गुरुवार, 2 अगस्त 2007

कितना कुछ बदल गया

कल से मेरे घर के बाथरूम में तोड़फोड़ चालू है.. मेरे बाथरूम में कुछ रिसाव की वजह से मेरे नीचे रहने वाले पड़ोसी परेशान थे.. चार-पाँच महीने पहले भी एक बार उन्होने मुझसे कहा था.. तब मैं कुछ ज़्यादा ही आर्थिक तंगी में था..अब भी हूँ.. और ये तो बनी रहने वाली चीज़ है.. तो मैं तुरंत रिसाव के निदान में नहीं कूद गया.. सोचा कि उन्हे धकेलने देता हूँ.. पर मेरे पड़ोसी इतने भले और शांत आदमी हैं कि उन्होने दुबारा पलट कर तभी गुहार लगाई जब उनके भी नीचे रहने वाले रिसाव की शिकायत करने लगे.. और उसके लिए मेरे पड़ोसी को तंग करने लगे.. खैर.. मैंने दो रोज़ पहले उनके घर की हालत देखी और अपराध बोध को प्राप्त हुआ.. हाल बहुत बुरा था.. खैर काम शुरु कराया गया..

दो मज़दूर काम पर लग गए.. एक छेनी ले के तोड़ता रहा.. दूसरा टूटे हुए मलबे को नीचे ले जा कर फेंकता था.. बात करने पर पता चला कि दोनों लोग बोधि भाई के ज़िले भदोहीं के हैं..और सुरियावां के पास के रहने वाले हैं.. जिसकी चर्चा ज्ञान जी भी करते रहे हैं पिछले दिनों.. जान के अच्छा लगा.. वे लोग काम करते रहे.. मैं अन्दर के कमरे में बैठ कर कुछ काम करता रहा.. थोड़ी देर बाद बाहर से कुछ अनजानी आवाज़ आने लगीं.. तो बाहर निकल के देखा तो गलियारे में एक पुलिस वाला खड़ा हुआ मेरी तरफ़ सवालिया नज़रों से देख रहा है.. एक पल को मेरी समझ में कुछ नहीं आया.. कि ये क्या माज़रा है..

पता चला कि मज़दूर जिस जगह जा कर मलबा फेंक रहा था.. वो जगह आरे के अन्दर एक आदिवासी की खेत का किनारा था.. अपनी खेती बाड़ी की ज़मीन और अपने प्राकृतिक जीवन को पूरी तरह से नागरीय सभ्यता द्वारा घेर लिए जाने और लगातार उसके उगले हुए कचरे-मलबे से तंग आ चुके आदिवासी स्त्री ने कल के दिन हिंसा के ज़रिये अपने असंतोष की अभिव्यक्ति की.. और मेरे घर का मलबा फेंकने वाले मज़दूर को पहले जी भर के डंडों से पीटा.. मेरा ख्याल है कि उसने भी कुछ ज़बानदराज़ी ज़रूर की होगी.. और उसके बाद उसे बलपूर्वक आरे दुग्ध कॉलोनी के भीतर स्थित पुलिस थाने ले गई.. जहाँ शिकायत दर्ज किए जाने के नतीजतन पुलिस वाला ठेकेदार की तलाश में मेरे घर तक आया..मैंने पुलिस वाले को बिठाया.. चाय पिलाई और ठेकेदार को फोन करके बुलवा लिया.. उसके आने पर मैंने उसे सुझाव दिया कि वह आदिवासी महिला से माफ़ी माँग ले और उसका गुस्सा ठण्डा करने के लिए एक ऐसा बोर्ड बनाने की पेशकश करे जिस पर लिखा हो कि खबरदार!! यहाँ मलबा-कचरा फेंकने वाले के खिलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई की जाएगी..रामहर्ष ने मेरी बात सपाट चेहरे से सुनी और अच्छा भर कह के पुलिस वाले को देखता रहा.. मेरा मन था थाने जाने का पर पुलिस वाले ने कहा.. आप की ज़रूरत होगी तो साब आप को बुलाएंगे..

