्पणी-सोने पे सुहागा. बहुत बढ़िया रहा पूरा पठन.
अभय जी आपको बधाई । अच्छी जानकारी सबके सामने लाने के लिए। ढाईआखर पर भाई नासिरूद्दीन ने भी गुरूदेव के पत्र को पेश कर पुण्यकार्य किया है। मगर संदेह तो बने ही रहेंगे लोगों के मन में। दरअसल इतना अर्सा गुज़र चुका है। अब इन बातों से ज्यादा कुछ फर्क नहीं पड़ता। जिन्हें गुरूदेव की चाटूकारिता प्रचारित करनी हो, वे करते रहें। शंकराचार्य ने भी अरब से केरल पहुंचे इस्लामी धर्मदूतों के सम्पर्क में आने के बाद एकेश्वरवाद का महत्व जाना और फिर उसका प्रचार किया । ऐसे अनेक तथ्य हैं जिनके बारे में लोग बहस करते रहेंगे ।
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