हमारी स्वतंत्रता का दूसरा पहलू आज़ादी है.. वैयक्तिक आज़ादी.. इस विषय पर मैं बाबा मार्क्स को याद करना चाहूँगा.. हम एक समाज की ओर बढ़ रहे हैं जिसमें ज़्यादा से ज़्यादा लोग धीरे धीरे मज़दूर बनते जा रहे हैं.. आई टी सेक्टर में काम करने वाला भी मज़दूर है और एक बड़े अस्पताल में काम करने वाला डॉक्टर भी.. मेरे जैसा एक लेखक भी.. और अनूप जी जैसे अफ़सर भी.. मेरी एक पिछली पोस्ट में भी मैंने बाबा को याद किया तो पोस्ट की मूल बात से तो बड़े भाई ज्ञान जी खूब सहमत हुए मगर बाबा मार्क्स को बिल्कुल नकार दिया.. मेरा ख्याल है कि बाबा को गलत समझा जा रहा है.. बाबा मार्क्स एक कमाल के दिमाग के स्वामी थे.. उनकी बारे में कोई भी राय उनको पढ़ कर लगनी चाहिये न कि उन के समर्थकों को देख-पढ़कर.. आज कल के हमारे देश के कम्यूनिस्टों को देखकर तो कतई कोई राय बाबा के बारे में न बनायें.. नहीं तो ये वैसा ही होगा जैसे कि कोई भक्तों को भड़ैती देखकर भगवान को नकार दें..१८४४ में रचित इकोनोमिक एंड फिलॉसॉफ़िकल मैन्यूस्क्रिप्ट से यह अंश समझने योग्य है..
..मज़दूरी मज़दूर के लिए बाहरी है(आन्तरिक नहीं)-- यानी यह उसके मूल अस्तित्व से नहीं उपजती; ऐसे कि मज़दूर अपने काम में अपने आप को पुनर्स्थापित नहीं करता बल्कि नकारता है, खुश नहीं होता दुख पाता है, स्वतंत्र मानसिक और शारीरिक ऊर्जा विकसित नहीं करता बल्कि अपने हाड़-मांस को दफ़नाता है और दिमाग को नष्ट करता है। इसलिए मज़दूर अपने अस्तित्व को तभी महसूस कर पाता है जब वह काम नहीं कर रहा हो; जब वह काम कर रहा होता है, वह अपने को महसूस नहीं करता। वह जब काम नहीं कर रहा तो चैन से(रिलैक्स्ड) है और जब काम कर रहा है तो राहत नहीं है(तनाव में है)। क्योंकि उसका श्रम उसकी मरज़ी का नहीं है बल्कि थोपा हुआ है। और इसलिए यह किसी ज़रूरत का शमन नहीं बल्कि इस काम से अलग की ज़रूरतो को बुझाने का एक साधन मात्र है। इसका अलगाव वाला गुण इस बात से साफ़ ज़ाहिर हो जाता है कि जैसे ही कोई भौतिक या दूसरा दबाव नहीं रहता, कोई भी मज़दूरी नहीं करना चाहता। थोपी हुई मज़दूरी, वह मज़दूरी जिस में आदमी अपने आप से अलगाव महसूस करता है, वह मज़दूरी है जिसमें अपने ही हाड़-मांस की बलि दी जाती है, उसे दफ़नाया जाता है। इस मज़दूरी का बाहरी स्वभाव इस बात से भी ज़ाहिर होता है कि इस पर मज़दूर का नहीं बल्कि दूसरे का अधिकार होता है.. उस से मज़दूर के अपनेपन की हानि होती है..
अब बताइये कितने लोग हैं जिन पर यह बात लागू नहीं होती..? मगर इसी बेरहम दुनिया में हमारी आज़ादी के भी बीज छिपे हुए हैं.. जैसे ये हमारा ब्लॉग.. ये हम किसी के दबाव में नहीं लिखते.. जो मन आता है लिखते हैं.. कुछ लोगों को टिप्पणियों का दबाव लगता होगा.. मगर आप टिप्पणी करने के लिए किसी को मजबूर नहीं कर सकते.. ये एक ऐसी सामाजिक सीमा है जिसका अतिक्रमण आप किसी आदर्श समाज में भी नहीं कर सकते.. साम्यवाद में भी नहीं.. आप किसी स्त्री/पुरुष से प्रेम करने के लिए तो स्वतंत्र है पर उसे वापस प्रेम करने के लिए बाध्य नहीं कर सकते.. ये हमारी आज़ादी की सीमा है..
हमारा जीवन का अधिकतर समय ऐसी गतिविधि में जाता है जिसे हम बाध्यता में कर रहे होते हैं.. मज़दूर हो या अफ़सर, एक बाध्यता बनी रहती है.. ज्ञान जी अफ़सरी के ठाठ का आनन्द तो लेते होंगे मगर रोज़ सवेरे-सवेरे उठ कर दफ़्तर जाकर गाड़ियों का संचालन करना उनके आदर्श दिन की रूपरेखा न होगा.. पर ब्लॉग तो वह किसी के निर्देश पर किसी दबाव में नहीं लिखते.. अपनी मौज अपनी आज़ादी से लिखते हैं..