मैंने बेचैन हो कर थोड़ी में एक दो बार अपने ठेकेदार रामहर्ष को फोन किया..पर तब तक सरकारी दफ़्तरों के बाहर बैठ कर अपनी बारी आने का जो इंतज़ार किया जाता है.. वह चालू था.. फिर राम हर्ष का फोन आया कि आप को आना होगा.. २४०० रुपये का फ़ाइन लगाया है.. बिना आप के आए काम नहीं चलेगा.. मैं तुरंत चल पड़ा.. आरे का थाना भी आरे की ही तरह खुला और हवादार.. न कोई भीड़ भड़क्का.. न शोरोगुल..बस चार छै खाकी वर्दी वाले.. मेरा ठेकेदार रामहर्ष और मज़दूर दोनों अन्दर के कमरे में अपराधी भाव से बैठे थे.. मैंने देखा मज़दूर की आँखें तनाव से भैंगी हो गई थीं.. सुबह ऐसा नहीं था.. मैने अपने घर आने वाले पुलिस वाले से पूछा कि क्या करना है.. बताया गया कि अभी २४०० रुपये जमा करके अगले दिन दोनों ख़तावारों को अदालत में पेश होना होगा..

हिन्दुस्तान में आजकल न्याय को जो स्वरूप देख रहा हूँ.. उसे सोच कर मैं घबरा गया.. मज़दूर तो पूरी तरह रामआसरे है ही.. रामहर्ष भी कोई धन्नासेठ ठेकेदार नहीं है.. एक पुताई मज़दूर जो अधिक पैसा कमाने के लिए अपने के बढ़ई मित्र के साथ मिल कर ठेकेदारी का काम लेने लगा है.. मेरे घर के तोड़फोड़ आदि के सारे काम वही करता रहा है.. मगर कोई बड़ी कमाई वाले ठेके आज तक उस की झोली में नहीं गिरे हैं..अपने लिए एक मोटरसाइकिल तक नहीं जुटा पाया है..

मैंने पूछा कि इस जुर्माने का क्या कोई हिस्सा आदिवासी औरत को जाएगा.. बताया गया कि ये सरकारी खज़ाने में जमा किए जाने के लिए है.. मैने रिरिया कर कहा कि भाई कोई दूसरा रास्ता नहीं है.. सिपाही ने कहा.. साब से बात करो.. मै इस तरह की बातें करने की अपने सीमाओं को याद करके उसी से कहा कि आप कहो न.. उस ने साब के पास जा कर कुछ फ़ुसफ़ुस किया.. साब ने कहा.. नहीं कुछ नहीं जुरमाना भरिये.. और वे बाहर निकल कर तीसरे पुलिस वाले से कुछ कहने लगे मराठी में.. मेरी भाषाई सीमाएं भी खुल गईं.. मैंने करीब जा कर हिन्दी में मिमियाया.. ये अदालत जाने से बचाव हो जाता तो.. दोनों गरीब आदमी.. अदालत के चक्कर मारेंगे.. कोई और रास्ता नहीं है.. इस से ज़्यादा इशारा करना मेरे बूते की बात नहीं थी.. साब ने थोड़ी कड़वाहट से कहा.. अब कुछ नहीं हो सकता.. अब तो केस बन गया.. अब कहने से क्या होगा.. पहले क्यों नहीं आए?

मेरे ज्ञान चक्षु खुले.. कि मैंने अपने घर में बैठ कर पुलिस वाले के सामने रामहर्ष को जो प्रगतिशील समाजसेवी टाईप सुझाव दिया था.. उसका दुनियादारी की मुद्रा में क्या मूल्य है, पता चल गया.. मुझे पहले ही घर आए पुलिस वाले से हिसाब किताब कर लेना था जैसा कि छेनी चलाने वाले मज़दूर ने मुझे घर पर सुझाया था.. खैर.. बाद में मुझे पता चला कि आदिवासी औरत को भी इस प्रस्ताव में कोई दिलचस्पी न थी.. वह अपराधियों को सजा दिलाने में अधिक इच्छुक थी..