हम सब के जीवन में ऐसी फ़ुरसत और आज़ादी और और आए ऐसी कामना करता हूँ..
8 टिप्पणियां:
कंटिया फसाने की कोशिश न करो अभय! इन वादों की यथार्थ विकृतियां बहुत देखी हैं. रही बात मार्क्स-दर्शन पढ़ने की; वह शायद अब नहीं हो पायेगा. शायद तब पढ़ने का मन हो; जब जो सोचा है उससे जबरदस्त मोह भंग हो! :)
तथास्तु ।
‘मजदूर अपने अस्तित्व को तभी महसूस कर पाता है जब वह काम नही कर रहा हो, जब वह काम कर रहा होता है, अपने को महसूस नही करता. वह जब काम नही कर रहा तो मजे मे है और जब काम कर रहा है तो मजे मे नही है’.....
सही है....अब समझ मे आया कि मजदूर को मज़ा देने के लिए हडताल की जाती है...आखिर कौन मजा नही करना चाहेगा...
’बाबा’ की मजदूर-मन पर बडी गहरी पकड साफ दिखाई देती है...
शिवकुमार जी आप बाल की खाल न निकालें.. भाव पर जायँ.. मार्क्स यहाँ पर काम करते हुए होने वाले तनाव की बात कर रहे हैं.. यानी कि जब मजदूर काम कर रहा होता है तो उसका अस्तित्व तनाव में होता है.. और जब काम नहीं कर रहा होता तो उसका अस्तित्व तनाव में नहीं होता..
अंग्रेज़ी अनुवाद में at home लिखा है.. जिसका अर्थ होगा.. आराम.. लेकिन हिन्दी में आराम को हरामखोरी समझा जाता है..जो अपने आप में एक शोषण करने वाला शब्द है.. मतलब अगर कोई मजदूरी नहीं करता तो उसे जीने का हक नहीं.. खाने का हक नहीं.. जैसे आप बैल को कहें कि वह हराम खोरी करता है.. जैसे उसका जन्म आप के खेत को जोतने के लिए ही हुआ हो..
इसलिए मैंने मजा शब्द का इस्तेमाल किया मगर देखिए गलतफ़हमी हो ही गई.. परन्तु भाईसाहब यहाँ मार्क्स का इशारा कुछ और है.. वे कहना चाह रहे हैं.. इस तनावपूर्ण काम से अलग भी एक तरह का काम करता है आदमी.. उसका काम करने का कुदरती तरीका.. जो अपनी तरंग में अपने मौज में किया जाता है.. जिसे मैं ब्लॉग लिखने से मिला रहा हूँ..
और आप खुद को अफ़सर ही समझ रहे हैं.. मजदूर नहीं.. फ़ैक्ट्री में मशीन चलाने वाला और हड़ताल करके मजे करने वाला ही सिर्फ़ मजदूर नहीं होता.. सब तरह के मजदूर होते हैं.. अगर आप अपनी दुकान या फ़ैक्ट्री या फ़र्म नहीं चला रहे तो.. मैं कह रहा हूँ कि आप भी मजदूर हैं..
इस भ्रांति का दोहराव न हो इसलिए मैं ऊपर लिखे की भाषा को बदल रहा हूँ..
अभय जी,
अब मार्क्स इशारो की भाषा मे बात करेंगे तो गलतफहमी हो ही सकती है...आप खुद ही सोचिये, लिखे हुए शब्दो की वजह से गलतफहमी हो जाती है, तो इशारे मे कही गई बात तो गलतफहमी पैदा कर ही देगी....
पंद्रह अगस्त के पावन अवसर पर बाबा को सलाम!!
सही लिखा अभय जी. मरकस बाबा बहुत दिनों बाद दिखे. उम्मीद है अब जल्दी-जल्दी दिखेंगे.
बाबा को मेरा भी परनाम.
बात सही है ।पर यह देखिये कि फ़ुरसत और आराम को षडयन्त्र के तहत हम मज़दूरों की ज़िन्दगी से बाहर कर दिया गया है ।हम तो फ़िर भी ब्लाग लिख कर इन्टेलेक्चुअल अय्याशी कर पाते है ।दिहाडी मज़दूर या नौकर को मालिक या तन्त्र समय नही देना चाह्ते। विचार और सोच उपजने लगेगी न ! फ़िर शासक के लिए समस्या पैदा होगी ।नौकर को खाली समय या आराम देने का मतलब उसे हरामखोर बनाना ही तो समझा जाता है ।नौकर माने गधेलू,जड,अनपढ आदमी जिसके हाद-गोड नौकर होने के कारण ही तोडे जा सकते हों ।
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