मैंने हार कर रामहर्ष से पूछा कि भई अब तो अदालत जाना ही पड़ेगा.. मेरी और रामहर्ष की ये मायूसी देख कर चौथे-पाँचवें पुलिस वाले ने समझाया कि इतना घबराने की बात नहीं है.. वहाँ जा के बस अपना अपराध कबूल करना है बस उसके बाद कुछ पैसा वापस मिल जाएगा.. क्योंकि जो लिया जा रहा है वह जुरमाने का डिपाज़िट भर है जो अदालत में न जाने पर ज़ब्त हो जाएगा.. हम तीनों ही इन सब बातों पर बहुत आश्वस्त नहीं थे..हमें लग रहा था कि हमें किसी दलदल में धकेला जा रहा है..

साब ने अपने बैग से दो छोटे डब्बे निकाले और बैठ गए.. उनकी मेज़ के इर्द गिर्द दो पुलिस वाले और बैठ गए.. सब ने अपने अपने घर से लाए लंच पैकेट खोल लिए.. पूरा कमरा बासी खाने की गंध से भर गया.. मुझे अपने स्कूली दिन याद आने लगे.. फिर मुझे याद आया कि मैं थाने में हूँ.. जुरमाने की रसीद काटी जा रही है.. साब अब पहले जैसे भयावह नहीं दिख रहे थे.. मैं उनको अपने घर में धारीदार जांघिए में पसर कर टीवी देखते हुए की कल्पना कर सकता था.. करने लगा.. फिर कल्पना को थोड़ा सुधारा.. आज कल धारीदार जांघिया कोई नहीं पहनता.. अब साब बर्मूडा पहने कर पसरे थे.. वास्तविकता में मुंशी ने पूछा कि छुट्टा नहीं है क्या.. मेरे पास नहीं था.. मैंने २५०० दिए थे.. २४०० लेकर सौ लौटाने थे.. मैं उनसे सौ रुपये लौटाने की ज़िद करने के बजाय उन सब के लिए सौ रुपए छोड़ने को तैयार था.. रामहर्ष ने अदालत की जगह समय आदि समझा.. दस्तखत किया.. मज़दूर ने भी दस्तख़त किया.. मैंने देखा उसने टेढ़े-मेढ़े शब्दों में अपना नाम जयशंकर दुबे लिखा.. और हम बाहर निकल आए..

आरे से लौटते हुए कार में रामहर्ष ने अपना डर ज़ाहिर किया कि वो अदालत में जाकर और किसी लफ़ड़े में पड़ने से २४०० में जान छुड़ाने में खुश है.. तभी दुबे जी यानी मार खाए मज़दूर ने बताया कि वो पहले भी हो आए है अदालत.. सिर्फ़ हाँ बोलना होता है.. और ६०० रुपया वापस मिल जाता है.. यह सुन कर रामहर्ष सहर्ष तैयार हो गया.. लगा कि १२०० रुपये का फ़ायदा हो गया.. वे दोनों मलबे को बोरियों में भर कर रखने और फिर इकठ्ठा टेम्पो से फ़िंकवाने की योजना को अंजाम देने के लिए ज़रूरी बोरियों के इंतज़ाम के लिए नीचे रुक गए.. मैं घर आ गया.. थोड़ी देर बाद बोरियाँ ले के दुबे जी आए.. चेहरा और भी आक्रांत.. पता चला कि अब एक कुत्ते ने उनके पैर में दाँत गड़ा दिया.. खून वगैरा नहीं आया ये अच्छी बात हुई.. मगर सोचिए.. एक साथ बेचारे पर इतनी बिपत्ति.. अब तो मान जाइये.. ग्रह नच्छत्तर भी होती है कोई चीज.. खैर कल का दुर्योगपूर्ण दिन बीता और आज सवेरे पता चला कि ४०० का नुकसान हो गया.. २४०० के जुरमाने से १६०० कट गए.. कुल ८०० ही वापस मिले..

आज दो मज़दूरों के अलावा और दो लोग भी पधारे.. रामहर्ष अभी अदालत से वापसी के रस्ते में था.. तो ये दो नए लोग लगे गलियारे में खड़े हो के बतियाने.. अपनी गलियारे को उनकी गपबाजी का अड्डा बनते देख, मैंने अपने महत्व को याद दिलाने के लिए उनका नाम पता पूछ डाला.. एक का नाम निकला श्यामलाल मिश्रा.. काम- लोगों के बाथरूम में मल की आवाजाही का सुगम रास्ता बनाना यानी प्लम्बिंग.. दूसरे का नाम मोहन मिश्रा.. उनका काम - मल के आवाजाही वाले कक्ष को समतल करके टाइल लगाना याने मिस्त्री.. दोनों बाम्हन.. और ग्रहों की और आदिवासी महिला की मार खाए दुबे जी तो हैं ही..

एक साथ तीन-तीन भूसुरों को अपने घर में मज़दूर के रूप में पाकर मैं आह्लादित कम और चिंतित ज़्यादा हो गया.. और लगे हाथ कल के छेनी चलाने वाले मज़दूर का नाम पूछ डाला..उनका नाम हुआ बलिराम चौहान.. और उनके अन्नदाता और हमारे ठेकेदार रामहर्ष लोध हैं.. भाईसाब.. कौन कहता है कि कुछ नहीं बदला.. गाँव में आज क्या हाल है मैं नहीं जानता.. पर शहर का हाल देखिये न कितना कुछ बदल गया..

तस्वीरें:
सबसे ऊपर गूगल अर्थ में आरे का मानचित्र.. बड़ा रूप देखने के लिए चित्र पर
क्लिक करें..
बीच में आरे के अन्दर की एक छटा
आखिर में ग्रहों और आदिवासी महिला की मार खाए हुए जयशंकर दुबे

8 टिप्‍पणियां:

अनूप शुक्ल ने कहा…

आपकी यह आपबीती जगबीती है।

Yunus Khan ने कहा…

बाबा रे बाबा । अपना एक अनुभव शेयर करना चाहता हूं । एक बार ‘नो पार्किंग’ में स्‍कूटर खड़ा कर दिया था चार छह साल पहले । उठ गया । पास के पान के ठिये पर पूछा तो वो हंस हंस के बोला—बाबू इत्‍ती जल्‍दी थी तो ऑटो से आते, काहे खड़ा किये इधर । फिर उसी ने बताया कि बोरीवली पूर्व में जाईये फ्लाईओवर के नीचे । गये । हवलदार ने पांच सौ रूपये की बत्‍ती लगा दी । लाईन में आगे किसी ए एस पी का सुपुत्र था, कार से टक्‍कर मारने पर यहां लाया गया था । बड़ी जिल्‍लत के बाद जान छूटी । पांच सौ रूपये भी गये । स्‍कूटर के साथ बदसलूकी हुई सो अलग । अगर मराठी भाषा आती होती तो शायद सौ डेढ़ सौ में बात बन जाती । फिर एक बार और भी दिलचस्‍प वाकया हुआ । म्‍यूनिसपालिटी की पार्किंग पर बाईक खड़ी की । शाम को देखा तो सारी गाडियां गईं । पता चला कि ये पार्किंग जिस ठेकेदार को दी गयी थी, उसने फीस नहीं भरी और लाईसेन्‍स रद्द हो चुका था । हमने पूछा हमारी क्‍या ग़लती है, हम कोई ठेकेदार का लाईसेन्‍स थोड़ी चेक करते रहेंगे । पार्किंग है गाड़ी खड़ी कर दी । पर कुछ नहीं हुआ । वहां ना तो ठेकेदार था और ना ही पार्किंग वाले । देखा कुछ और परेशान लोग खड़े थे । सब मिलके वार्ड आफिस गये । माथा पच्‍ची की । क्‍लर्क ने कहा, जाओ ठेकेदार से कहो, वही गाड़ी देगा । पर पहले उसे यहां पैसे भरने होंगे । फिर गाडियां छुड़वानी होंगी । आप लोग घर जाओ, और दो दिन में आना, गाडियां मिल जायेंगी । सब के सब सन्‍न । आखिरकार दफ्तर की एक सहयोगी, जो झांसी की रानी का आधुनिक रूप थीं, मदद की । उन्‍होंने म्‍यूनिसपालिटी के दफ्तर में वो हंगामा किया, कि केवल मेरी गाड़ी छोड़ी गयी, बाकायदा क्षमा याचना सहित । मैंने अनुरोध किया बाकियों की भी छोड़ दो । तो गीदड़ भभकी दी गई, भाईसाहब आप निकल लो वरना आपकी गाड़ी भी इन्‍हीं की तरह फंसी रहेगी । सबके पास न्‍याय और अन्‍याय के सैकड़ों किस्‍से होंगे ऐसे ।

हमें आपके और आपके इन मजदूरों के साथ पूरी हमदर्दी है ।

अनिल रघुराज ने कहा…

बस ये पुलिसवाले बदल जाएं। बाकी सब तो अपनी गति से बदल रहा है। जातियां टूट रही हैं, जाति की हेरारकी टूट रही है। ईश्वर आपको आगे से इतने जंजाल में फंसने से बचाए, यही दुआ है।

Udan Tashtari ने कहा…

चलिये पढ़ लिया आपकी बीती. वैसे बाथरुम बन गया कि अभी काम चालू है? रामहर्ष को ईन्जेक्शन लगवा देना भाई, वो जो ८०० बच गये उसमें से.क्या पता कैसे कुत्ते ने काटा है.

बोधिसत्व ने कहा…

दूबे जी का दुख हमारे समय की एक और ही सच्चाई बयान करती है। दुआ करो कि उनका दुख कुछ कम हो।वैसे दूबे जी जाने पहचाने से दिख रहे है।

Sanjeet Tripathi ने कहा…

ह्म्म, लोचे पे लोचा!!

एक सवाल, भैय्या बाथरुम बन गया या नही, घर मे सब को दिक्कत हो रही होगी।

azdak ने कहा…

आगे से प्‍लम्बिंग का कोई काम करवाना हो तो दूबे, चौबे के साथ-साथ पहले अपनी भी कुंडली देख डालना, तभी पैर आगे रखना. हद है. ऐसे डरावने वाक़यों की वजह से ही मैं अपने यहां मरम्‍मत का काम रोके हुए हूं. मेरे घर के नीचेवाली औरत हल्‍ला करेगी तो तुम्‍हारे यहां का किस्‍सा सुनाकर, उसे डांटकर, कुछ दिनों के लिए तो उसे अब चुप रखा ही जा सकता है!

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

कल यह पढ़ कर सोचा था टिप्पणी नहीं करूंगा. पर आज विचार आया कि सरकारी अफसरी की शील्ड है, अत: इस प्रकार की अप्रिय स्थितियों से बचे हैं. भ्रष्टाचार व्याप्त देख रहे हैं, पर व्यक्तिगत रूप से उससे बचे हैं. पर यह कब तक चलेगा? अंतत: इन स्थितियों से दो चार होना पड़ेगा. तब और अंतर्मुखी होते जायेंगे.
इस से दो-चार होने की व्यक्तिगत तकनीक बनानी होगी. इसे पढ़ कर वह आवश्यकता महसूस की. अत: धन्यवाद.

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